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11-03-2025 Vol 19

काशी की मणिकर्णिका महाश्मशान होली

श्मशान में होली खेलने का अर्थ है- मृत्यु की उस भय से मुक्ति पा लेना। शिव किसी शरीर मात्र का नाम नहीं है। शिव वैराग्य की उस चरम अवस्था का नाम है, जब व्यक्ति मृत्यु की पीड़ा, भय अथवा अवसाद से मुक्त हो जाता है। शिव होने का अर्थ है, वैराग्य की उस ऊंचाई पर पहुंच जाना, जब किसी की मृत्यु कष्ट न दे, बल्कि मृत्यु को भी जीवन का एक आवश्यक हिस्सा मान कर उसे पर्व की तरह खुशी -खुशी मनाया जाय।

11 मार्च- काशी में चिता भष्म होली

भगवान शिव और मोक्ष की नगरी के रूप में प्रसिद्ध विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक काशी को मंदिरों का शहर भी कहा जाता है। शिव और काशी का संयोग सृष्टि के प्रारंभ से ही है। इसीलिए कहा जाता है- काशी के कंकर- कंकर में शंकर। यहां के गली से लेकर घर तक में शिवालय मिलते हैं, और प्रत्येक व्यक्तित्व में शिवत्व। शिव का औघड़पन यहां की मस्ती में सहज प्राप्य है। सम्पूर्ण भारत में विद्यमान बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर भी काशी में ही विद्यमान है। काशी विश्वनाथ में स्वयं भगवान शिव शक्ति की देवी माता भगवती के साथ विराजमान हैं। काशी में स्थित काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के दो भाग हैं- दाहिने भाग में शक्ति के रूप में माता भगवती विराजमान हैं, तथा दूसरी तरफ स्वयं भगवान शिव वाम रूप (सुंदर रूप) में विराजमान है। इस कारण इसे काशी का अविमुक्त क्षेत्र भी कहा जाता है। माता भगवती के दाहिनी ओर विराजमान होने से मुक्ति का मार्ग केवल काशी में खुलता है।

यहां मनुष्य को संपूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा के पावन तट पर स्थित त्रिशूलाधिपति का यह स्थल सम्पूर्ण विश्व में शिवभक्तों के लिए आस्था का महत्वपूर्ण केंद्र है। यह मंदिर भगवान शिव और माता पार्वती का आदि स्थान है। इस पवित्र मंदिर के प्रमुख देवता श्रीविश्वनाथ हैं। विश्वनाथ का अर्थ है- विश्व के नाथ अर्थात ब्रह्मांड के भगवान। ऐसी मान्यता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। प्र

लयकाल में भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं, और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। इसे आदि सृष्टि स्थली की भूमि भी कहा जाता है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभिकमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होंने सम्पूर्ण संसार की रचना की। अगस्त्य मुनि, महर्षि वशिष्ठ और राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र भी काशी विश्वेश्वर की आराधना -उपासना से मनोवांछित वर प्राप्त कर लोकप्रिय हो गए।

बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी के सभी तत्व, सभी पर्व, सब त्योहार शिव के रंग में रंगे हैं। यहां की होली भी अनूठी है। फाल्गुन में काशी का कण- कण फ़ाग गाता है। श्मशान अर्थात मशान में होली खेलने दिगम्बर आते हैं। यहां शिव के साथ- साथ हर जीव संसार के इस महाश्मशान में होली ही खेल रहा है। यह खेल तब तक जारी रहेगा, जब तक उस मणिकर्णिका की ज्योति में समाहित नहीं हो जाता। संसार श्मशान ही तो है। मृत्यु से सर्वाधिक भयभीत रहने वाले मनुष्य के प्रत्येक भय का अंतिम कारण अपनी अथवा अपनों की मृत्यु ही होती है।

श्मशान में होली खेलने का अर्थ है- मृत्यु की उस भय से मुक्ति पा लेना। शिव किसी शरीर मात्र का नाम नहीं है। शिव वैराग्य की उस चरम अवस्था का नाम है, जब व्यक्ति मृत्यु की पीड़ा, भय अथवा अवसाद से मुक्त हो जाता है। शिव होने का अर्थ है, वैराग्य की उस ऊंचाई पर पहुंच जाना, जब किसी की मृत्यु कष्ट न दे, बल्कि मृत्यु को भी जीवन का एक आवश्यक हिस्सा मान कर उसे पर्व की तरह खुशी -खुशी मनाया जाय। शिव के शरीर में भभूत लपेट कर नाच उठने पर वे समस्त भौतिक गुणों-अवगुणों से मुक्त दिखते हैं। यही शिवत्व है।

मान्यता है कि काशी की मणिकर्णिका घाट पर भगवान शिव ने देवी सती के शव की दाहक्रिया की थी। तबसे वह महाश्मशान है, जहां चिता की अग्नि कभी नहीं बुझती। एक चिता के बुझने से पूर्व ही दूसरी चिता में आग लगा दी जाती है। वह मृत्यु की लौ है, जो कभी नहीं बुझती। जीवन की हर ज्योति अंततः उसी लौ में, उसी परम ज्योति में समाहित हो जाती है। शिव के अपने पत्नी देवी सती के शव को अपने कंधे पर लेकर नाचते समय वे मोह के चरम पर थे। वे शिव थे, फिर भी शव के मोह में बंध गए थे। मोह बड़ा प्रबल होता है, यह किसी को नहीं छोड़ता। सामान्य जन भी विपरीत परिस्थितियों में, या अपनों की मृत्यु के समय ऐसे ही शव के मोह में तड़पते हैं। शिव शिव थे, वे रुके तो उसी प्रिय पत्नी की चिता भष्म से होली खेल कर युगों- युगों के लिए वैरागी हो गए।

मोह के चरम पर ही वैराग्य उभरता है, लेकिन मनुष्य इस मोह से नहीं निकल पाता। वह एक मोह से छूटता है, तो दूसरे के फंदे में फंस जाता है। यह मोह मनुष्य को शिवत्व प्राप्त नहीं होने देता। काशी शिव के त्रिशूल पर टिकी है। शिव की अपनी नगरी है काशी। कैलाश के बाद उन्हें सबसे अधिक काशी ही प्रिय है। यही कारण है कि काशी एक अलग प्रकार की वैरागी ठसक के साथ जीती है। युगों -युगों से गंगा के इस पावन तट पर स्थित मणिकर्णिकाघाट, हरिश्चंदघाट में मुक्ति की आशा ले कर देश- विदेश से आने वाले लोग वस्तुतः शिव की अखण्ड ज्योति में समाहित होने ही आते हैं।

काशी में देवस्थान और महाश्मसान का महत्व एक समान है, जहां जन्म और मृत्यु दोनों मंगल है। ऐसी अलबेली अविनाशी काशी में जलती चिता की राख और भस्म से संसार की सबसे अनूठी व निराली होली खेली जाती है। महाश्मशान मणिकर्णिका पर बाबा मसान नाथ के चरणों में चिता की राख समर्पित कर फाग और राग-विराग दोनों का ही उत्सव आरम्भ हो जाता है। प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल एकादशी रंगभरी एकादशी के अगले दिन फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को महाश्मशान मणिकर्णिका पर चिता भस्म की होली के अवसर पर ऐसा परिदृश्य उत्पन्न होता है, मानो स्वयं भूतभावन महादेव वहां अपने गणों के साथ प्रकट हो गए हों। रंगभरी एकादशी के दिन भी हरिश्चंद्र घाट के श्मशान पर चिता की राख से होली खेलकर काशी में चिता-भस्म की होली की शुरुआत हो जाती है।

इसी दिन से बनारस में रंग-गुलाल खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिनों तक चलता है। इस वर्ष 2025 में 11 मार्च दिन मंगलवार को फाल्गुन शुक्ल द्वादशी होने के कारण इस दिन मणिकर्णिका घाट काशी में मशान होली खेली जाएगी। मान्यतानुसार बाबा विश्वनाथ के साथ होली खेलने और उत्सव मनाने के लिए भूत-प्रेत, पिशाच, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी, औघड़, सन्यासी, अघोरी, कपालिक, शैव-शाक्त सब आते हैं। ये वो लोग हैं, जो रंगभरी एकादशी में शामिल नहीं होते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार शिव अपने ससुराल पक्ष के निवेदनानुसार अपने गणों को माता पार्वती का गौना लेने जाने के समय बाहर ही रोक देते हैं, क्योंकि जो स्थिति महाशिवरात्रि पर शिव के विवाह में उत्पन्न हुआ था, वही अराजकता पुनः गौना के समय भी उत्पन्न न हो जाए। इसलिए अगले दिन मिलने का वादा करके सबको महाश्मशान बुला लेते हैं।

काशी की आदिकाल से चली आ रही यह परंपरा उसे अविमुक्त क्षेत्र बनाती है, जहां आम से लेकर खास तक, संत से लेकर सन्यासी तक चिता भस्म को विभूति मानकर माथे पर रमाए भांग -बूटी छाने होली खेलते हैं। ऐसे में राग-विराग की नगरी काशी की प्राचीन काल से चली आ रही परम्पराएं भी निराली हैं, जहां रंगभरी एकादशी पर महादेव काशी विश्वनाथ अड़भंगी बारात के साथ माता पार्वती का गौना कराकर ले जाते हैं, तो वहीं दूसरे दिन बाबा अपने वादे के अनुसार गणों के साथ उत्सव मनाने महाश्मशान मणिकर्णिका भी जाते हैं, जहां चिता भस्म के साथ ये होली खेली जाती है। परंपराओं के अनुसार भगवान शिव के स्वरूप बाबा मशान नाथ की पूजा कर महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर उनके गण जलती चिताओं के बीच गुलाल की जगह चिता-भस्म की राख से होली खेलते हैं। मणिकर्णिका पर अनवरत जलती चिताओं के मध्य पारम्परिक चिता भस्म की होली खेलने साधक और शिव भक्त देश- विदेश से आते हैं।

इस सनातनी परंपरा का निर्वाह करते हुए आज भी काशी में हर वर्ष रंगभरी एकादशी को बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार किया जाता है। वे दूल्हे के रूप में सजाए जाते हैं। फिर विधिपूर्वक हर्षोल्लास से बाबा विश्वनाथ के संग माता गौरा का गौना कराया जाता है। पूरी परंपरा का बनारस में विधिवत पालन होता है। काशीवासी आज भी बाराती बनते हैं। भक्त शिव के गण बनते हैं। महाशिवरात्रि पर बाराती बनकर शिव विवाह में शामिल होने वाले गण ही अब बाबा की पालकी लेकर गौना कराने निकलते हैं। माता गौरी की विदाई कराकर शिव के काशी विश्वनाथ विश्वनाथ मंदिर की तरफ प्रस्थान करते ही काशी में शिव के गण बने शिव-भक्त रंग-गुलाल उड़ाते हुए साथ चलते हैं।

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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