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24-04-2025 Vol 19

अमृत कुंभ की विकट खोज

mahakumbh 2025 :‘अमृता कुंभेर संधानेफ़िल्म में हादसे के बाद अपने किसी परिजन को खो चुके पात्र पूछते दिखते हैं कि हम उसके बगैर कैसे लौटें?

हादसों का साम्य देखिए कि 2013 वाली इलाहाबाद रेलवे स्टेशन की भगदड़ के बाद भी कुछ लोग अधिकारियों से यही सवाल कर रहे थे।

और इस बार, यानी मौजूदा महाकुंभ की मौनी अमावस्या पर 29 जनवरी को तड़के जो भगदड़ हुई उसके बाद आए कई वीडियो में भी कई महिलाएं पूछती दिखीं कि अब हम कैसे लौटेंगे?

यानी कुंभ चाहे 1954 का हो, 2013 का हो या 2025 का, हर बार वही सवाल उठा और किसी के पास इस कठिन सवाल का कोई जवाब नहीं था। शायद यह कोई सवाल है ही नहीं। बल्कि यह एक महादुख की उद्घोषणा है।     

परदे से उलझती ज़िंदगी

कहने को तो इस कुंभ के दौरान सोशल मीडिया पर वायरल हुई मोनालिसा भोसले को निर्देशक सनोज मिश्रा ने अपनी फ़िल्म ‘द डायरी ऑफ मणिपुर’ के लिए बतौर हीरोइन साइन कर लिया है।(mahakumbh 2025)

वे उससे कुंभ में मिले थे और फिर मध्यप्रदेश में उसके घर माहेश्वर गए। उन्होंने मोनालिसा को प्रयागराज की सनसनी बताते हुए फ़िल्मों में उसका भविष्य बनाने की जिम्मेवारी भी ली है। मगर उनकी फ़िल्म के शीर्षक से बिलकुल नहीं लगता कि उसका कुंभ से कोई संबंध होगा।

अलबत्ता फ़िल्मकार कबीर खान का कुंभ में तस्वीरें और वीडियो बनाते दिखना ज़रूर कुछ उम्मीद बंधाता है। कबीर के मुताबिक यह कोई हिंदू-मुसलमान की बात नहीं है। ये हमारे मुल्क की चीजें हैं।

अगर आप हिंदुस्तानी हैं तो यहां की हर चीज आपकी है, जो आपको महसूस होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि मैं इस महाकुंभ में दूसरी बार आया हूं और हम डायरेक्टर लोग तो हर जगह कहानियां तलाशते रहते हैं।

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संभव है कि उन्हें कोई ऐसी कहानी मिल जाए जो कुंभ के तमाम पहलुओं और उसकी विराटता को समेटने का प्रयास करे।

वैसे यह हैरानी की बात है कि हिंदी फ़िल्मों के इतने लंबे इतिहास में कुंभ से संबंधित कोई फ़िल्म आप बस ढ़ूंढ़ते रह जाएंगे।

ऐसा नहीं है कि किसी को इस बात का ख्याल नहीं आया। हमारे बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्मकार बिमल राय तो बहुत शिद्दत से कुंभ पर फ़िल्म बनाना चाहते थे, मगर नियति उनके आड़े आ गई।

उन्होंने दिलीप कुमार को दो फ़िल्मों के लिए साइन किया था और ‘मधुमती’ के हिट होने से ‘देवदास’ के नुक्सान की भरपायी हो गई थी।(mahakumbh 2025)

तभी उन्होंने पहली बार सिनेमेटोग्राफर कमल बोस से कुंभ पर फिल्म बनाने की इच्छा जताई और उस पर काम करने के निर्देश दिए। बाद में इस मुहिम में उन्होंने अपने असिस्टेंट गुलज़ार को भी शामिल कर लिया।

एक-एक करके ‘सुजाता’, ‘परख’, ‘बंदिनी’ और ‘काबुलीवाला’ बनती रहीं, पर बिमल रॉय कुंभ वाली फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने के लिए गुलज़ार के पीछे पड़े रहे। वे इस फ़िल्म का नाम ‘अमृत कुंभ’ रखना चाहते थे जो कि समरेश बसु के एक उपन्यास पर बननी थी।

समरेश बसु: जीवन के लिए अद्वितीय साहित्यकार(mahakumbh 2025)

समरेश बसु भी कमाल के लेखक थे। एक कारखाने में काम करते हुए वे ट्रेड यूनियन और कम्युनिस्ट विचारधारा के संपर्क में आए थे। 1950 में जब कम्युनिस्टों की धरपकड़ हुई तो वे भी बंद हुए।

जेल में ही उन्होंने काफ़ी कुछ लिख डाला। बाहर आकर उनकी एक कहानी प्रकाशित हुई और उसका कुछ पैसा मिला तो पत्नी ने कहा कि कोई नौकरी करने से अच्छा है कि अब तुम कहानियां लिखने का ही काम करो।

वे रोज़ सुबह लिखने बैठ जाते और दोपहर बाद तक लिखते रहते। यही उनका पूर्णकालिक रोज़गार था। इसीलिए, वे कहा करते थे कि मैं साहित्य के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए लिखता हूं।

वर्ष 1988 में अपने निधन तक वे 200 से ज्यादा कहानियां और 100 से ऊपर उपन्यास लिख चुके थे। यात्रा वृत्तांत आदि इसके अलावा थे।

इनमें बहुत सी सामग्री ‘कालकूट’ और ‘भ्रमर’ के छद्मनाम से लिखी गई। उनके जिस उपन्यास पर बिमल राय स्क्रिप्ट लिखवाने में लगे थे, उस पर भी लेखक का नाम पहले ‘कालकूट’ ही छपा था।

आज़ादी के बाद 1954 में जब पहला कुंभ आया तो उसे कवर करने के लिए आनंद बाज़ार ग्रुप ने समरेश बसु से अनुबंध किया था।

इस ग्रुप की पत्रिका ‘देश’ में, जो कि तब साप्ताहिक थी, समरेश की रिपोर्टें धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुईं जो बाद में ‘अमृता कुंभेर संधाने’ (अमृत कुंभ की खोज) नाम के उपन्यास में तब्दील हो गईं।

बिमल रॉय इसे धारावाहिक रूप में ही पढ़ रहे थे। उनकी रुचि इसमें इतनी बढ़ गई कि किसी एक अंक में किन्हीं कारणों से इसकी किस्त नहीं छपी तो उन्होंने बाकायदा आनंद बाज़ार के दफ़्तर फोन करके पड़ताल की। ‘बंदिनी’ के बाद बिमल राय की तबियत खराब रहने लगी।

बाद में पता चला कि कैंसर है। फिर भी वे न तो सिगरेट छोड़ रहे थे और न समरेश के उपन्यास पर फ़िल्म बनाने की धुन।(mahakumbh 2025)

वे खुद कहते थे कि इसे पढ़ कर लगता है, मानो समरेश के पात्रों के साथ मैं भी अमृत की तलाश में कुंभ पहुंच गया हूं। जब जनवरी 1966 में बिमल रॉय का निधन हुआ, उस समय भी कुंभ चल रहा था।

समरेश बसु की कहानियों से सिनेमा तक

उनके साथ ही इस फ़िल्म का किस्सा भी ख़त्म हो गया। इस फ़िल्म के लिए गुलज़ार और कमल बोस को भेज कर इलाहाबाद के माघ मेले की जो फुटेज बिमल रॉय ने बनवाई थी, वह कहीं दबी पड़ी रही।

काफ़ी समय बाद उनके बेटे जॉय ने फ़िल्मकार यश चोपड़ा की मदद से उसी फुटेज से ग्यारह मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री तैयार की।

जनवरी 2000 में मुंबई के नेहरू सेंटर में बिमल रॉय पर जब एक प्रदर्शनी लगी तो वहां इस डॉक्यूमेंट्री की पहली स्क्रीनिंग हुई।(mahakumbh 2025)

समरेश बसु की कहानियों पर कम से कम दस फिल्में बनी हैं जिनमें गौतम घोष की ‘पार और मृणाल सेन की ‘कलकत्ता 71’ व ‘जेनेसिस’ भी शामिल हैं।

हिंदी में गुलज़ार की बनाई ‘किताब’ तथा ‘नमकीन’ और बासु चटर्जी की ‘शौकीन’ भी उन्हीं की कहानियां थीं। मगर कुंभ वाले उनके उपन्यास पर बिमल रॉय के बाद हिंदी सिनेमा में किसी ने ध्यान नहीं दिया।

आखिरकार बांग्ला फ़िल्मकार दिलीप रॉय ने उस पर फ़िल्म बनाई। उपन्यास वाले यानी ‘अमृता कुंभेर संधाने’ नाम से ही बनी यह फ़िल्म 1982 में रिलीज़ हुई थी जिसमें शुभेंदु चटर्जी, अपर्णा सेन, भानु बंदोपाध्याय, रूमा गुहा ठकुरता और समित भांजा ने काम किया था।

इस फ़िल्म का नायक कुंभ मेला देखने जाता है। किसी धार्मिक भावना से नहीं, बल्कि इतने सारे लोगों को और उनकी आस्था को समझने की गरज से।

मगर इस यात्रा, इस मेले के जादू और वहां की विशाल भीड़ से वह अनेक वास्तविक पात्र, अनगिनत कल्पनाएं और संस्मरण लेकर लौटता है। जाते वक्त उसे ट्रेन में ही कुंभ जाने वाले अनेक लोग मिल जाते हैं।

इनमें ज़्यादातर लोग कोई न कोई कामना लेकर कुंभ जा रहे हैं। एक को लगता है कि उसकी खोई हुई बेटी वहां मिल सकती है।

दूसरे को उम्मीद है कि कुंभ स्नान से उसकी फैक्ट्री का लॉकआउट समाप्त हो जाएगा और उसकी नौकरी फिर शुरू हो जाएगी। एक युवती जो एक 80 वर्षीय व्यक्ति की तीसरी पत्नी है, उसे नहीं पता कि कुंभ उसे क्या दे सकता है।

कुंभ 1954: आस्था, अफरा-तफरी

उसे यह भी नहीं पता कि क्या वह इतने भर से संतोष कर ले कि उन दस हज़ार रुपयों से उसके मायके वालों का खेती का काम फिर शुरू हो गया जो इस शादी के बदले उन्हें मिले थे।

एक और व्यक्ति है जिसे उसकी बहू पाल रही है, जो उसके लिए चोरी तक करती है. वह कहता है कि उसका बेटा जीवित होता तो शायद वह भी उसके लिए इतना नहीं करता।

एक महिला घर छोड़ कर चले गए पति की तलाश में अपने देवर के साथ कुंभ जा रही है। उसे लगता है कि पति ज़रूर साधु बन गया होगा, इसलिए वहां ज़रूर आएगा।(mahakumbh 2025)

और जब कुंभ में अचानक भगदड़ मचती है तो इन लोगों में से कोई उसका शिकार बनता है तो कोई उस विनाश का साक्षी।

ट्रेन में भजन गाए जा रहे थे। जब इलाहाबाद आया तो भजन बंद हो गए और लोग कुंभ के महात्म्य के नारे लगाने लगे। मेले में लाउडस्पीकर पर लगातार सूचनाएं दी जा रही थीं।

खोए हुए लोगों और सामान की भी और यह भी कि टीका लगवाना अनिवार्य है। बहुत से लोग टीके से डर रहे थे। अनेक जगह घुड़सवार पुलिस दिख रही थी। यह सब समरेश ने 1954 के कुंभ की अपनी कवरेज से लिया।

इस मेले में तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत बल्कि खुद प्रधानमंत्री नेहरू भी यह जायजा लेने पहुंचे थे कि सारी व्यवस्थाएं दुरुस्त हैं कि नहीं। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने वहां स्नान ही नहीं किया, बल्कि काफ़ी दिन वहीं रहे।(mahakumbh 2025)

मगर माना जाता है कि राजनीतिकों की उपस्थिति से भी मेले की व्यवस्था भंग हुई थी। उस साल मौनी अमावस्या 3 फ़रवरी को पड़ी। उस दिन भारी भीड़ थी और बारिश होकर हटी थी जो कि फिसलन छोड़ गई थी।

तब सुबह के करीब साढ़े आठ बजे थे। कहीं से पंडित नेहरू के आने की ख़बर उड़ी और लोग उन्हें देखने उमड़ पड़े। तभी एक तरफ़ से तलवार और त्रिशूल लिए नागा साधुओं का बड़ा जत्था चला आ रहा था।

उसे रास्ता देना ज़रूरी था। लोगों को समझ में नहीं आया कि किधर जाएं। इस चक्कर में भगदड़ मच गई और बहुत से लोग गिर गए। वे उठ नहीं सके। भीड़ ने उन्हें उठने भी नहीं दिया।

कुंभ हादसे बदलते साल, वही त्रासदी(mahakumbh 2025)

यह कुंभ का सबसे भीषण हादसा था जिसमें आठ सौ से ऊपर लोग मारे गए और दो हज़ार से ज्यादा घायल हो गए। दावा किया जाता है कि राज्य सरकार इस हादसे की भयावहता को छुपाना चाहती थी, मगर अखबारों ने इसे प्रमुखता से छापा।

इसके बाद नेहरू ने अपील की कि विशेष स्नान वाले दिनों में वीआईपी लोग कुंभ में नहीं जाएं। नेहरू को संसद में भी इस घटना पर जवाब देना पड़ा।

उन्होंने इस कांड की न्यायिक जांच के लिए जस्टिस कमलाकांत वर्मा की अध्यक्षता में जांच आयोग भी गठित किया। कहते हैं कि इस आयोग की सिफ़ारिशें बाद में होने वाले कुंभ और अन्य बड़े मेलों पर लागू की गईं।

अगर यह बात सही है, तो मानना चाहिए कि या तो वे सिफ़ारिशें ठीक से लागू नहीं की गईं या फिर वे पुरानी पड़ गईं, क्योंकि कुंभ और दूसरे बड़े मेलों में भगदड़ जैसे हादसे आज तक होते आ रहे हैं।

पिछले यानी 2013 के कुंभ के समय भी इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर ऐसी ही भगदड़ में 36 लोग मारे गए थे। वह 10 फ़रवरी थी और उस दिन भी मौनी अमावस्या थी।(mahakumbh 2025)

रात आठ बजे के करीब जब यह हादसा हुआ तब स्टेशन का वह प्लेटफॉर्म खचाखच भरा था। चीख-पुकार और बदहवासी जब कुछ थमी तो प्लेटफॉर्म पर दूर तक लाशें बिखरी पड़ी थीं।

‘अमृता कुंभेर संधाने’ फ़िल्म में हादसे के बाद अपने किसी परिजन को खो चुके पात्र पूछते दिखते हैं कि हम उसके बगैर कैसे लौटें?

हादसों का साम्य देखिए कि 2013 वाली इलाहाबाद रेलवे स्टेशन की भगदड़ के बाद भी कुछ लोग अधिकारियों से यही सवाल कर रहे थे।

और इस बार, यानी मौजूदा कुंभ की मौनी अमावस्या पर 29 जनवरी को तड़के जो भगदड़ हुई उसके बाद आए कई वीडियो में भी कई महिलाएं पूछती दिखीं कि अब हम कैसे लौटेंगे?

यानी कुंभ चाहे 1954 का हो, 2013 का हो या 2025 का, हर बार वही सवाल उठा और किसी के पास इस कठिन सवाल का कोई जवाब नहीं था। शायद यह कोई सवाल है ही नहीं। बल्कि यह एक महादुख की उद्घोषणा है।

कुंभ में अमृत नहीं आंसू मिले

इस फ़िल्म में एक व्यक्ति जो अपने रोग से मुक्ति और सौ साल की उम्र मांगने के लिए कुंभ नहाने आया था, वह लोगों के पैरों तले कुचल कर मारा जाता है।(mahakumbh 2025)

कितने ही लोग जो कुंभ में अमृत की खोज में आए थे उन्हें आंसू मिले। फ़िल्म का नायक कहता है कि आंसू कितने नमकीन होते हैं और अगर अमृत का स्वाद इतना कटु है तो वह किसे चाहिए?

इसलिए कबीर खान अगर कहते हैं कि डायरेक्टर लोग तो हर जगह कहानियां तलाशते रहते हैं, तो यह सही है क्योंकि कहानियां सचमुच ऐसे ही मिलती हैं। वे कहीं भी सूझ सकती हैं।

टकरा सकती हैं। चलती, दौड़ती, हंसती हुईं अथवा परेशान, ठिठकती और सिसकती सी। और कई बार तो, एक ही जगह इतनी ज़्यादा कहानियां जमा हो जाती हैं कि भगदड़ मच जाए तो उनकी भीड़ बहुत सी दूसरी कहानियों को रौंदती हुई गुज़र जाती है।(mahakumbh 2025)

सो कुंभ में तरह-तरह की कहानियां मौजूद हैं। जो कुचली गईं या जिन्होंने उन्हें कुचला, या फिर जिन्होंने ऐसा होने दिया या जो असहाय सी कुछ नहीं कर पाईं, या फिर जिन्होंने पूरा प्रयास किया कि जहां तक हो सके कोई कहानी बचा ली जाए, या फिर वे कहानियां जो अपना कोई हिस्सा गंवा कर हमेशा के लिए अधूरी रहने को अभिशप्त हो गईं।

सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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