nayaindia Lok Sabha election 2024 2004 और 2024: सात समानताएं
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2004 और 2024: सात समानताएं

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कांग्रेस नेता का मजाक उड़ाना तब भी था कि जब तक सोनिया नेता है, भाजपा की मौज हैक्योंकि वह बेचारी विकल्प दे ही कैसे सकती है! जिसे अपना भाषण भी कागज से पढ़ना पड़ता है, अशिक्षित है, आदि। वही आज कि राहुल तो बुद्धिहीन, कुछ भी बोलता है, आदि।समानताओं और‌ विसंगतियों के बावजूद एक एक्स-फैक्टर होता है जो अंतिम परिणाम को अप्रत्याशित बना सकता है। जिस पर न पक्ष, न विपक्ष का जोर चलता है। ऐसा पहले भी हुआ है। इस बार देखना अभी शेष है। किन्तु वह चुनाव के परिणाम को ही बदलता है, समाज के सत्य को नहीं।

1- भाजपा का अतिउत्साह। 2004 में दावा था कि ‘कोई चुनौती ही नहीं है!’ यानी, भाजपा के सामने कोई लड़ने लायक ही नहीं। सो, चूँकि भारत चमक रहा, ‘इंडिया शाइनिंग’ है तो लोग वैसे भी भाजपा को सत्ता देंगे। वही अभी, कि भारत तो ‘विश्वगुरू’ बन रहा, और कांग्रेस संसद की ‘दर्शक दीर्घा में’ चली जाएगी। यह अतिउत्साह के साथ अनावश्यक अहंकार का प्रदर्शन भी है। अशोभनीय भी।

2- कांग्रेस नेता का मजाक उड़ाना तब भी था कि ‘जब तक सोनिया नेता है, भाजपा की मौज है’ क्योंकि वह बेचारी विकल्प दे ही कैसे सकती है! जिसे अपना भाषण भी कागज से पढ़ना पड़ता है, अशिक्षित है, आदि। वही आज कि राहुल तो बुद्धिहीन, कुछ भी बोलता है, आदि।

3- भाजपा को रेलवे प्लेटफॉर्म बना देना। जहाँ कोई भी आ सकता है। इस बार वह ‘वाशिंग मशीन’ बन गई है, जिस में हर भ्रष्ट, पापी, धुल कर पवित्र हो जा रहा है। उस पर चलते मामले ठंढे या खत्म हो जाते हैं। हर किसी को अपने दल‌ में ले आने की ऐसी भूख, जब ‘गठबंधन लाचारी’ का बहाना भी नहीं। उल्टे, भाजपा नेतृत्व ने अपने सब से पुराने और सहविचारी सहयोगी शिव सेना को तहस-नहस किया। जो हिन्दू हित और सामान्य नैतिक चरित्र – दोनों दृष्टि से अनुचित था। अनावश्यक तो था ही।

यानी, भाजपा नेतृत्व ने हर मनमानी की छूट ले रखी है। पार्टी में भी कोई हाथ पकड़ने वाला नहीं। तब भी यदि जैसे-तैसे लोगों से भाजपा को भर लिया, उन्हें उम्मीदवार बनाया – जब कि अपने अरुण शौरी और सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे इक्के-दुक्के विशिष्ट योद्धाओं को टरका कर फेंक दिया – तो ऐसे नेतृत्व के लिए क्या उत्साह, जिसे अपने इने-गिने सुयोग्य जानकारों के लिए कोई काम, स्थान नहीं सूझता! जबकि शिक्षा, संस्कृति, या विदेश-संबंध मामलों में तो ठीक ऐसे व्यक्ति उपयुक्त हैं। इसे सब समझते हैं, जिस में भाजपा नेतृत्व ही नासमझ साबित हुआ। वह भी जब शौरी जैसे व्यक्ति सर्वोच्च नेताओं के लिए चुनौती भी नहीं थे, न हो सकते थे। वैसे अपवाद गणमान्य को भी पार्टी से धकिया देना किसी सूरत में मास्टरस्ट्रोक नहीं लगता।

यदि यह कुछ है, तो डफरस्ट्रोक! जिस से राजा की असल पोशाक झलक जाती है। फिर, वैसे विद्वानों की अवनति से वे भी मायूस हुए जो लिख-बोलकर हिन्दू हितों की लड़ाई लड़ते रहे हैं, और किसी न किसी रूप में भाजपा के मददगार रहे। शौरी, स्वामी को धकियाने से वे भी आहत हुए। पर भाजपा नेतृत्व अपने आईटी-सेल‌ प्रोपेगंडा पर अधिक भरोसा करता है जो मूढ़ता का संकेत है। निश्चित छोड़ अनिश्चित को प्रश्रय।

4- मध्यवर्गीय समर्थकों में उत्साहहीनता। उस बार भी हिन्दू हित पर नीतिगत चुप्पी, और मुस्लिम तुष्टिकरण पर उत्साह (‘दो करोड़ उर्दू शिक्षकों की बहाली’) से सचेत हिन्दुओं का एक वर्ग दु:खी हुआ था। इस बार भी हिन्दुओं को मंदिर मूर्ति टूरिज्म, दिखावों-तमाशों के झुनझुने से बहलाना, जबकि गैर-हिन्दुओं को ठोस नीतिगत उपहार देना, अपने ही शब्दों में ‘तृप्तिकरण’ करना बारं-बार दिखा। उस पर संघ-भाजपा नेताओं का गर्व भी। केवल चुनाव के समय वे यकायक मुस्लिम-विरोधी लफ्फाजी पर उतर गए। यह सचेत हिन्दुओं पर दोहरी चोट है, उन्हें मूर्ख समझना कि जब चाहें खींच लेंगे।

5-  विकल्पहीनता का ‘टीना’ प्रचार तब भी था, विशेषकर समर्थकों के बीच। कि जो है भाजपा ही है, वरना और आप का (हिन्दुओं का) है कौन!? यह एक ब्लैकमेलिंग हो जाती है, कि भाजपा नेता कुछ भी करते रहें, आप को उन के साथ रहना है। पर ऐसी दलील कुछ लोगों को चिढ़ा देती है, चाहे वे कितने भी लघुसंख्यक हों। फिर वैसी दलील अपनी विचारहीनता और चरित्रहीनता भी स्वीकारती है! कि हाँ, हमारे पास तुम्हारे लिए कोई नीतिगत उपलब्धि नहीं। बस ये डरौना है कि दूसरे आ गये तो भूत की तरह चढ़ जाएंगे। ऐसी बचकानी हौआ-दलील वयस्क को कायल नहीं करती।

वह देखता है कि उसे दो-तरफा दबाया जा रहा है। पुराने सेक्यूलरवादी तो हिन्दू हितों की बलि चढ़ाते ही रहे। और जो भाजपा स्यूडो-सेक्यूलरिज्म की निन्दा कर के ही बढ़ी थी – यह भी ‘तृप्तिकरण’, अल्पसंख्यक आवंटन बेतरह बढ़ाते, ‘अब्बासी’ मुद्रा, चादर चढ़ाने, मस्जिदें बनवाने, विशेष कोचिंग खोलने, ‘हमारे समय नौकरियों में अधिक अल्पसंख्यक’ पर ही इतरा रही है। तो, जब दो-तरफा मरना ही है, तो हिन्दू ऊपर से ब्लैकमेल क्यों हो? तब तो ब्लैकमेलर को शह मिलेगी, कि ‘तुझे तो मुझे समर्थन देना ही है, वरना…’। ऐसी हौआ-बाजी सब को मंजूर न होगी। यह 2004 में भी हुआ था। ‘टीना’ दलील ने उदासीन हिन्दू को मतदान केंद्र तक नहीं पहुँचाया। जैसा तब नोट किया था: सचेत हिन्दू भाजपा को हराना नहीं चाहता था, पर उसे जिताने का उत्साह उस में नहीं रह गया था।

6- पुराने संघियों में मायूसी, कि जिन के विरुद्ध दशकों या बरसों प्रचार किया, आज उसी के पक्ष में काम करने के लिए विवश किये जा रहे। भारी संख्या में दलबदलुओं को भाजपा का टिकट मिलना, जिन के लिए संघ के लोग सहज उत्साहित नहीं हो सकते। केवल‌ लोभ या बरगलाने से सब को उत्साहित करना असंभव‌ है। अतिरिक्त गड़बड़ यह भी हुई है कि हालिया वर्षों में संघ के नेता भाजपा के पिछलग्गू होते दिखे हैं। उन के अनेक बयान और काम संघ के स्थापित विचारों के विरुद्ध हैं। इस से खासी संख्या में संघ कार्यकर्ता भी भ्रमित हैं।

7- बीस वर्ष पहले भी, उदासीन कार्यकर्ताओं में पुनः जान भरने का उपाय गँवाया गया था। वह उपाय था: नेतृत्व-परिवर्तन की घोषणा के साथ चुनाव में जाना। बदलाव की चाह बहुतों में थी, जो ‘मुखौटे’ के बदले ‘लौह-पुरुष’ को कमान देने के हामी थे। आज के भाजपा नं. दो भी उतने ही मजबूत रहे हैं जैसे तब अडवाणी थे। बल्कि तब भाजपा अध्यक्ष ने एक बार सार्वजनिक कह भी दिया कि अब के अडवाणी होंगे। पर वाजपेई रंज हो गये, अध्यक्ष की भद पिटी। तय हो गया कि बढ़ती असमर्थता के बावजूद वाजपेई ही नेतृत्व करेंगे। सो समर्थकों को उत्साहित करने का मौका चला गया। नेतृत्व-परिवर्तन न केवल समर्थकों को उत्साहित, बल्कि विरोधियों को कमजोर भी करता है। उन से विरोध-प्रचार का बहुत सा मसाला छिन जाता है, जो अब तक नेतृत्व के विरुद्ध जमा हुआ था।

वैसे भी, अपनी ही बनाई आयु-सीमा अपने पर लागू न‌ करना सारा रंग उतार देता है! यह फूहड़ दलील है कि फलाँ के बिना देश या पार्टी नहीं चल सकती। बल्कि यह डरावनी दलील हो जाती है कि तब तो खुदा खैर करे! चौथेपन वाला ही क्यों, कोई झक जवान भी यदि अकेला सहारा हो, तो वैसा देश/दल कितने दिन खैर मनाएगा?

9-फिर, अनेक नई विसंगतियाँ जो 2004  में नहीं थी। तब भाजपा में दर्जन भर बड़े नेता बराबरी और आत्मविश्वास से काम करते और बोलते थे। केवल एक की सनसनी नहीं की गई थी, जिस के सामने सब ‘चपरासी बना दिए’ (एक भाजपा नेता के शब्द) जाएं।

दूसरे, बरसों एकछत्र सत्ता के बाद भी देश को बलवान बताने के बजाए डराना। ताकि वे डरकर भाजपा शरण रहें। यह तो किसी सत्तारूढ़ दल का अपना ही दुर्बल रिपोर्ट-कार्ड है! अपने अच्छे काम दिखाने और आगे के ठोस प्रस्ताव देने के बजाए विपक्षियों को राक्षस बताना, और अपनी उपलब्धियाँ 23 बरस बाद दिखाने की बात भी अटपटी लगती है। तीसरे, जिस कांग्रेस को संसद में सीट-विहीन हो जाने का दावा किया, फिर तुरत उसी की संभावित सत्ता से भयानक परिणाम दिखा रहे। दोनों दावों में एक जरूर गलत है।

10- चौथे, विपक्षियों को तोड़ने के लिए एजेंसियों के दुरुपयोग की बातें अब जनता में पहुँच चुकी हैं। यह भाजपा पर दोतरफा धब्बा है। यदि दुरुपयोग का आरोप सच है तो अनुचित करनी का धब्बा। पर झूठ है तो नेतृत्व पर धब्बा, कि वे सब कुछ हाथ में रहते कैसे निकम्मे कि झूठी बात जन-जन तक पहुँच जाए! वह भी, तरह-तरह की संचार एजेंसियों पर एकाधिकार और साथ में आई.टी. सेल की साधन-संपन्न सेना रख कर।

बहरहाल, उक्त समानताओं और‌ विसंगतियों के बावजूद एक एक्स-फैक्टर होता है जो अंतिम परिणाम को अप्रत्याशित बना सकता है। जिस पर न पक्ष, न विपक्ष का जोर चलता है। ऐसा पहले भी हुआ है। इस बार देखना अभी शेष है। किन्तु वह चुनाव के परिणाम को ही बदलता है, समाज के सत्य को नहीं।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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