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24-04-2025 Vol 19

राणा के प्रत्यर्पण सच्चाई की बानगी

भारत ने दिसंबर 2019 में अमेरिका को राणा के औपचारिक प्रत्यर्पण अनुरोध भेजा था, जिसे बाइडन प्रशासन ने वर्ष 1997 की द्विपक्षीय प्रत्यर्पण संधि के तहत स्वीकार कर लिया। राणा और हेडलीदोनों छोटी आयु से एक-दूसरे को जानते है। उसने पाकिस्तान के उसी हसन अब्दाल कैडेट स्कूल में पढ़ाई की थी, जहां हेडली भी पढ़ चुका था। पाकिस्तानी सेना में सेवा देने के बाद राणा कनाडा जाकर बस गया और वहां की नागरिकता ले ली।

गत दिनों आतंकवादी तहव्वुर हुसैन राणा का अमेरिका से भारत में प्रत्यर्पण का रास्ता साफ हुआ। राणा वर्ष 2008 के 26/11 मुंबई आतंकवादी हमले में भारत का वांछित है। भारत को पहले जहां पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक डेविड कोलमैन हेडली (दाऊद सैयद गिलानी), जो इस मामले में दोषी है और अमेरिकी जेल में 35 वर्ष की सजा काट रहा है— उससे पूछताछ करने का मौका मिला था, वही अब देश को पाकिस्तानी सेना के पूर्व डॉक्टर और कनाडा में बसने के बाद कारोबारी बने राणा के प्रत्यर्पण में सफलता मिली है।

यह घटनाक्रम न केवल भारत की बड़ी कूटनीतिक विजय का पर्याय है, साथ ही यह उस दूषित नैरेटिव को फिर से ध्वस्त करता है, जिसमें तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस नीत संप्रग सरकार ने तथ्यों को काट-छांटकर समस्त हिंदू समाज पर आतंकवाद का वैश्विक बिल्ला चस्पा करने का अक्षम्य अपराध किया था।

देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर लगभग 16 वर्ष पहले हुआ आतंकवादी हमला, दुनिया में पिछले ढाई दशक के सबसे बड़े जिहादी आक्रमणों में से एक है। इसमें 166 निरपराध मारे गए थे, जिनमें 24 विदेशी नागरिक भी शामिल थे। पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के 10 आतंकवादी पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई की मदद से 26 नवंबर 2008 को अपने मजहब प्रेरित मंसूबों को अंजाम देने, रात के अंधेरे में समुद्री मार्ग से मुंबई घुस आए थे।

उन्होंने ताज होटल और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस रेलवे स्टेशन सहित शहर के आठ स्थानों पर एक के बाद एक कई हमले किए और ऐसा अगले तीन दिनों तक चलता रहा। अंततोगत्वा, भारतीय जांबाजों ने 10 में से 9 आतंकवादियों को ढेर कर दिया, जबकि मुंबई पुलिसकर्मी तुकाराम ओंबले के सर्वोच्च बलिदान से कसाब के रूप में एक जिहादी को जिंदा पकड़ लिया गया। उसे भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने का दोषी ठहराते हुए अदालत ने फांसी की सजा सुनाई और इसे 2012 में अमल में लाया गया। उम्मीद है कि तहव्वुर पूछताछ में कई अज्ञात तथ्यों का खुलासा करेगा।

भारत ने दिसंबर 2019 में अमेरिका को राणा के औपचारिक प्रत्यर्पण अनुरोध भेजा था, जिसे बाइडन प्रशासन ने वर्ष 1997 की द्विपक्षीय प्रत्यर्पण संधि के तहत स्वीकार कर लिया। राणा और हेडली— दोनों छोटी आयु से एक-दूसरे को जानते है। उसने पाकिस्तान के उसी हसन अब्दाल कैडेट स्कूल में पढ़ाई की थी, जहां हेडली भी पढ़ चुका था। पाकिस्तानी सेना में सेवा देने के बाद राणा कनाडा जाकर बस गया और वहां की नागरिकता ले ली। राणा ने अमेरिकी शहर शिकागो में “फर्स्ट वर्ल्ड इमिग्रेशन सर्विसेज” नामक एक कंपनी शुरू की, जिसकी मुंबई शाखा ने हेडली की लश्कर-ए-तैयबा के संभावित लक्ष्यों की पहचान करने में मदद की थी। यही तर्क अमेरिकी अदालत में सुनवाई के दौरान सरकारी वकीलों का भी था। 2011 में उसे भारत में हमले के लिए लश्कर की सहायता करने और डेनमार्क में जूलैंड्स-पोस्टन नामक समाचारपत्र पर हमले की योजना में शामिल होने के आरोप में दोषी ठहराया गया था। बाद में अमेरिकी ज्यूरी ने 26/11 मुंबई हमला संबंधित आरोप से राणा को बरी कर दिया। तब राणा के वकील का कहना था कि हेडली ने उसे धोखे में रखा था, परंतु भारत ऐसा नहीं मानता।

जिहादी कसाब के बाद अमेरिका में आतंकवादी डेविड हेडली और तहव्वुर राणा के जीवित पकड़े जाने के बाद अक्टूबर 2009 में स्पष्ट था कि इस हमले को ‘लश्कर-ए-तैयबा’, पाकिस्तानी सेना और आई.एस.आई ने मिलकर अंजाम दिया था। परंतु इसके एक साल बाद दिसंबर 2010 में कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने ‘26/11- आर.एस.एस. की साजिश’ नामक मनगढ़ंत पुस्तक का लोकार्पण करके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कटघरे में खड़ा कर दिया। इस संबंध में तब पाकिस्तानी जिहादियों द्वारा छलावे हेतु हाथों में पहले पवित्र कलावा/मौली को आधार बनाकर समाचारपत्रों में कई आलेख प्रकाशित हुए थे। मुंबई के तत्कालीन पुलिस आयुक्त राकेश मारिया ने अपनी आत्मकथा ‘लेट मी से इट नाउ’ में लिखा है कि यदि कसाब को ज़िंदा नहीं पकड़ा जाता, तो 26/11 हमले को “हिंदुओं” का काम बताने की योजना थी। आखिर इसके पीछे वास्तविक मंशा क्या थी?

यदि इस जहरीले उपक्रम के कारणों को ढूंढा जाए, तो तत्कालीन कांग्रेस नीत सरकार द्वारा समस्त हिंदू समाज पर आतंकवाद का आधारहीन आरोप लगाना केवल मुस्लिम वोटबैंक को रिझाने या पाकिस्तान को क्लीनचिट देने के प्रयास तक सीमित नहीं था, बल्कि इसका असली उद्देश्य इस्लामी कट्टरता-आतंकवाद को ‘न्यायोचित’ ठहराने के लिए दुनिया में मनगढ़ंत ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ सिद्धांत को शेष विश्व में स्थापित करना था। यह उस दौर की बात थी, जब बड़े भारतीय शहर अक्सर आतंकवादी हमलों का शिकार हो रहे थे। इसमें सभी जिहादी लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद या ‘इंडियन मुजाहिदीन’ से जुड़े थे।

भारतीय संसद (2001), गुजरात अक्षरधाम मंदिर (2002), गोधरा (2002), मुंबई (2006, 2008 और 2011), दिल्ली (2005 और 2008), पुणे (2010), वाराणसी (2010), हैदराबाद (2013), बिहार स्थित बोधगया (2013) और पटना (2013) इसके प्रमाण है। 26/11 सहित इन आतंकी हमलों में कुल 500 से अधिक निरपराधों की मौत हो गई थी। यदि इसमें तब जम्मू-कश्मीर के साथ अन्य आतंकवादी घटनाओं को जोड़ें, तो मृतकों की संख्या और बढ़ सकती है। इस पृष्ठभूमि में पिछले 10 वर्षों (2014-24) में यदि दशकों से संकटग्रस्त जम्मू-कश्मीर और पंजाब की एक-दो अपवाद रूपी आतंकी घटनाओं को छोड़ दें, तो वर्तमान भारतीय नेतृत्व की आतंकवाद के प्रति शून्य-सहनशील नीति के कारण शेष देश में एक भी बड़ा जिहादी हमला नहीं हुआ है।

वर्ष 2008 का 26/11 आतंकवादी हमला कोई पहला मामला नहीं था, जिसमें तथ्यों से छेड़छाड़ करके हिंदुओं को आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास हुआ। 1993 के मुंबई सिलसिलेवार बम धमाके, 1998 का कोयंबटूर सीरियल ब्लास्ट और 2013 के पटना गांधी मैदान श्रृंखलाबद्ध धमाके में भी इसी प्रकार का दूषित नैरेटिव चलाया गया था। आशा है कि कसाब-हेडली के बाद राणा से पूछताछ पश्चात फर्जी ‘हिंदू आतंकवाद’ के जुमले पर हमेशा के लिए विराम लग जाएगा।

बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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