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24-04-2025 Vol 19

परमेश्वर सबके कर्म को देखता- सुनता है

यह मानव का आदि सनातन मन है कि उसके मन में गलत, अधर्म, पाप, अपराध कर्म अथवा आचरण करते समय जाने -अनजाने ही ईश्वर का स्मरण अवश्य आता है, परंतु वह उसे भूलकर अथवा नकारकर अपना कर्म कर ही बैठता है। ईश्वर के सर्वत्र व्याप्त, सबकी बात को, सबके कर्म को देखने, सुनने संबंधी अर्थात परमेश्वर के यथार्थ दर्शक, यथार्थ श्रोता होने संबंधी मत को मानने वाले मानव के इस सनातन मन के समान ही वेद में भी परमेश्वर को यथार्थ श्रोता कहा गया है।

व्यकित के कर्म को ईश्वर अवश्य ही देख रहा है, सुन रहा है। यह बात मानव मन में बैठी हुई है। यह मानव का आदि सनातन मन है कि उसके मन में गलत, अधर्म, पाप, अपराध कर्म अथवा आचरण करते समय जाने -अनजाने ही ईश्वर का स्मरण अवश्य आता है, परंतु वह उसे भूलकर अथवा नकारकर अपना कर्म कर ही बैठता है। ईश्वर के सर्वत्र व्याप्त, सबकी बात को, सबके कर्म को देखने, सुनने संबंधी अर्थात परमेश्वर के यथार्थ दर्शक, यथार्थ श्रोता होने संबंधी मत को मानने वाले मानव के इस सनातन मन के समान ही वेद में भी परमेश्वर को यथार्थ श्रोता कहा गया है।

वैदिक मान्यतानुसार परमेश्वर सबकी स्तुतियों, प्रार्थनाओं, याचनाओं को यथार्थ रूप में सुनता है। इसलिए वैदिक ग्रंथों में परमेश्वर को व्यापक, अंतर्यामी यथार्थ श्रोता कहा गया है। जीवात्माओं को तो शरीर, ज्ञानेन्द्रियां, कर्मेन्द्रियां और अन्त:करण चतुष्टय प्राप्त हैं, जिनके माध्यम से जीवात्मा अपना सब व्यवहार सम्पादित करता है, परंतु परमेश्वर को जीवात्मा के समान शरीरादि की आवश्यकता नहीं है। वह तो इन साधनों के बिना सब कार्य बड़ी कुशलता से निष्पादित करता है, क्योंकि वह अशरीरी अर्थात निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी तथा परमैश्वर्यवान है।

वह व्यापक और सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान होने से सब कुछ देखता, सुनता, जानता है। इसके लिए मुण्डकोपनिषद् में एक वचन है- यत्तददृश्यम्।  अर्थात- वह अदृश्य, निराकारादि स्वरूप वाला है। यत्तददृश्यम् अर्थात उस ब्रह्मा का ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण नहीं होता, हस्त से पकड़ा नहीं जा सकता, उसका कोई गोत्र वा वर्ण नहीं, वह नेत्र और कर्णरहित है, उसके हाथ और पाँव नहीं, वह नित्य है, व्यापक है, सर्वान्तर्यामी है, सुसूक्ष्म है, नाशरहित है। इससे स्पष्ट है कि परमेश्वर निराकार, चक्षुरादि इन्द्रियरहित होने पर भी सबका दृष्टा, श्रोता है, क्योंकि वह सर्वगत अर्थात सर्वत्र व्याप्त होने से सब कुछ देखता सुनता व जानता है।

बृहदारण्यकोपनिषद् में अस्थूलम् अनणु, अचक्षुम्, अश्रोत्रम् आदि विशेषणों से युक्त करते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी गार्गी से उस अक्षर ब्रह्म के विषय अचक्षुकम् का अभिप्राय स्पष्ट करते हैं कि वह अविनाशी, सर्वज्ञ अक्षर ब्रह्मं चक्षुरादि इन्द्रियों से भिन्न होने से अचक्षुकम् कहा है। वह सर्वगत (व्यापक) होने से बिना चक्षु के सब कुछ देखता है। चक्षु का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पंचमहायज्ञ विधि में लिखा है –

एष एवैतेषां प्रकाशकलात् बाह्याभ्यन्तरयो:।

चक्षु: चक्षु: सर्वदृक्।।

अर्थात- वह परमात्मा बाहर और अन्दर सबका द्रष्टा है।

विश्वतश्चक्षु: पद का अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है –

सर्वस्मिञ्जगति चक्षुर्दर्शनं यस्य स:।

अर्थात- सब जगत् पर चक्षु-दृष्टि रखने वाला है।

परमेश्वर के कर्तृत्व को समझाते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में श्वेताश्वेतर उपनिषद का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है-

अपाणिपादो जवनोग्रहीता पश्यत्यचक्षु: स शृणोत्यकर्ण:।

स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रं पुरुषं पुराणम्।।

-श्वेताश्वेतर उपनिषद 3/19

अर्थात- परमेश्वर के हाथ नहीं, परन्तु अपने शक्तिरूप हाथ से सब रचन, ग्रहण करता, पग नहीं, परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान, चक्षु का गोलक नहीं, परन्तु सबको यथावत देखता, श्रोत्र नहीं तथापि सबकी बात सुनता, अन्त:करण नहीं परन्तु सब जगत को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्त:करण से होने वाले काम अपने सामर्थ्य से करता है।

वैदिक मतानुसार लोगों के दूर अथवा निकट में यथार्थ सत्यासत्य को सुनने वाले विज्ञान स्वरूप अन्तर्यामी जगदीश्वर के क्रियामय यज्ञ संबंधी ज्ञान प्राप्त कराने वाले मंत्रों को अच्छी प्रकार जानकर मनुष्यों को नित्य उच्चारण व चिंतन मनन करने, विचार करने का आदेश देते हुए स्वयं परमात्मा ने यजुर्वेद 3/11 में कहा है –

उपप्रयन्तोऽअध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्रये।

आरेऽअस्मे च शृण्वते।।

-यजुर्वेद 3/11

इस मंत्र में ईश्वर ने अपने स्वरूप का प्रकाश करते हुए कहा है कि मनुष्यों को वेदमंत्रों के साथ ईश्वर की स्तुति अथवा यज्ञ के अनुष्ठान को करके जो ईश्वर भीतर-बाहर सब जगह व्याप्त होकर सब व्यवहारों को सुनता अथवा जानता हुआ वर्त्तमान है। इस कारण उससे भय मानकर अधर्म करने की इच्छा भी न करनी चाहिए। जब मनुष्य परमात्मा को जानता है, तब समीपस्थ और जब नहीं जानता तब दूरस्थ है।

उल्लेखनीय है कि वह ब्रह्म अश्रोत्र है। अक्षर, ब्रह्म, श्रोत्र-भिन्न है। विज्ञान स्वरूप, सबका अन्तर्यामी, व्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान जगदीश्वर सबके अन्दर-बाहर व्याप्त हो रहा है। उसकी व्याप्ति के बिना कोई वस्तु नहीं है। अग्रिस्वरूप परमेश्वर सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने से सबको देखता, जानता व सुनता है। इसलिए सब मनुष्यों को वेद मंत्रों द्वारा उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना करनी चाहिए। यजुर्वेद 3/11का यह मंत्र भी यही उपदेश दे रहा है कि यज्ञीय सब शुभकर्म वेद मंत्रों के द्वारा ही सम्पादित करने चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में कहते हैं- निर्भ्रान्त ज्ञानयुक्त, सब चराऽचर जगत के व्यवहार को यथावत जानने से ही ईश्वर का नाम प्राज्ञ है। ईश्वर सबका परम मित्र होता है। क्योंकि जो मनुष्य किसी का मित्र है, वही अन्य का शत्रु और किसी से उदासीन भी देखने में आता है।

इससे मुख्यार्थ में सखा आदि का ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु जैसा परमेश्वर सब जगत का निश्चित मित्र, न किसी का शत्रु और न किसी से उदासीन है, इससे भिन्न कोई भी जीव इस प्रकार का कभी नहीं हो सकता। इसलिए परमात्मा ही का ग्रहण यहाँ होता है। हाँ, गौण अर्थ में मित्रादि शब्द से सुहृदादि मनुष्यों का ग्रहण होता है। (ञिमिदा स्नेहने) अस्माद् धातोरौणादिकः क्त्रः प्रत्ययः। इस धातु से औणादिक क्त्र प्रत्यय के होने से मित्र शब्द सिद्ध होता है। मेदते मिद्यते, स्निह्यति स्निह्यते वा स मित्रः। जो सबसे स्नेह करे और सबको प्रीति करने योग्य हो, वह परमेश्वर सबका सच्चा मित्र है, इससे उस परमेश्वर का नाम मित्र है।

स्तुति, प्रार्थना, उपासना श्रेष्ठ की ही की जाती है। श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव और सत्य-सत्य व्यवहारों में सबसे अधिक हो। उन सब श्रेष्ठों में भी जो अत्यन्त श्रेष्ठ, उसको परमेश्वर कहते हैं, जिसके तुल्य न कोई हुआ, न है और न होगा। जब तुल्य नहीं तो उससे अधिक क्योंकर हो सकता है? जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामर्थ्य और सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण हैं, वैसे अन्य किसी जड़ वा जीव पदार्थ के नहीं हैं। जो पदार्थ सत्य है, उसके गुण, कर्म, स्वभाव भी सत्य ही होते हैं। इसलिए सब मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें, उससे भिन्न की कभी न करें। क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महादेव पूर्वज महाशय विद्वान, दैत्य-दानवादि निकृष्ट मनुष्य और अन्य साधारण मनुष्यों ने भी परमेश्वर ही में विश्वास करके, उसी की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करी, उससे भिन्न की नहीं की। वैसे हम सबको करना योग्य है।

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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