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24-04-2025 Vol 19

संघ और भाजपा का मिलाजुला खेल है!

यह हॉलीवुड फिल्मों वाला ‘गुड कॉप, बैड कॉप’ वाला खेल लगता है। जिस में किसी का दोहन करने के लिए एक पुलिस वाला उस पर आँखें तरेरता है; तो दूसरा उसे पुचकार कर माल-ठिकाना पूछता है! दोनों का उद्देश्य एक रहता है, तरीके जुदा होते हैं।वही खेल बरसों, बल्कि दशकों से संघ-भाजपा के नेता आम हिन्दू समर्थकों और अपने भी कार्यकर्ताओं के साथ खेल रहे हैं। एक ओर, दलीय स्वार्थ के हर हथकंडे में खुले-छिपे शामिल रहते हैं। दूसरी ओर इसे ‘विवशता’ या ‘तात्कालिक जरूरत’ बताकर समर्थकों को भरमाते हैं।

कुछ बड़े संघ नेताओं द्वारा इशारों में भाजपा नेताओं पर तंज कसना विचित्र लगता है। विपक्ष के प्रति सम्मान दिखाना और बनावटी। क्योंकि विपक्ष ही नहीं, विपक्ष समर्थकों पर भी लांछन और प्रहार ही बरसों से नियमित चल रहा था।

फिर, भाजपा नेताओं ने अहंकार, स्वार्थपरता, बदजुबानी, भ्रष्टाचार को प्रश्रय, और मंदिर-धर्म से भी दलीय फायदे उठाने के उपक्रम केवल हाल में नहीं किए। यह सब लंबे अरसे से चल रहे थे। जिसे संघ के नेता चुप देखते रहे। जब एक बड़े कांग्रेस नेता को ‘इटली की भैंस’, दूसरे को ‘पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड’, एक पूरे के पूरे राज्य के लोगों के ‘डीएनए में खराबी’, और अपना नाम लेकर शेखी बघारने जैसे काम निरंतर हो रहे थे।

अभी भी वैसा ही चलता रहता यदि भाजपा को ‘चार सौ पार’ मिल जाता। बल्कि, तब उन्हीं कामों को‌ होशियारी बताया जाता। यानी घटिया बयान, घमंड, और बड़े बड़े झूठ से यदि चुनावी लाभ मिल जाए, तो सब ठीक है! फिर तो ‘जनता ही ऐसी है’, ‘राजनीति धंधा ही ऐसा है’, जैसे कुतर्कों से अपने असहज लोगों को संतुष्ट किया जाता।

यह कोई कल्पना नहीं। विगत पच्चीस सालों में ही भाजपा नेताओं की एक से एक विचित्र अनुचित करनी पर संघ के लोग वैसी ही दलीलें देते रहे हैं। ऊपर से, शुभचिंतक आलोचकों पर ही झूठे लांछन लगाते रहे हैं। कुछ ऐसे कि अलाँ तो ‘सीआईए/मिशनरी/आइसिस एजेंट’ है, फलाँ ‘कांग्रेस का दलाल’ है, ‘वह पुराना कम्युनिस्ट’ है, या ‘उपेक्षा से क्षुब्ध है’, आदि। अर्थात् मिथ्यारोपण और दंभ प्रदर्शन स्वयं संघ के बिचले नेता करते रहे हैं। जिस में झूठी बातों से अपने भोले कार्यकर्ताओं को बरगलाना भी शामिल हैं।

तीसरे, विगत साल भर में ही खुद संघ नेताओं के ऐसे कई बयान और घोषणाएं आती रहीं जो दिखाती थीं कि सही-गलत, उचित-अनुचित किनारे कर वे भाजपा के हर काम, विशेषकर मुस्लिम-नीति और जाति-द्वेष नीति को सही ठहराने में लगे थे। यह घोर तुष्टिकरण, अपने ही शब्दों में ‘तृप्तिकरण’, और मंडलवादियों को पीछे छोड़ने की चाह थी। सो, भाजपा नेताओं की सब से समाज घातक नीतियों का खुद संघ के नेता बार-बार समर्थन करते दिखे। भाजपा की कुनीतियों पर चुप रहना भी दूर रहा!

तब अभी उन्हें खुदाई इलहाम मिला, या देवताओं से आकाशवाणी हुई – यह मानना भूल है। वस्तुत: यह हॉलीवुड फिल्मों वाला ‘गुड कॉप, बैड कॉप’ वाला खेल लगता है। जिस में किसी का दोहन करने के लिए एक पुलिस वाला उस पर आँखें तरेरता है; तो दूसरा उसे पुचकार कर माल-ठिकाना पूछता है! दोनों का उद्देश्य एक रहता है, तरीके जुदा होते हैं।

वही खेल बरसों, बल्कि दशकों से संघ-भाजपा के नेता आम हिन्दू समर्थकों और अपने भी कार्यकर्ताओं के साथ खेल रहे हैं। एक ओर, दलीय स्वार्थ के हर हथकंडे में खुले-छिपे शामिल रहते हैं। दूसरी ओर इसे ‘विवशता’ या ‘तात्कालिक जरूरत’ बताकर समर्थकों को भरमाते हैं। जब कोई मामला बिलकुल बेपर्दा हो जाए, या कोई नेता एकदम फँस या पिट जाए, जैसे बंगारू या गोविन्द, तो संबंधित नेता को व्यक्तिगत दोषी बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। मानो, बाकी सब दूध के धुले हैं।

इस बीच, मध्यवर्ती स्तर पर धूर्त, हीन की प्रोन्नति होती रहती है। नोट करने लायक कि संघ में भी जानकार और चरित्रवान स्वयंसेवकों की प्रोन्नति कम ही होती है। ऐसे की भी, जो दो-तीन पीढ़ियों से स्वयंसेवक है। शायद वैसे लोग हर काम पर मुहर लगाने, हिस्सा बँटाने, या अनदेखी करने में संकोच करें? सो, बड़बोला, धंधेबाज स्वयंसेवक भी ऊपर चढ़ता नजर आता है। जबकि सज्जन, निष्ठावान स्वयंसेवक आयोजन पर आयोजन करता, इस उस का सत्कार करता अपनी ही जगह जिंदगी बिता देता है। वह संघ नेतृत्व में बड़ी जिम्मेदारी के उपयुक्त नहीं माना जाता। क्योंकि वह ऊपरी नेताओं की विचित्र बातों पर प्रश्न पूछ सकता है। एक पुराने संघ-मित्र के शब्दों में संघ में यह प्रवृत्ति ‘निगेटिव सेलेक्शन’ है। यानी, क्षुद्र चरित्र की उन्नति। अच्छे चरित्र की यथास्थिति या अवनति।

उदाहरण के लिए, राम को ‘ईमाम’ बताने वाले संघ नेता की ही योग्यता और इतिहास खँगाल लीजिए। वह पट्ठा लिखी हुई चार लाइन भी कैमरे तक पर पढ़ने में गड़बड़ाता है, मानो अपना ही बयान न समझ पा रहा हो! इस्लाम और मुसलमानों के बारे में  एक से एक अनावश्यक, मिथ्या बयान देता रहा है। हानिकर काम करता रहा है। वैसे बयान और काम थोड़ा भी विचारशील स्वयंसेवक नहीं कर सकता। तब ऐसे व्यक्ति की बेहिसाब तरक्की कैसे हुई? उसे बेशुमार संसाधन और उच्च पद किस ने दिये? किस लिए? इस के उत्तर में ‘निगेटिव सेलेक्शन’ का रहस्य खुल सकता है।

अतः सरसरी आकलन भी दिखाता है कि संघ और भाजपा के बीच ‘तनाव’ की बातें बढ़ाई-चढ़ाई या मिली-भगत है। इस संबंध में बताई जा रही सभी बातें अनुमानित या प्रायोजित लगती हैं। पर देश की सामाजिक शिक्षा और बौद्धिकता के क्रमशः पेंदे में चले जाने से यह खेल सदाबहार चल रहा है।

सो, यह तथाकथित तनाव मीडिया और समर्थकों का पेट भरने की चीज है। इस का उद्देश्य संघ के प्रभावी नेताओं द्वारा अपने को बेदाग बताना भी है। साथ ही, संघ में भी सरल-सज्जन कार्यकर्ताओं के असंतोष को भटकाने, दबाने की तरकीब भी हो सकती है। जाने या अनजाने। ताकि नेतृत्व परिवर्तन की चाह न उठे। ध्यान भटकाने की तकनीक।

आखिर, यह दुनिया का सामान्य चलन है कि जिस नेतृत्व काल में गलतियाँ हुई, हानि हुई, चुनाव में हानि भी – उस नेतृत्व को बदला जाता है। यूरोप में तो नेता स्वत: पद छोड़ देते हैं। बिना माँग उठे ही। यह नैतिक और स्वाभाविक है। संगठन और पार्टी के स्वास्थ्य के लिए भी, ताकि नई बुद्धि और ऊर्जा को स्थान मिलता रहे। यह लोकतांत्रिक ही नहीं, राजतंत्रीय या कुलीनतंत्रीय व्यवस्थाओं में भी होता है। मुख्य कार्यकारियों, सलाहकारों की छुट्टी करना। ताकि सही नीति का प्रयत्न नये हाथों से हो। यह सार्वभौमिक रूप से सही चलन है। पर यहाँ हिन्दुओं में आम तौर पर, और संघ-भाजपा में खास तौर पर यह ठुकराने की प्रवृत्ति रही है। जो संगठन, पार्टी, और देश के लिए भी हानिकर रही है। फिर भी, नेताओं का स्वार्थ सदैव इस की अनदेखी करता रहा है।

पर यह सर्वविदित है कि संघ के कुछ नेताओं की ऊट-पटाँग बयानबाजियों, और ‘मुस्लिम मंच’ के जैसे अनगिनत कारनामों से संघ के असंख्य कार्यकर्ता और समर्थक क्षुब्ध हैं। विशेषकर, हिन्दू धर्म को इस्लाम की सेवा में लगाने, भगवान राम को भी इस्लामी कर्मचारी ‘ईमाम’ की पदवी देकर गिराने, संदिग्ध इस्लामी संगठनों, नेताओं की लल्लो-चप्पो करने, जाति मुद्दे पर ब्राह्मणों की अनुचित बदनामी करने, और हर बात में भाजपा नेताओं का पिछलग्गू बनने पर संघ के संयत, सज्जन स्वयंसेवक भी सिर धुनते रहे हैं। कुछ बिचले और स्थानीय संघ नेताओं का जगह-जगह भाजपा सत्तासीनों से मिल कर अपना धंधा-पानी चलाना तो एक अलग अध्याय है। जैसा, संघ के समर्थक एक बुजुर्ग विद्वान भी कहते हैं कि: ”सब फिक्स है। जिसे जो बनना है बन जाए, योग्यता या चरित्र से कोई मतलब नहीं।”

अतः समय-समय पर ‘तनाव’ की बातें संघ और भाजपा को अलग-अलग दिखाने की पुरानी चाल भर लगती है। मूलतः दोनों एक ही दल हैं। केवल जरूरत के लिए उजली और काली दो पोशाकों में रहते हैं। ताकि एक पर छींटा पड़े तो दूसरा अपने को बेदाग बताए। काम चलता रहे। फिर, समय का सहारा लेकर दूसरे को भी बेदाग दिखाने का उपाय कर सके। देश के बौद्धिक क्षय की आम स्थिति में यह सफल होता रहा है, और आगे भी यही संभावना है।

शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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