Thursday

24-04-2025 Vol 19

अमृत कलशधारी धन्वन्तरि

लक्ष्मी पूजन दिवस दीपावली के दो दिन पूर्व कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को आरोग्य, स्वास्थ्य, आयु और तेज के आराध्य देव  भगवान धन्वन्तरि का अवतरण दिवस धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इस दिन इनकी पूजा- अर्चना कर समस्त जगत को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायुष्य प्रदान करने के लिए प्रार्थना की जाती है। मान्‍यता है कि धनवन्‍तरि देव की पूजा अर्चना करनें से औषधियां सिद्ध होती हैं। रोग निदान ज्ञान में निपुणता प्राप्‍त होती है।

10 नवम्बर- धन्वन्तरि जयंती

आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान विष्णु के अवतार धन्वन्तरि का अवतरण इस पृथ्वी लोक में समुद्र मंथन के समय हुआ था। पौराणिक मान्यतानुसार आश्विन मास की शरद पूर्णिमा को चन्द्रमा, कार्तिक कृष्ण द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वन्तरि, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती महालक्ष्मी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिए इन्‍हें महालक्ष्‍मी का बडा भाई माना जाता है। और लक्ष्मी पूजन दिवस दीपावली के दो दिन पूर्व कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को आरोग्य, स्वास्थ्य, आयु और तेज के आराध्य देव  भगवान धन्वन्तरि का अवतरण दिवस धनतेरस के रूप में मनाया जाता है।

इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इस दिन इनकी पूजा- अर्चना कर समस्त जगत को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायुष्य प्रदान करने के लिए प्रार्थना की जाती है। मान्‍यता है कि धनवन्‍तरि देव की पूजा अर्चना करनें से औषधियां सिद्ध होती हैं। रोग निदान ज्ञान में निपुणता प्राप्‍त होती है। चिकित्‍सा कार्य में सफलता प्राप्‍त होती है। चिकित्‍सक के हाथों रोगी आरोग्‍य होते हैं। भगवान धन्वन्तरि के मंत्र, स्तोत्रादि भी प्रचलित हैं। धन्वन्तरि की साधना मंत्र है-

ॐ धन्वन्तरये नमः।।

पौराणिक मान्यताओं में भगवान विष्णु का रूप कहे जाने वाले धन्वन्तरि की चार भुजायें  हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किए हुए हैं। दो अन्य भुजाओं में से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे में अमृत कलश लिए हुए हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिए धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परम्परा है। इन्हें आयुर्वेद की चिकित्सा करने वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में उत्पन्न दिवोदास ने शल्य चिकित्सा का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया था, जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे। दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत ने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले शल्य चिकित्सक थे। आयुर्वेद को शल्‍य चिकित्‍सा का ज्ञान देनें वाले महर्षि सुश्रुत के अनुसार शल्‍य चिकित्‍सा ‍‍विधान का आदि से लेकर अन्‍त तक का ज्ञान होंनें के कारण इनका धनवन्‍तरि नाम कहा गया है। त्रिलोकी के व्योम रूपी समुद्र के मंथन से उत्पन्न विष का महारूद्र भगवान शंकर ने विषपान किया, धन्वन्तरि ने अमृत प्रदान किया।

उल्लेखनीय है कि वर्तमान में प्रचलित सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रह्मा ने पहली बार एक सहस्र अध्याय व एक लाख श्लोक के आयुर्वेद ग्रंथ का प्रकाशन किया था। ब्रह्मा से प्रजापति ने पढ़ा। प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उनसे इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्रदेव से धन्वन्तरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय आदि मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया। इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वारा चरक संहिता का निर्माण किया गया। वेद संहिता तथा ब्राह्मण भाग में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है, लेकिन महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रूप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। उनका प्रादुर्भाव समुद्र मन्थन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रूप में  हुआ।

समुद्र से निकलने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है। इसलिए यह अब सम्भव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम देव, ईश्वर नहीं हो। इसलिए अगले जन्म में तुम्हें सिद्धियाँ प्राप्त होने पर तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुनः जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया और धन्वन्तरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे। वे सभी रोगों के निवारण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया। हरिवंश पुराण पर्व 1 अध्याय 29 के आख्यान के अनुसार धन्वन्तरि की परम्परा इस प्रकार है –

काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वन्तरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।

विष्णुपुराण में यह कतिपय भिन्नता के साथ अंकित है। हरिवंश पुराण 1/29 के अनुसार इनकी वंश परंपरा है-

काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वन्तरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।

धन्वन्तरि के संबंध में प्राप्य विवरणियों के समुचित अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी कुमारों को प्राप्त था, वही पौराणिक काल में धन्वन्तरि को प्राप्त हुआ। अश्विनी के हाथ में मधुकलश था, तो धन्वन्तरि को अमृत कलश मिला, क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं। इसलिए रोगों से रक्षा करने वाले धन्वन्तरि को विष्णु का अंश माना गया। विषविद्या के सम्बन्ध में महाभारत में अंकित कश्यप और तक्षक के मध्य हुई संवाद की भांति ही धन्वन्तरि और नागदेवी मनसा का संवाद ब्रह्मवैवर्त पुराण3/51 में अंकित है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है। आयुर्वेदीय मान्यतानुसार आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से माना जाता है, परंतु आयुर्वेद जगत के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं।

पौराणिक ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया गया है। धन्वन्तरि प्रथम – समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि तथा द्वितीय – धन्व के पुत्र धन्वन्तरि का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी मिलता है। आयुर्वेद के आदि ग्रंथों सुश्रुत्र संहिता, चरक संहिता, कश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में इनका उल्लेख अंकित है। भाव प्रकाश, शार्गधर तथा उनके ही समकालीन अन्य आयुर्वेदीय ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण का प्रसंग निबद्ध करते हुए भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है। महाभारत, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद भागवत पुराणादि ग्रंथों में इनका उल्लेख है। श्रीमदभागवत पुराण के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है तथा अवतारों में अवतार कहा गया है। गरुड़ और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण वे वैद्य कहलाए। विष्णु पुराण में धन्वन्तरि दीर्घतथा (दीर्घतपा) के पुत्र बताए गए हैं, जो जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्वजन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे।

इस प्रकार पौराणिक ग्रंथों में धन्वन्तरि का तीन रूपों में उल्लेख मिलता है। प्रथम समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि द्वितीय धन्व के पुत्र धन्वन्तरि तथा तृतीय काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि। काशी के संस्थापक काश के प्रपौत्र, काशिराज धन्व के पुत्र, धन्वन्तरि महान चिकित्सक थे, जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। महाराज काश के पुत्र धन्व ने समुद्र की तपस्या करके पुत्र रूप में धन्वन्तरि को प्राप्त किया था, जिनकी अमृतमय औषधियों की खोज की कथा ने समस्त विश्व को आज भी आश्चर्यचकित कर रखा है। धन्वन्तरि की अमृत निर्माण कला का ज्ञान भले ही आज विस्मृत हो चुका है, और उनका अमृत सुरक्षित न रह सका, लेकिन स्वर्ण कलश में अमृत निर्माण की उनकी गाथा धन्वन्तरि को अमर कर गई।

धन्वन्तरि के जीवन के साथ अमृत कलश जुड़ा है। मान्यता है कि सोम, औषधि, चंद्र तथा अमृत आदि अंतर्संबंध रखने वाले पदार्थों से अनुसंधान करके धन्वन्तरि ने चौबीस प्रकार के सोम प्रस्तुत किए थे। इन्हीं से अमृत का निर्माण होता था। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वन्तरि ने स्वर्ण के पात्र में ही बताया है। पुराणों में विष्णु के चौबीस अवतारो में परिगणित धन्वन्तरि ने एक सौ एक प्रकार की मृत्युओं का उल्लेख किया है, जिसमें एक काल मृत्यु होती है, जिसे प्रत्येक शरीरधारी को स्वीकार करना पड़ता है। शेष अकालमृत्यु को रोकने का प्रयास ही चिकित्सा है। यही कारण है कि आज भी उनके नाम से ऊं धन्वतरये स्वाहा कहकर एक आहुति दी जाती है और कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को धनतेरस को उनकी जयंती पर पूजा- अर्चना कर प्रार्थना करते हुए अमृत कलशधारी सर्वभय नाशक, सर्वरोग नाशक, त्रिलोक के स्वामी और उनका निर्वहन करने वाले परम भगवान विष्णु स्वरूप सुदर्शन वासुदेव को नमन करने की परिपाटी है।

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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