मध्य प्रदेश की ‘लाड़ली बहना योजना’ की तर्ज पर ‘लड़की बहिन योजना’ और ‘लाड़ला भाई योजना’ लागू किया। उसने महिलाओं और युवाओं को सरकारी योजनाओं का लाभ दिया, जिसका असर महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों में दिखा है। कह सकते हैं कि महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में लोगों ने महा विकास अघाड़ी को जीत दिलाई थी, लेकिन पांच महीने में ही उनको समझ में आ गया कि महाराष्ट्र के लिए क्या अच्छा है। इसलिए उन्होंने सकारात्मक और विकासोन्मुख राजनीति को चुन लिया।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार शुरू करते हुए अक्टूबर के पहले और दूसरे हफ्ते में दो बातें कही थीं। पहली, ‘अगर हम बटेंगे तो बांटने वाले महफिल सजाएंगे’ और दूसरी, ‘एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’। महाराष्ट्र के जागरूक मतदाताओं ने इन दोनों बातों में छिपे मर्म को समझा और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले महायुति को ऐसा प्रचंड बहुमत दिया, जैसा निकट अतीत में किसी को नहीं मिला था। यह मामूली बात नहीं है कि भाजपा ने 2014 का अपना रिकॉर्ड तोड़ दिया। वह अकेले बहुमत के नजदीक पहुंच गई। यह भाजपा की ताकत थी, जिससे एकनाथ शिंदे की शिव सेना और अजित पवार की एनसीपी को भी बड़ी जीत मिली। और यही कारण है कि जो अजित पवार भाजपा के नारों का विरोध कर रहे थे उन्होंने भी चुनाव नतीजों के बाद कहा कि ‘एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’।
महाराष्ट्र के चुनाव के संदर्भ में इस नारे की दो तरह से व्याख्या हो सकती है। पहली व्याख्या तो यह है कि सनातन धर्मियों को एक रहना होगा नहीं तो असुरक्षा बढ़ेगी। वह असुरक्षा किसी एक व्यक्ति या जाति या एक समुदाय की नहीं है, बल्कि व्यापक है। देश की एकता और अखंडता के लिए भी है। तभी महाराष्ट्र के मतदाताओं ने तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों को ठुकरा दिया। दूसरी व्याख्या यह है कि गठबंधन एक रहा तो उसे इसका फायदा मिला। दूसरी तरफ कांग्रेस का जो गठबंधन था उसमें आखिरी समय तक खींचतान होती रही थी। दो महीने तक सीट बंटवारा नहीं हो पाया था। चुनाव से पहले ही पार्टियां ज्यादा सीट लड़ने और अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए लड़ रही थीं। इसके मुकाबले महायुति को सीट बंटवारे में भी समस्या नहीं आई और एक बार भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कह दिया गया कि मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव नतीजों के बाद होगा तो उसे सबने स्वीकार कर लिया। सो, कह सकते हैं कि गठबंधन एक रहा तो सब सेफ रहे और बहुसंख्यक एक रहे तो तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों को मौका नहीं मिला।
दुर्भाग्य से उद्धव ठाकरे भी इसी तुष्टिकरण की राजनीति का शिकार हो गए। वे अपने पिता स्वर्गीय बाला साहेब ठाकरे की राजनीतिक विरासत को भूला बैठे। बाल साहेब ठाकरे ने जीवन में कभी तुष्टिकरण की राजनीति नहीं की, बल्कि वे हमेशा कांग्रेस की तुष्टिकरण की राजनीति का विरोध करते रहे। लेकिन उनके बेटे और पोते ने जिस तरह की राजनीति की वह शिव सैनिकों और व्यापक रूप से हिंदू समाज को निराश करने वाली थी। तभी जब केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने कहा कि ‘उद्धव ठाकरे औरंगजेब फैन क्लब के मेम्बर हो गए हैं’ तो लोगों को इस बात में सचाई दिखी। उन्होंने समझा कि उनको स्वर्गीय बाल ठाकरे के बेटे और पोते की तुष्टिकरण की राजनीति को नहीं बचाना है, बल्कि उनकी राजनीतिक विरासत को बचाना है। इसलिए उन्होंने श्री उद्धव ठाकरे की राजनीति को खारिज कर दिया। श्री उद्धव ठाकरे भूल गए कि उनके पिता ने कैसी राजनीति की है और इसका खामियाजा उनको भुगतना पड़ा।
इसी तरह श्री उद्धव ठाकरे, श्री राहुल गांधी और श्री शरद पवार यह भी भूल गए कि वे मुंबई में बैठे हैं, जो देश की वित्तीय राजधानी है। वहां बैठ कर कॉरपोरेट विरोधी बयानबाजी और राजनीति करना कोई अच्छी रणनीति नहीं है। किसी एक कॉरपोरेट घराने को जब आप निशाना बनाते हैं तो ऐसा नहीं है कि उससे दूसरा कॉरपोरेट खुश होता है। महा विकास अघाड़ी ने अपना कॉरपोरेट विरोधी रुख दिखा कर एक और बड़ी गलती की। तीसरे, गलती महा विकास अघाड़ी की पार्टियां यह भूल गई हैं देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा पैदा करने वालों को यह देश माफ नहीं करता है। तभी जब उन्होंने क्षेत्रीयता को बढ़ावा दिया। महाराष्ट्र बनाम गुजरात का मुद्दा बनाया तो गर्वित महाराष्ट्र के लोगों को यह बात ठीक नहीं लगी। सो, कह सकते हैं कि महाराष्ट्र के लोगों ने भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को ऐतिहासिक जनादेश देकर तुष्टिकरण व विभाजन की राजनीति को खारिज किया है, कॉरपोरेट और विकास विरोधी राजनीति को ठुकराया है और क्षेत्रीयता के आधार पर बंटवारे की राजनीति करने वालों को नकार दिया है। उन्होंने विकास और समावेशी राजनीति को चुना है।
यहां एक बात और खासतौर से जिक्र करने वाली है और वह ये है कि लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ने जबरदस्त वापसी की। लोकसभा चुनाव में भाजपा को एक झटका लगा था। देश के नागरिकों प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर लगातार तीसरी बार मुहर लगाई थी लेकिन भाजपा का बहुमत थोड़ा कम कर दिया था। भाजपा ने जनादेश के इस संदेश को समझा और उस हिसाब से अपनी रणनीति और तकनीक दोनों में बदलाव किया। उसने अपना गठबंधन मजबूत किया और एकजुटता के संदेश को लोगों तक पहुंचाने का फैसला किया। उसने संगठन की ताकत बढ़ाई। सदस्यता अभियान शुरू किया। गठबंधन को मजबूत बनाया और पहले से ज्यादा मेहनत शुरू कर दी। दूसरी ओर विपक्षी गठबंधन को लगा कि लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें कम कर दी हैं तो अब भाजपा खत्म होने वाली है।
सो, विपक्ष लापरवाह हो गया, गठबंधन में खींचतान बढ़ गई और सब चुनाव जीतने से पहले ही मलाई बांटने के लिए लड़ने लगे। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने बार बार अपनी चुनावी सभाओं में कहा कि इन पार्टियों से सावधान रहना है, जो जनता को लूटने के लिए अभी से आपस में लड़ रही हैं। इसके साथ ही भाजपा को यह भी समझ में आ गया कि विपक्षी पार्टियों ने मुफ्त की वस्तुएं और सेवाओं को अपना मुख्य हथियार बनाया है। इसका मतलब है कि भले सैद्धांतिक रूप से भाजपा राज्य का खजाना लुटाने के पक्ष में नहीं हो लेकिन तात्कालिक चुनौतियों का सामना करने के लिए उसे भी लोक लुभावन राजनीति करनी होगी। सो, उसने मध्य प्रदेश की ‘लाड़ली बहना योजना’ की तर्ज पर ‘लड़की बहिन योजना’ और ‘लाड़ला भाई योजना’ लागू किया। उसने महिलाओं और युवाओं को सरकारी योजनाओं का लाभ दिया, जिसका असर महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों में दिखा है। कह सकते हैं कि महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में लोगों ने महा विकास अघाड़ी को जीत दिलाई थी, लेकिन पांच महीने में ही उनको समझ में आ गया कि महाराष्ट्र के लिए क्या अच्छा है। इसलिए उन्होंने सकारात्मक और विकासोन्मुख राजनीति को चुन लिया।
जहां तक झारखंड का सवाल है तो वह भाजपा के लिए चिंतन करने का विषय है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जिस तरह से महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने कमान संभाली और सीट बंटवारे से लेकर उम्मीदवारों के चयन और प्रचार तक में बिल्कुल ढील नहीं दी गई उसी तरह झारखंड में भी करना चाहिए था। झारखंड में जब भाजपा ने मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया था तो सीधे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ना चाहिए था।
भाजपा को यह समझने की जरुरत थी कि झारखंड में बड़ी आसानी से अस्मिता का मुद्दा बन जाता है इसलिए किसी दूसरे प्रदेश के नेता का चेहरा आगे करने का नुकसान हो सकता है और किसी अन्य प्रदेश की राजनीति या किसी अन्य प्रदेश का नैरेटिव झारखंड में नहीं चल सकता है। दूसरे, हेमंत सोरेन की सरकार ने बिजली बिल माफ करने का ऐलान किया या ‘मइया सम्मान योजना’ के तहत महिलाओं को हर महीने 11 सौ रुपए देने की योजना शुरू की तो भाजपा बहुत प्रभावी तरीके से इसका जवाब नहीं दे पाई। उसने ‘गो गो दीदी योजना’ की घोषणा की, लेकिन जितने प्रभावी तरीके से भाजपा ने छत्तीसगढ़ में ‘महतारी वंदन योजना’ के जरिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार की योजनाओं को काउंटर किया वैसा झारखंड में नहीं कर पाई।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि, ‘एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’ का नारा जितना महाराष्ट्र के लिए उपयुक्त था उतना ही झारखंड के लिए भी था। यह भी कह सकते हैं कि झारखंड में जिस तरह से बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या बढ़ी है और जिस तरह से आदिवासी बहुल इलाकों की जनसंख्या संरचना बदली है उस लिहाज से वहां भाजपा के लिए स्थितियां ज्यादा मुनासिब थीं। परंतु जैसे ही भाजपा ने घुसपैठ को टारगेट किया, जनसंख्या संरचना बदलने को टारगेट किया, धर्मांतरण को निशाना बनाया वैसे ही वो तमाम शक्तियां सक्रिय हो गईं, जो इससे लाभान्वित हो रही हैं। उनके अस्तित्व का सवाल पैदा हो गया। यही कारण है कि इस बार पूरे प्रदेश के सभी पांच क्षेत्रों- पलामू, दक्षिणी छोटनागपुर, उत्तरी छोटनागपुर, कोल्हान और संथालपरगना में कहीं भी जेएमएम, कांग्रेस, राजद और लेफ्ट के वोट में बंटवारा नहीं हुआ।
इसके उलट भाजपा के वोट में जयराम महतो की झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा ने बड़ा सेंध लगा दिया। सो, कुछ रणनीति की कमियां और कुछ निहित स्वार्थों की अति सक्रियता ने भाजपा को चुनाव हरा दिया। परंतु चुनाव हारने के बाद भी भाजपा की यह बड़ी जिम्मेदारी है कि झारखंड में घुसपैठ और धर्मांतरण के खिलाफ उसका अभियान जारी रहे और केंद्र सरकार किसी तरह से इस पर लगाम लगाने के कदम उठाए। भाजपा सरकार में आ जाती तो वह खुद इस काम को करती लेकिन अब केंद्र सरकार की यह जिम्मेदारी है। (लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशेष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)