एक समय था जब नेता अपने क्षेत्र की जनता को सर-आँखों पर बिठा कर रखते थे। उनकी हर छोटी-बड़ी समस्या का हल निकालने के लिए हर मुमकिन कदम उठाते थे। अपने क्षेत्र के वोटर की ख़ुशी और ग़म में भी परिवार की तरह ही शामिल हुआ करते थे। परंतु आजकल कुछ नेताओं को छोड़ कर ऐसे नेता आपको ढूँढे नहीं मिलेंगे। अनुभवहीन नेता जनता को अपनी मुट्ठी में रखने का झूठा अहसास बनाए बैठे रहते हैं।
सन् 1972 में बनी हिन्दी फ़िल्म दुश्मन में जब गीतकार आनंद बख्शी ने एक गीत के बोल में लिखा, ‘वादे पे तेरे मारा गया बंदा मैं सीधा-सदा’ तो उस समय उनका इशारा एक प्रेमी का अपनी प्रेमिका से था। लेकिन इस गीत की यह एक लाइन हर उस वादे के लिए गुनगुनाई जाती है जो पूरा नहीं किया जाता। फिर वो वादा किन्ही दो व्यापारियों के बीच हो। दो मित्रों के बीच हो। किसी बिल्डर का अपने ग्राहकों से किया वादा हो या फिर चुनावों के दौरान नेताओं का मतदाताओं से किया वादा हो। सभी वादे जब पूरे नहीं किए जाते तो ये गाना अनायास ही कानों में बजने लगता है। परंतु आज हम जिस विषय पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने जा रहे हैं वे हैं चुनावी वादे। इन वादों को करने वाले नेता चाहे किसी भी दल के क्यों न हों क्या वे अपने चुनावी वादे पूरे करते हैं?
चुनाव चाहे किसी राज्य की सरकार का हो या केंद्र की सरकार का, हर राजनैतिक दल मतदाताओं को लुभाने की मंशा से ऐसे कई वादे करते हैं जो वास्तव में पूरे नहीं किए जाते या उनका पूरा होना असंभव होता है। यदि जनता को चुनावों में किए गए वादों और उन्हें पूरा किए जाने के अंतर की देखा जाए तो यह अंतर काफ़ी बड़ी संख्या में पाया जाएगा। कुछ ही सप्ताह पहले दिल्ली विधान सभा के चुनावों की तैयारी पूरे ज़ोर-शोर से चल रही थी। सभी प्रमुख दलों ने मतदाताओं को लुभाने के लिए ऐसे कई वादे कर दिये जिन्हें पूरा होते देखना हर उस वोटर का सपना था, जिसने चुनी हुई सरकार को वोट दिया। चुनाव संपन्न हुए, नई सरकार भी बनी लेकिन चुनावी वादों को पूरा करने पर नई सरकार के ढुलमुल रवैया ने एक बार फिर से मतदाता के मन में शंका पैदा कर दी है। वोटर यही सोच रहा है कि ‘चुनाव से पहले विकास का वादा और चुनाव के बाद टालमटोल का इरादा’ क्यों किया जा रहा है?
अब यदि दिल्ली की ही बात करें तो पहले यहाँ केंद्र और राज्य की सरकारें अलग-अलग दलों की थी तो खींच-तान की स्थिति समझ में आती थी। लेकिन जब केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार हो तो विकास कार्यों में देरी क्यों? दिल्ली के चुनावों में एक अहम वादा किया गया था कि सरकार बनते ही पहली कैबिनेट मीटिंग में दिल्ली की महिलाओं ्ट्रीय महिला दिवस पर उनके खातों में पैसा ट्रांसफ़र भी किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सरकार ने इस योजना के लिए एक कमेटी बना दी और फ़िलहाल यह वादा टल गया। वहीं विपक्षी दलों को भी बैठे बिठाए एक मुद्दा मिल गया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि विपक्षी दल भी अपने चुनावी वादों पर खरे उतरते हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां अन्य राज्यों में विपक्षी दल भी अपने वादों से बचते नज़र आए हैं। ऐसे में देश का मतदाता फिर वो चाहे महिला हो या पुरुष अपने को ठगा सा महसूस करता है।
ऐसा नहीं है कि चुनावों में किए गए हर वादे ‘जुमले’ की श्रेणी में ही आते हैं। जो भी दल चुनावी वादे करते हैं वह ऐसा किसी न किसी आधार पर ही करते हैं। तो इसलिए यदि कोई भी राजनैतिक दल अपने चुनावी वादे को पूरा करने से बचता है या सत्ता पर क़ाबिज़ होने के बाद किसी न किसी ‘विचार’ का बहाना बना कर अपने वादे को टालता है तो मतदाता का उस नेता व दल पर संदेह करना लाज़मी है। ऐसे में मतदाता के मन में यही संदेह आएगा कि या तो चुनावी वादा बिना किसी शोध और चिंतन के किया गया था। यदि ऐसा नहीं है और ये वादा सोच-समझ कर किया गया था तो उसे पूरा न करना उस दल की नीयत पर सवाल खड़ा करेगा। चुनावों से पहले ऐसे वादे हर राजनैतिक दल द्वारा किए जाते हैं। परंतु मतदाताओं को यह सोचना होगा कि वादों की सूची और उन्हें पूरा करने में जिस भी दल का अंतर सबसे कम हो वही दल जनता के हित की सोचता है और उसे ही चुनना चाहिए। यदि सभी दल एक समान हैं तो जनता को चुनावी वादों से भ्रमित होकर इनमें फँसना नहीं चाहिए।
्ट्र और मध्य प्रदेश की भी है जहां चुनावी वादे किए तो बहुत विश्वास के साथ गये थे लेकिन सरकार बनने के काफ़ी समय के बाद तक भी इन्हें पूरा नहीं किया गया। इतना ही नहीं महिलाओं को मिलने वाली राशि के बजट में भी कटौती भी की गई है। तो फिर ऐसे वादों का क्या फ़ायदा जो चुनाव जीतने के बाद पूरे ही न किए जाएँ?
एक समय था जब नेता अपने क्षेत्र की जनता को सर-आँखों पर बिठा कर रखते थे। उनकी हर छोटी-बड़ी समस्या का हल निकालने के लिए हर मुमकिन कदम उठाते थे। अपने क्षेत्र के वोटर की ख़ुशी और ग़म में भी परिवार की तरह ही शामिल हुआ करते थे। परंतु आजकल कुछ नेताओं को छोड़ कर ऐसे नेता आपको ढूँढे नहीं मिलेंगे। अनुभवहीन नेता जनता को अपनी मुट्ठी में रखने का झूठा एहसास बनाए बैठे रहते हैं। बिना यह सोचे कि लोकतंत्र में जनता ही मालिक है नेता नहीं। यदि जनता ने मन बना लिया है कि वे झूठा वादा करने वाले नेता या दल को सत्ता में दोबारा नहीं लाएँगे तो नेता वोटर को लुभाने के लिए चाहे कुछ भी क्यों न करे नतीजा उनके ख़िलाफ़ ही जाएगा।