राहुल गांधी का छकड़ा नरेंद्र मोदी की बग्धी के एकदम बगल में आ कर खड़ा हो गया है। एक प्रतिशत का मत-अंतर आख़िर होता ही कितना है? सो, भी तख़्त-ए-मुनाफ़िक़त के हर मुमकिन प्रपंचों के बाद।….अब बस एकाध बरस में उस का अंतिम पर्व आरंभ हो जाएगा। राजनीतिक मौसम तेज़ी से पहलू बदल रहा है। सो, अपनी आंखें मसलिए और इस बदलती करवट के इशारे समझिए।
इस संसार में कोई भी मानव न तो गुणों की खान है और न कोई अवगुणों की खदान है। इसलिए अगर कोई मुझ से यह कहे कि फ़लां का तो पोर-पोर खूबियों से सराबोर है और फलां का रोम-रोम खामियों से लिथड़ा हुआ है तो मैं इसे कैसे मान लूंगा? देखने की बात यह है कि किसी में भी गुण-अवगुण का अनुपात कैसा है? मगर यह आनुपातिक अध्ययन करते वक़्त एक लमहे को भी यह भूलना ठीक नहीं होगा कि जैसे एक अकेला सब पर भारी पड़ जाता है, वैसे ही कोई-कोई अवगुण ऐसा होता है कि 99 गुणों का नाश कर दे और कोई-कोई गुण ऐसा होता है कि 99 अवगुणों को तिरोहित कर दे। ऐसे में व्यक्ति के गुण-अवगुण का प्रभावी अनुपात पूरी तरह बदल जाता है।
पिछले दस साल में भारत के सियासी संसार में हम ने इस परिदृष्य को रोज़-ब-रोज़ देखा है। सारे भारतवासी अपने-अपने नज़रिए से दो व्यक्तियों के व्यक्तित्वों आ आकलन कर रहे हैं। एक हैं पूरे एक दशक से सत्तासीन नरेंद्र भाई मोदी और दूसरे हैं अब तक सड़कासीन रहने के बाद, अभी-अभी लोकसभा के नेता-प्रतिपक्ष बने, राहुल गांधी। बावजूद इस के कि दो-एक साल पहले तक राहुल को नरेंद्र भाई के मुकाबले पिद्दी का शोरबा भी नहीं माना जा रहा था, दस बरस से देश की राजनीति घूम तो इन्हीं दो बिंदुओं के इर्दगिर्द रही थी – नरेंद्र भाई और राहुल। सो, संघ-कुनबे द्वारा राहुल के पप्पूकरण के लिए रची गई तमाम साज़िशों से अंततः हुआ यह कि जनमानस के अवचेतन में राहुल वैकल्पिक नेतृत्व की तरह जमने लगे। किया तो यह गया था नरेंद्र भाई की तुलना में राहुल की खिल्ली उड़ाने के मक़सद से, लेकिन इस ने नरेंद्र भाई के सम्मुख राहुल की नैसर्गिक उपस्थिति के हर्फ़ लोगों के दिल पर उकेर दिए।
आज हम फिर इस बात के लिए राहुल का मखौल उड़ा सकते हैं कि लगातार तीसरी बार भी कांग्रेस को सौ के आंकड़े तक न पहुंचा पाने के बाद भी वे प्रसन्नता से क्यों झूम रहे हैं? मगर इस से नरेंद्र भाई के सामने मुंह बाए खड़े ये सवाल कैसे दफ़न हो जाएंगे कि उन की दनदन शैली अगर इतनी ही लोकप्रिय थी तो तमाम कपटी उपक्रमों के बावजूद वे 370 सीटों के अपने लक्ष्य को हासिल क्यों नहीं कर पाए? 303 सांसदों की पुरानी गिनती कायम क्यों नहीं रख पाए? मायावी शस्त्रों के अधिकतम इस्तेमाल के बाद भी भारतीय जनता पार्टी की 63 सीटें धम्म से कैसे कम हो गईं? 2024 के आम चुनाव में सिर्फ़ कांग्रेस को मिली सीटों का ज़िक्र कर के नरेंद्र भाई की छवि को फिर अंतिरंजित महाकाय पुतले का आकार देना काइयांपन है। तराजू के एक पलड़े पर अगर नरेंद्र भाई को बिठाना है तो दूसरे पर, सिर्फ़ कांग्रेस को नहीं, सकल-विपक्ष को बिठाना होगा। ज़्यादा-से-ज़्यादा यह हो सकता है कि भाजपा के सहयोगी दल भी नरेंद्र भाई के साथ उन के पलड़े पर बैठ जाएं।
इस तरह देखें तो यह साफ है कि भाजपा के 240 लोकसभा सदस्य हैं तो सकल-विपक्ष के 237। यानी सत्तारूढ़ दल से सिर्फ़ 3 कम। सहयोगी दलों समेत नरेंद्र भाई के पास अगर 293 सांसद हैं तो विपक्षी तंबू में कुल 249 सांसद हैं। यानी अंतर महज़ 43 सदस्यों का है। उन 12 को गिनना मत भूलिए, जो भले ही इंडिया-समूह का औपचारिक हिस्सा नहीं हैं, मगर नरेंद्र भाई के विरुद्ध असहमति में अपने हाथ उठाए हुए हैं। इन में से वायएसआर कांग्रेस तो संसद के अभी-अभी हुए सत्र में सरकार से अपना विरोध खुल कर ज़ाहिर भी कर चुकी है।
इस चुनाव में भाजपा को 23 करोड़ 59 लाख 73 हज़ार 935 वोट मिले हैं। कांग्रेस को मिले हैं 13 करोड़ 67 लाख 59 हज़ार 64 वोट। यानी भाजपा और कांग्रेस के बीच 9 करोड़ 92 लाख 14 हज़ार 871 वोट का फ़र्क है। लेकिन असली तथ्य यह है कि इंडिया-समूह के राजनीतिक दलों को 26 करोड़ 57 लाख 17 हज़ार 18 वोट मिले हैं। मतलब भाजपा से 2 करोड़ 97 लाख 43 हज़ार 83 वोट ज़्यादा। आप कहेंगे कि तुलना तो इंडिया-समूह और एनडीए के मतों की होनी चाहिए। तो जान लीजिए कि नरेंद्र भाई की समूची एनडीए को इंडिया समूह से महज़ 99 लाख 67 हज़ार 396 वोट ही ज़्यादा मिले हैं। भाजपा और उस के तमाम सहयोगी दलों को मिला कर इस चुनाव में सिर्फ़ 27 करोड़ 56 लाख 54 हज़ार 414 वोट मिले हैं। जिस तरह कांग्रेस को 100 में से 99 नहीं, 543 में से 99 सीटें मिली हैं, उसी तरह नरेंद्र भाई को अपने सारे हमजोलियों के साथ 64 करोड़ 53 लाख 63 हज़ार 445 के कुल मतदान में से यह हिस्सा हासिल हुआ है। यानी आधे से काफी कम – सिर्फ़ 42 प्रतिशत। इंडिया समूह और एनडीए के बीच एक प्रतिशत के आसपास मतों का ही अंतर है।
जिन्हें नहीं समझना, न समझें, मगर नरेंद्र भाई के साथ विजया बूटी की तरंग में बैठे सियासी महामंडलेश्वरों के लिए यह फ़िक्र का सबब होना चाहिए कि राहुल गांधी का छकड़ा उन की बग्धी के एकदम बगल में आ कर खड़ा हो गया है। एक प्रतिशत का मत-अंतर आख़िर होता ही कितना है? सो, भी तख़्त-ए-मुनाफ़िक़त के हर मुमकिन प्रपंचों के बाद। इसलिए मैं तो ज़िल्ल-ए-सुब्हानी के लिए दुआ करूंगा कि रामलला और जगन्नाथ जी दोनों मिल कर उन्हें यह सन्मति दें कि वे 2024 की अपनी इस रुसवाई को ज़ुमलों की बारिश से धोने का उपक्रम करने के बजाय इस जनादेश का असली मर्म समझ सकें। यक़ीन मानिए, अगर नरेंद्र भाई को अपना मुस्तकबिल महफ़ूज़ रखना है तो उन्हें जल्दी-से-जल्दी ज़रूरी दस्तूरों के दस्तरख़्वान पर आ कर बैठना होगा। मगर मैं आश्वस्त हूं कि ऐसा वे कतई नहीं करेंगे और इसी में सकल-विपक्ष के लिए आस के बीज छिपे हैं।
नरेंद्र भाई मेहनती हैं तो राहुल गांधी भी कम परिश्रमी नहीं हैं। नरेंद्र भाई में अथाह ऊर्जा है तो राहुल की ऊर्जा की थाह पाना भी आसान नहीं है। नरेंद्र भाई धुनी हैं तो राहुल का जज़्बा भी कोई कम गहरा नहीं है। तो बहुत-से तक़रीबन एक सरीखे गुण होते हुए भी दोनों में फ़र्क़ क्या है? वह कौन-सा एक अवगुण है, जिसने नरेंद्र भाई के बहुत-से गुणों का नाश कर डाला? वह कौन-सा एक गुण है, जिस ने राहुल की कुछ खामियों को गंगा में बहा दिया? नरेंद्र भाई की कमज़ोरी है उन का अहंकार, उन की ऐंठ, उन का एकलखुरापन और उन का प्रतिशोध-भाव। राहुल की मज़बूती है उन का विनत-भाव, उन की सरलता, उन की समावेशिता और उन की फ़राख़दिली। इसीलिए दस बरस के प्रधानमंत्रित्व के बाद भी नरेंद्र भाई आकुल-व्याकुल दीखते हैं और दस साल से धूल खा रहे राहुल दैदीप्यमान दीखने लगे हैं। व्यक्तित्व की नकारात्मकता-सकारात्मकता के इसी समीकरण ने नरेंद्र भाई के चेहरे की दमक धूमिल कर दी है।
नरेंद्र भाई के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने को निरंतरता का पैबंदी चोला पहनाने की कोशिश कर रहे उन के ढोलकिए इस तथ्य से ख़ुद भी आंखें मूंद रहे हैं और चाहते हैं कि आप-हम भी उनींदे हो जाएं कि भारत की मौजूदा सियासी महाभारत अपने मौसुल पर्व से निकल कर महाप्रस्थानिक पर्व में प्रवेश कर चुकी है। अब बस एकाध बरस में उस का अंतिम पर्व आरंभ हो जाएगा। राजनीतिक मौसम तेज़ी से पहलू बदल रहा है। सो, अपनी आंखें मसलिए और इस बदलती करवट के इशारे समझिए।