हर देश के लोगों में गुण-अवगुण, सहयोग-स्वार्थ, आदि मानवीय प्रवृतियाँ कमोबेश समान हैं। अंतर उस व्यवस्था में है जो विचारशीलता या विचारहीनता को बढ़ाती है। अमेरिका यूरोप में भी गरीब लोग हैं। (election 2025)
पर कोई गरीब यूरोपीय अपनी किस्मत आजमाने भारत नहीं आता। जबकि संपन्न भारतीय भी पश्चिम का रुख करते हैं। यह वस्तुत: अंग्रेजी-राज को बेहतर मानना ही है।…
भारत गरीब देश नहीं है। पर राजनीतिक निकम्मेपन, वैध लूटपाट, और स्तरहीनता से बेहाल है। यहाँ का नेतृत्व आजीवन गद्दी पकड़े रहने की लालसा से ग्रस्त रहा है।
दिनों-दिन भारतीय हिन्दुओं की बौद्धिक, सामाजिक, और प्रशासनिक क्षमता घट रही है। यह मीडिया, राजनीतिक बयानबाजी, चौतरफा भ्रष्टाचार तथा संसाधनों की बेतहाशा बर्बादी से भी दिखता है। (election 2025)
विमर्श के नाम पर निरी दलबंदी, कोई न कोई षड्यंत्र देखना, तथा तू-तू-मैं-मैं होता है। किसी बात के लिए पैमाना/प्रमाण की जरूरत नहीं समझी जाती। एक तथ्य या खबर के बाद मुँह देख कर आगे-पीछे की दर्जनों चीज अपने झुकाव व कल्पना से तय कर ली जाती हैं।
अपना पसंदीदा निष्कर्ष चीख-चीख कर दोहराना, और मतभेद रखने वाले को लांछित करना – यह आज भारतीय बौद्धिकता है। कुछ इसे सलीके संयम से करते हैं, तो बाकी आवेश अपशब्दों के साथ। उन्हें घंटों सुनकर भी कोई विवेक पाना असंभव रहता है। (election 2025)
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यह देश का ऐतिहासिक ह्रास है। अर्थव्यवस्था के सिवा हर क्षेत्र भगवान भरोसे लगता है। इसे ठोस पैमानों पर परखा जा सकता है। किन्तु परखा ही नहीं जाता। (election 2025)
क्योंकि लगभग सब के पास कोई पूर्व-निर्धारित निष्कर्ष है। इसीलिए परीक्षण से वितृष्णा है। अपने-अपने दरबे, मंच, या एकाउंट पर कोई आरोप या नारा दुहराना ही हमारे विमर्श का आदि अंत है।
ऐसे समाज का भविष्य संदिग्ध है। जहाँ साफ गैरकानूनी काम पर भी कार्रवाई नहीं होती, यदि करने वाला ऐसे या वैसे पद पर या दल में हो। (election 2025)
जहाँ अधिकांश राजकीय क्षेत्र में जिम्मेदारी देने में वास्तविक योग्यता से बेपरवाही हो। निजी और उसी हेतु गुटीय स्वार्थ सर्वोच्च दिशा-निर्देशक हो। इन तमाम गड़बड़ियों को ढँकने हेतु लफ्फाजी और दलीय विद्वेष फैलाना आम चलन हो।
इसी कारण मामूली प्रतिभावान भी यहाँ से बाहर जा रहे हैं। केवल रोजगार की तलाश में नहीं, बल्कि देश छोड़ने की चाह से। अच्छे संपन्न घरों के युवा भी अमेरिका यूरोप जाना चाहते हैं, जिन्हें यहाँ आर्थिक चिन्ता नहीं। (election 2025)
वहाँ जाने वाले भारतीयों में पाँच प्रतिशत भी कोई नियुक्ति-पत्र लेकर नहीं जाते। अधिकांश पढ़ने जाते हैं, और फिर कोई आंशिक नौकरी शुरू करते हैं। कई बार यह वहाँ के नियमों का उल्लंघन करके होता है। कहीं तो कोर्स-दाखिला बहाना भर होता है। वे वहाँ बसने की मंशा से जाते हैं।
निचला रूप देश के अंदर भी (election 2025)
उसी का एक निचला रूप देश के अंदर भी है। गाँव-गाँव में माता-पिता बच्चों को स्कूली शिक्षा दिलाते हुए चाहते हैं कि वे जल्दी दिल्ली, बंगलोर निकल जाएं। उधर दिल्ली, बंगलोर में बसे भारतीय अपने बच्चों के यूरोप अमेरिका चले जाने की चाह रखते हैं।
यह पूरी प्रक्रिया पैरों से वोट देने जैसी है। अपने समाज, अपनी व्यवस्था के विरुद्ध सामूहिक अविश्वास का मौन प्रदर्शन। लोग पूरा साधन, बुद्धि, और परिश्रम लगाकर अपना देश छोड़ वहाँ जाना चाहते हैं जो अधिक व्यवस्थित और प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने वाला लगता है।
भारत गरीब देश नहीं है। पर राजनीतिक निकम्मेपन, वैध लूटपाट, और स्तरहीनता से बेहाल है। यहाँ का नेतृत्व आजीवन गद्दी पकड़े रहने की लालसा से ग्रस्त रहा है। (election 2025)
इस के लिए हर नैतिकता को चौपट करने लिए तैयार। इसीलिए वह देशहित के लिए सब का सहयोग नहीं चाहता। निजी स्वार्थ और उस हेतु दलबंदी सर्वोपरि है। इस में देश और समाज का हित स्वत: पीछे हो जाता है।
इसीलिए संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद भारत में कुव्यवस्था, निकम्मेपन और कदाचार का बोलबाला है। यहाँ राजनीतिक, शैक्षिक व्यवस्था योग्यता या विवेक की उपेक्षा, बल्कि उस से द्वेष रखती है। (election 2025)
शैक्षिक संस्थाएं या तो खानापूरी या धंधा हैं। बच्चों के प्रति प्रेम तक नदारद है! सभी प्रतिभाएं रामभरोसे रहती हैं। शैक्षिक काम और स्थानों को वोट या धन बटोरने की लालसा में तहस-नहस कर दिया गया है।
अधिकांश राजकीय क्षेत्र में प्रायः हर अवसर या पद योग्यता के सिवा अन्य आधारों पर देने-लेने की व्यवस्था वर्द्धमान है। देश की सर्वोच्च संस्था इस की प्रतिनिधि उदाहरण है। इसीलिए, साधारण योग्य भारतीय भी पैरों से वोट देकर यहाँ से प्रस्थान कर रहे हैं।
स्वतंत्र भारत की व्यवस्था में कोई कल्पना नहीं
वस्तुत: स्वतंत्र भारत की व्यवस्था में अपनी कोई कल्पना नहीं थी। इसीलिए वह गुण, प्रतिभा और योग्यता से बेपरवाह है। अमेरिका ने ऐसी व्यवस्था बनाई जो सारी दुनिया से गुण, प्रतिभा, और योग्यता का स्वागत करती है। (election 2025)
पर यहाँ सदैव अमेरिका-निन्दा ही प्रमुख बौद्धिक स्वर रहा है। जबकि वही निन्दक मौका मिलते ही अमेरिका जाना चाहते हैं। इस में वामपंथी और दक्षिणपंथी बौद्धिक एक समान हैं।
ऐसी खोखली मानसिकता स्वतंत्र भारत की अपनी चीज है। आठ दशक के स्वराज के बाद भी बात-बात में विदेशियों को दोष देना दयनीय है। अपनी बुद्धिहीनता का खुला प्रमाण भी। (election 2025)
यह ब्रिटिश राज से तुलना करके भी देखें। यहाँ ब्रिटिश शासक अपनी नीति या प्रशासन में दिखावटी, भीरू, या भ्रष्ट नहीं रहे थे। अंग्रेजों से घृणा करने वाले पक्के राष्ट्रवादी भारतीय भी अंग्रेज कर्मचारियों को कदापि काहिल, चरित्रहीन, या भ्रष्ट नहीं कहते थे।
ऐसी तुलना पर कुछ लोग रुष्ट होते हैं कि यह तो अंग्रेजी शासन की बड़ाई करना हुआ! पर मूल्यांकन करने में सत्य को ही पैमाना बनाना होगा। पार्टी-बंदी से तथ्य निर्धारित नहीं होता। (election 2025)
देशी-विदेशी वाली दलील भी मूलतः भाजपा-कांग्रेस जैसी पार्टीबाजी ही है। बात-बात में राष्ट्रवाद की हाँक लगाना एक झूठी टट्टी है, जिस की आड़ में अपने नेताओं की मूढ़ता, भीरुता और नकारापन पर पर्दा डलता है।
एक ओर ‘विश्वगुरु’ होने की डींग (election 2025)
हम सदैव किसी विदेशी, या यहाँ भी किसी दल, नेता, आदि को दोष देकर इतिश्री करते हैं। हमारा बड़बोलापन और निकम्मापन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस तेवर से हम शेखी बघारते और परनिन्दा करते हैं, उसी रौ में हर जिम्मेदारी किसी अन्य पर डाल पल्ला झाड़ते हैं।
समाज की सुरक्षा से लेकर शिक्षा, चिकित्सा, दैनिक प्रशासन और न्याय व्यवस्था तक हर मामले में पार्टीबाजी, परदोषारोपण और लफ्फाजी हमारा मुख्य विमर्श है। यह आसान है।
ठोस परीक्षण का कष्ट, श्रम नहीं करना पड़ता। द्वेष, निन्दा और आराम की तिहरी माया में हम सामने दिखता हाथी जैसा सच भी अनदेखा करते हैं। (election 2025)
इसीलिए एक ओर ‘विश्वगुरु’ होने की डींग है, पर दूसरी ओर नेताओं से लेकर बौद्धिकों, मैनेजरों तक – यानी नीति, शिक्षा, प्रकाशन, रहन-सहन, मनोरंजन, खेलकूद, आदि हर क्षेत्र पश्चिमी विचारों, वस्तुओं, भाषा, मॉडल, और संस्थानों से प्रेरित है।
नितांत स्वेच्छा से! हम अमेरिकी-यूरोपीय चीजों, विचारों, कानूनों, पुस्तकों, फिल्मों, खिलौनों, तौर-तरीकों तक को श्रेष्ठतर मानते हैं। उस के लिए अपनी हर चीज, ज्ञान, दर्शन, यम-नियम, भाषा-संस्कृति, यहाँ तक कि सदा के लिए देश छोड़ अमेरिका, यूरोप बस जाना चाहते हैं। पूरी बुद्धि, परिश्रम, और धन लगाकर बच्चों को वहाँ पहुँचाना और ‘सेटल’ करना चाहते हैं।
यह व्यवहारिक बिन्दु है। जहाँ सत्य को कसौटी बनाना ही उचित है। तब दिखेगा कि अधिकांश भारतीय अमेरिका, यूरोप को अपनाने के लिए तैयार बैठे हैं। (election 2025)
क्योंकि हम अपना कुछ भी स्तरीय नहीं बना सके। न उस की चिन्ता रही। राष्ट्रवादी नेताओं के पास अंग्रेजों से घृणा के अलावा कोई विचार न था। लफ्फाजी और उपदेश ही उन का आदि-अंत था। वही खालीपन स्वतंत्र भारत में आरंभ से परिलक्षित होता रहा है।
कोई स्वदेशी करे तो मंजूर
सो प्रश्न है: यदि हमारे ऊपर भेदभाव, उपेक्षा, उत्पीड़न, आदि कोई स्वदेशी करे तो मंजूर होना चाहिए? जबकि कोई विदेशी हमें अवसर, सुव्यवस्था, और सुरक्षा दे तो हमें नामंजूर होगा? इसी का उत्तर हमारे लाखों-लाख लोग अवसर मिलते ही अपने पैरों से वोट देकर दे रहे हैं।
देश त्याग कर यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जा बसने की उत्कट प्रकिया यही है। यह उन का शासन, उन की भाषा, उन की संस्कृति खुशी-खुशी स्वीकार करने के सिवा और क्या है? जिस के लिए वे कष्ट भी उठाते हैं। (election 2025)
यानी, न केवल वह संस्कृति और शासन बेहतर था और है, बल्कि उस में प्रजा बनने के लिए वहाँ नागरिकता-विहीन रहकर भी लंबी तपस्या करने के लिए असंख्य भारतीय तैयार हैं। बिना किसी आमंत्रण या दबाव के। क्योंकि वे भारत का कोई भविष्य नहीं देखते।
इसे उन का लालच कहना उन का नाहक अपमान करना है। हर देश के लोगों में गुण-अवगुण, सहयोग-स्वार्थ, आदि मानवीय प्रवृतियाँ कमोबेश समान हैं। (election 2025)
अंतर उस व्यवस्था में है जो विचारशीलता या विचारहीनता को बढ़ाती है। अमेरिका यूरोप में भी गरीब लोग हैं। पर कोई गरीब यूरोपीय अपनी किस्मत आजमाने भारत नहीं आता। जबकि संपन्न भारतीय भी पश्चिम का रुख करते हैं। यह वस्तुत: अंग्रेजी-राज को बेहतर मानना ही है।