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25-04-2025 Vol 19

कुंभ का बहुत धार्मिक महत्व

Kumbh Mela 2025: ऐतिहासिक विवरणियों के अनुसार भारत में कुम्भ मेले की जड़ें सहस्त्राब्दियों वर्ष पुरानी हैं, जिसका प्रारंभिक उल्लेख वैदिक, पौराणिक ग्रंथों तथा चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईस्वी में भारत के शासक रहे मौर्य और गुप्त काल के दौरान मिलता है। तीर्थराज प्रयाग पवित्र स्थलों में सबसे ऊपर माना जाता है। पवित्रता के प्रतीक के रूप में मान्यता प्राप्त गंगा नदी को पुण्यदायिनी कहा जाता है। पुण्य व धार्मिकता की दाता गंगा भक्ति की प्रतीकात्मक यमुना नदी से मिलती है, जिनसे अदृश्य स्वरूपिनी ज्ञान की प्रतीक सरस्वती मिलती है।

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भारत में पवित्र नदियों के किनारे अवस्थित चार स्थानों – हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज में कुम्भ (कुंभ) मेला का पवित्र आयोजन सदियों से होता रहा है।

खगोलीय गणनानुसार यह मेला मकर संक्रान्ति के दिन प्रारंभ होता है, जब सूर्य और चंद्रमा वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं।

यह समय आंतरिक रूप से आध्यात्मिक स्वच्छता और आत्मज्ञान के लिए शुभ अवधि का संकेत माना जाता है।

हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज में से प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक 12 वें वर्ष तथा प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्द्धकुम्भ का आयोजन भी होता है।

भारतीय संस्कृति में प्रयागराज में अवस्थित गंगा, यमुना और पौराणिक गुप्त सरस्वती के संगम स्थल को अत्यंत पवित्र, धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व का प्रतीक माना जाता रहा है।

कुम्भ मेले के अवसर पर इस संगम स्थल में आयोजित होने वाले कुम्भ पर्व में करोड़ों श्रद्धालु एकत्र होते हैं और नदी में स्नान करते हैं, धार्मिक आयोजनों व आध्यात्मिक प्रवचनों में भाग लेते हैं।

वर्ष 2013 का कुम्भ प्रयाग में हुआ था। फिर 2019 में प्रयाग में अर्द्धकुम्भ मेले का आयोजन हुआ था। अब 13 जनवरी से 26 फरवरी 2025 तक प्रयाग में महाकुम्भ का आयोजन होगा। इसके लिए प्रशासनिक स्तर पर व्यापक तैयारी की गई है।

कुम्भ मेले की जड़ें सहस्त्राब्दियों वर्ष पुरानी

ऐतिहासिक विवरणियों के अनुसार भारत में कुम्भ मेले की जड़ें सहस्त्राब्दियों वर्ष पुरानी हैं, जिसका प्रारंभिक उल्लेख वैदिक, पौराणिक ग्रंथों तथा चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईस्वी में भारत के शासक रहे मौर्य और गुप्त काल के दौरान मिलता है।

इसमें पूरे भारतीय उपमहाद्वीप से तीर्थयात्री आते थे। गुप्तकाल के शासकों ने प्रतिष्ठित धार्मिक मंडली के रूप में इसकी स्थिति को और अधिक महत्व प्रदान किया।

मध्य काल में कुम्भ मेले को विभिन्न शाही राजवंशों से संरक्षण प्राप्त हुआ, जिनमें दक्षिण में चोल और विजयनगर साम्राज्य, उत्तर में दिल्ली सल्तनत, राजपूत व मुगल मुगल शासकों का संरक्षण मिला।

कहा जाता है कि अकबर ने भी धार्मिक सहिष्णुता की भावना को दर्शाते हुए कुम्भ समारोहों में भाग लिया था।

ब्रिटिश प्रशासकों ने इस उत्सव को देखकर इसके विशाल पैमाने और इसमें आने वाले लोगों के विविध सभाओं में भाग लेने वाले श्रद्धालुओं वृहत संख्या को देख आश्चर्यचकित होकर इसका दस्तावेजीकरण किया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आवागमन के साधनों के विकसित होने से महाकुम्भ मेले को और भी अधिक महत्व प्राप्त हुआ, जो राष्ट्रीय एकता और भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है।

यूनेस्को द्वारा 2017 में कुम्भ को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता प्राप्त है।

अमरत्व का मेला

कुम्भ का शाब्दिक अर्थ घड़ा, सुराही, बर्तन है। पौराणिक ग्रंथों में इसका वर्णन जल अथवा अमरता अर्थात अमृत के लिए किया गया है।

मेला शब्द का अर्थ है- किसी एक स्थान पर मिलना, एक साथ चलना, सभा में अथवा फिर विशेष रूप से सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होना।

इस प्रकार, कुम्भ मेले का अर्थ है -अमरत्व का मेला। ज्योतिष व खगोलीय गणनाओं के अनुसार कुम्भ मेला मकर संक्रान्ति के दिन प्रारंभ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं।

मकर संक्रान्ति के होने वाले इस योग को कुम्भ स्नानयोग कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है।(Kumbh Mela 2025)

ऐसी मान्यता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है।

यहाँ स्नान करना साक्षात स्वर्ग दर्शन माना जाता है। भारतीय संस्कृति व हिन्दू धर्म में कुम्भ का अत्यधिक महत्व माना जाता है।

जानें पौराणिक महत्व 

पौराणिक मान्यताओं व ज्योतिषिय गणनानुसार कुम्भ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुम्भ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है।

ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी स्थान पर गंगा जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है।

यही कारण है ‍कि अपनी अंतरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुम्भ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है।

यही कारण है कि ऐसे अवसरों पर यहाँ अर्ध कुम्भ तथा कुम्भ मेले के लिए आने वाले श्रद्धालुओं व पर्यटकों की संख्या सर्वाधिक होती है।

कुम्भ पर्वायोजन को लेकर अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक सर्वाधिक मान्य कथा देवता व दानवों के सामूहिक प्रयत्न से संपादित समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुम्भ से अमृत बूँदें गिरने से संबंधित है।

पौराणिक कथा का महत्व (Kumbh Mela 2025)

इस पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण इन्द्र और अन्य देवता श्रीहीन हो गए। देवताओं के कमजोर हो जाने पर दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया।

तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी।

भगवान विष्णु के सलाह पर सभी देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। उनके अथक प्रयास से उन्हें अमृत कलश प्राप्त हुआ, लेकिन अमृत कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयन्त अमृतकलश को लेकर आकाश में उड़ गया।

उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया। घोर परिश्रम के बाद दैत्यों ने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ लिया।

बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा

तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देवता व दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।

इस परस्पर संघर्ष के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों -प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक में जयन्त ने कलश को रखा जहां कलश से अमृत की बूंदें छलक कर गिर पड़ीं।

उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की।

कलह शान्त करने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया।

कथा के अनुसार अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर  युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं।

देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य(Kumbh Mela 2025)

इसलिए कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है।

जिस समय में चन्द्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र -सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुम्भ पर्व का आयोजन होता है।

पृथ्वी पर होने वाले चार कुम्भ हैं- प्रथम उत्तराखंड की गंगा नदी पर हरिद्वार में, द्वितीय मध्यप्रदेश की शिप्रा नदी पर उज्जैन में, तृतीय महाराष्ट्र की गोदावरी नदी पर नासिक में और चतुर्थ उत्तर प्रदेश की गंगा यमुना और गुप्त सरस्वती नदियों के संगम पर।

तीर्थराज प्रयाग पवित्र स्थलों में सबसे ऊपर माना जाता है। पवित्रता के प्रतीक के रूप में मान्यता प्राप्त गंगा नदी को पुण्यदायिनी कहा जाता है।

पुण्य व धार्मिकता की दाता गंगा भक्ति की प्रतीकात्मक यमुना नदी से मिलती है, जिनसे अदृश्य स्वरूपिनी ज्ञान की प्रतीक सरस्वती मिलती है। तीर्थराज प्रयाग की त्रिवेणी के कुम्भ को शक्तिशाली कहा गया है।

जीवन के अनंत चक्र से मुक्ति

मान्यतानुसार पृथ्वी के विशालतम मानव समागम के कुम्भ मेला में स्नान, दान और दर्शन से मनुष्य को जीवन के अनंत चक्र से मुक्ति मिल जाती है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रत्येक बारह वर्ष में मानव मोक्ष के द्वार खुलते हैं। 2025 में बृहस्पति मेष राशि में और सूर्य, चंद्र मकर राशि पर अमावस्या तिथि पर आने के कारण उस समय प्रयागराज में कुम्भ का योग बनेगा।

और प्रयागराज के गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के संगम तट पर कुम्भ मेला आयोजित होगा।(Kumbh Mela 2025)

लाखों लोगों के द्वारा शांति पूर्ण ढंग से भागीदारी निभाने से सम्पन्न होने वाला यह रहस्यमय मेला कुम्भ कोई संगठित आयोजन नहीं, बल्कि एक स्वतः स्फूर्त, आंतरिक, प्राचीन और निरंतर घटना है।

यह भारतीय उप-महाद्वीप का धार्मिक, सांस्कृतिक, पौराणिक और आर्थिक महत्व का विशालतम आयोजन है।

इस आयोजन में मानव धार्मिक तीर्थ- आध्यात्मिक दर्शन करते हुए स्नान- दान, जीवन- मृत्यु के साथ मोक्ष को साक्षात साकार कर अपने को धन्य महसूस करता है।

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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