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25-04-2025 Vol 19

कश्मीर में राजनीति की सीरत व सूरत दोनों बदली!

जम्मू-कश्मीर का स्वरूप व भूगोल बदलने के साथ-साथ प्रदेश की पूरी राजनीति भी बदल गई है। नए परिवेश और नए राजनीतिक माहौल के बीच होने जा रहे विधानसभा चुनाव अपने आप में बहुत ही दिलचस्प और अलग होने वाले हैं। यहां एक तरफ प्रदेश का आकार बदल गया है वहीं प्रदेश विधानसभा के स्वरूप में भी बड़ा बदलाव आया है । 90 सीटों में से कश्मीर संभाग में में 47 विधानसभा क्षेत्र हो गए हैं वही जम्मू संभाग को छह नए विधानसभा क्षेत्र मिले हैं। अब कश्मीरी पंड़ित समुदाय में से दो लोगों को मनोनीत किया जाने का प्रावधान है, इन दो मनोनीत सदस्यों में से एक महिला होनी चाहिए।

जम्मू-कश्मीर में लगभग दस वर्षों के बाद विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। पिछले चुनाव 2014 में हुए थे। इन दस वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। बहुचर्चित अनुच्छेद-370 की समाप्ति हो चुकी है और जम्मू-कश्मीर अब एक पूर्ण राज्य की जगह एक केंद्र शासित प्रदेश बन चुका है। जबकि प्रदेश के एक हिस्से, लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग करके एक अलग केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया जा चुका है।  जम्मू-कश्मीर का स्वरूप व भूगोल बदलने के साथ-साथ प्रदेश की पूरी राजनीति भी बदल गई है। नए परिवेश और नए राजनीतिक माहौल के बीच होने जा रहे विधानसभा चुनाव अपने आप में बहुत ही दिलचस्प और अलग होने वाले हैं।

यहां एक तरफ प्रदेश का आकार बदल गया है वहीं प्रदेश विधानसभा के स्वरूप में भी बड़ा बदलाव आया है । पहले प्रदेश विधानसभा का संख्या बल तकनीकी रूप से 107 था। लेकिन चुनाव 87 विधानसभा क्षेत्रों पर ही हुआ करता था। ऐसा इसलिए क्योंकि, 24 विधानसभा क्षेत्र पाक अधिकृत कश्मीर के लिए रिक्त छोड़े जाते रहे हैं। कुछ पाठकों के लिए यह जानकारी नई हो सकती है, तो उनको बताते चलें कि भारत पाक अधिकृत कश्मीर को अपना हिस्सा मानता है, इसलिए तकनीकी रूप से पाक अधिकृत कश्मीर के 24 इलाकों की सीटों का जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में प्रवधान रखा गया है।

पहले विधानसभा में पहुंचने वाले 87 विधायकों में से जम्मू संभाग के 37 क्षेत्रों से विधायक चुने जाते थे जबकि कश्मीर संभाग से चुने गए 46 विधायक विधानसभा पहुंचते थे।  लद्दाख संभाग से चार विधायक विधानसभा पहुंचा करते थे। दो सीटों पर दो महिलाओं को मनोनीत किया जाता था। ऐसा पूरे देश में जम्मू-कश्मीर में ही एक प्रावधान था। दो महिला मनोनीत विधायकों को मिला कर विधानसभा का कुल संख्या बल 89 रहता था।

2022 में हुआ ताज़ा परिसीमन

साल 2022 में हुए ताज़ा परिसीमन के बाद जम्मू-कश्मीर विधानसभा की कुल सीटे अब बढ़ कर 114 हो गई हैं जोकि पहले 107 थीं। पहले की तरह इन 114 में से अब भी पाक अधिकृत कश्मीर के 24 क्षेत्रों को रिक्त रखा गया है। लेकिन चुनाव अब 90 विधानसभा क्षेत्रों के लिए होगा। इन 90 सीटों में से कश्मीर संभाग की सीटों की संख्या में एक सीट की बढ़ोतरी हुई है। अब घाटी में 47 विधानसभा क्षेत्र हो गए हैं जबकि जम्मू संभाग को छह नए विधानसभा क्षेत्र मिले हैं जिससे संभाग के विधानसभा क्षेत्रों की संख्या 43 हो गई है। दो महिलाओं को मनोनीत किए जाने के प्रावधान को बदला गया है। अब कश्मीरी पंड़ित समुदाय में से दो लोगों को मनोनीत किया जाने का प्रावधान रखा गया है, इन दो मनोनीत सदस्यों में से एक महिला होनी चाहिए।

इसी तरह से यह पहली बार होगा कि जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिए जाने के कारण अब विधानसभा में लद्दाख का कोई भी प्रतिनिधि नज़र नही आएगा।

नए परिसीमन में एक बड़ा निर्णय लेते हुए अनुसूचित जनजातियों के लिए नौ विधानसभा क्षेत्र आरक्षित कर दिए गए हैं। अनुसूचित जनजातियों के लिए प्रदेश में पहली बार इस तरह से विधानसभा क्षेत्रों को आरक्षित किया गया है। आरक्षित किए गए क्षेत्रों में से छह जम्मू संभाग में हैं जबकि तीन कश्मीर संभाग में हैं।

जम्मू संभाग में गुलाबगढ़, राजौरी, बुद्धल, थन्नामंड़ी, सुरनकोट और मेंढर को अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किया गया है जबकि कश्मीर घाटी के गुरेज़, कंगन और कुकडनाग को नए परिसीमन के बाद अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किया गया है।

नए परिसीमन के बाद हुए बदलावों में अब जम्मू संभाग के रामनगर, कठुआ, रामगढ़, बिश्नाह, सुचेत्तगढ़, मढ़ और अखनूर विधानसभा हलकों को अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित किया गया है। कुल सात विधानसभा क्षेत्रों को अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित रखा गया है। लेकिन कश्मीर संभाग से कोई भी विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित नही है। ऐसा इस कारण से हुआ है क्योंकि कश्मीर में अनुसूचित जातियों की आबादी नही है।

विधानसभा अब पांच साला कार्यकाल

एक और बड़ा महत्वपूर्ण व तकनीकी बदलाव विधानसभा के कार्यकाल को लेकर हुआ है। पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल छह वर्ष का हुआ करता था, मगर इस बार जो विधानसभा गठित होगी उसका कार्यकाल देश के अन्य हिस्सों की तरह अब पांच वर्ष का ही होगा।

जम्मू-कश्मीर की विधानसभा के कार्यकाल को लेकर यह एक बेहद दिलचस्प मामला था। उल्लेखनीय है कि 1972 तक प्रदेश की विधानसभा का कार्यकाल भी अन्य राज्यों की विधानसभाओं की तरह पांच साल का ही हुआ करता था। लेकिन 1975 में आपातकाल लगने के बाद देश में लोकसभा व विधानसभाओं का कार्यकाल छह वर्ष का कर दिया गया था। जम्मू-कश्मीर में उस समय शेख महोम्मद अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार थी जिसने नई प्रणाली को फौरन जम्मू-कश्मीर में लागू करते हुए शेष देश की तरह जम्मू-कश्मीर में भी विधानसभा का कार्यकाल बढ़ाकर छह साल कर दिया था।

मगर 1977 में जब केंद्र की सत्ता में बदलाव हुआ तो जनता पार्टी सरकार ने छह साल की व्यवस्था को फौरन समाप्त कर दिया और देश वापस पांच साल वाली प्रणाली पर लौट गया। ऐसा लेकिन जम्मू-कश्मीर में नही हुआ और विधानसभा की छह साल की व्यवस्था यथावत जारी रही । यह कानूनी और तकनीकी रूप से इसलिए संभव हो सका क्योंकि अनुच्छेद-370 के अंतर्गत उस समय यह बाध्यता थी कि केंद्र का कोई भी कानून प्रदेश में लागू करते समय प्रदेश की विधानसभा से बकायदा उस कानून को पारित करवाना आवश्यक होता था।

उस समय की शेख सरकार ने छह साल वाली प्रणाली लागू करते समय तो विधानसभा से प्रस्ताव पारित करवा लिया था मगर शेख सरकार ने फिर से पांच साल वाली प्रणाली पर लौटने के लिए विधानसभा में कोई प्रस्ताव नही लाया। इस तरह से जम्मू-कश्मीर में तभी से विधानसभा का कार्यकाल छह साल का ही चलता चला आ रहा था।

कुल 47 साल तक यह व्यवस्था जम्मू-कश्मीर में बनी रही और इस दौरान 1977, 1983, 1987, 1996, 2002, 2008 और 2014 में सात बार विधानसभा का गठन हुआ और किसी भी सरकार ने छह वर्ष वाली प्रणाली को निरस्त करने के लिए कोई कदम नही उठाया। यहां तक कि अनुच्छेद-370 का विरोध करने वाली भारतीय जनता पार्टी भी 2014 में सरकार का हिस्सा बनी मगर उसने भी छह साल वाली प्रणाली को समाप्त करने के लिए कोई प्रयास नही किया।

बदले राजनीतिक समीकरण

राजनीति में दस वर्षों का अंतराल बहुत बड़ा अंतराल होता है। लंबे अर्सें के बाद हो रहे जम्मू-कश्मीर के चुनाव में भी कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं। कई राजनीतिक दल बिखर गए हैं तो कई नए बने भी हैं। कई नेताओं का राजनीतिक जीवन समाप्ति की ओर है या समाप्त हो चुका है। इन बीते सालों में नेशनल कांफ्रेंस को छोड़ कर लगभग सभी दलों में तोड़-फोड़ हुई है।

इन वर्षों में सबसे बड़ा नुक्सान पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) को सहना पड़ा है। मुफ्ती महोम्मद सईद के निधन के बाद पार्टी लगातार बिखरती चली गई है। मुफ्ती के लगभग सभी करीबी साथी पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक अब्दुल हमीद कर्रा आज जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं जबकि मुज्जफर हुसैन बेग को भारतीय जनता पार्टी का करीबी माना जाता है। मुफ्ती के एक अन्य बेहद खास साथी माने जाने वाले अल्ताफ बुखारी ने ‘अपनी पार्टी’ नाम से एक अलग राजनीतिक दल गठित कर लिया है। संस्थापक सदस्यों में रहे गुलाम हसन मीर जैसे कई वरिष्ठ नेता नेता अब पीडीपी छोड़ कर ‘अपनी पार्टी’ का हिस्सा बन चुके हैं।

पीडीपी के साथ एक बात अलबत्ता अच्छी यह हुई है कि पार्टी प्रमुख महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती एक सशक्त नए चेहरे के रूप में उभर कर सामने आईं हैं। मुफ्ती महोम्मद सईद के निधन के बाद से पार्टी को जो झटके लगे थे उनसे पार्टी को उभरने में इल्तिजा अपनी मां महबूबा मुफ्ती की मदद कर रही हैं। इल्तिजा के आने से बड़ी संख्या में युवा पार्टी से जुड़ रहे हैं।

इन कुछ वर्षों में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) से निकलकर कुछ लोग सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस में भी शामिल हो चुके हैं। पीपुल्स कांफ्रेंस है तो बहुत पुरानी पार्टी मगर उसे सज्जाद लोन ने नया रूप देने की कोशिश की है। कई नए राजनीतिक प्रयोग भी इस दौरान हुए, मगर लगभग सभी असफल ही रहे हैं। इन्ही वर्षों में भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी शाह फैसल ने नौकरी से इस्तीफा देकर मार्च 2019 में जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट नाम की एक पार्टी का गठन किया। मगर अगस्त 2020 आते-आते उन्होंने राजनीति से तौबा कर ली और अपनी पार्टी को भंग कर दिया।

जम्मू-कश्मीर के हवाले से बीते कुछ वर्षों में राजनीति में जो सबसे बड़ा प्रयोग देखने को मिला वह था गुलाम नबी आज़ाद द्वारा कांग्रेस को छोड़ना और प्रदेश की राजनीति में वापस लौटना। अपनेआप में राजनीति में यह एक बड़ा घटनाक्रम और एक बहुत ही बड़ा नया प्रयोग था। लेकिन दो ही वर्षों में तमाम तरह की तिकड़मों के बावजूद आज़ाद प्रदेश के राजनीतिक मैदान में अपने को स्थापित नही कर सके और राजनीति में धाराशायी होकर बुरी तरह से गिर चुके हैं।

आज़ाद ने बहुत बड़े-बड़े दावे करके अगस्त 2022 में अपने आप को कांग्रेस से अलग करने के बाद अपनी खुद की पार्टी का गठन किया। लेकिन चार महीने बाद ही आधी से ज्यादा पार्टी वापस कांग्रेस में लौट गई। शेष बचे नेता भी धीरे-धीरे कांग्रेस में वापस लौट चुके हैं। आज़ाद ने अपने बेटे को भी राजनीति में उतारने की इस बीच कोशिश की, मगर उसमें भी कामयाबी नही मिल सकी ।

हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में आज़ाद की पार्टी को तीन प्रतिशत से भी कम मत मिले। अब हालत यह है कि आज़ाद अपने कुछ-एक साथियों के साथ किसी तरह से पार्टी की गाड़ी को घसीट रहे हैं। । विधानसभा चुनाव में शायद ही आज़ाद की पार्टी कुछ कर पाए। हालांकि चर्चाएं हैं कि आज़ाद वापस कांग्रेस में लौटने के लिए बेताब हैं। इसी तरह से स्वर्गीय प्रोफेसर भीम सिंह की पैंथर्स पार्टी भी उनके निधन के बाद लगभग बिखर चुकी है।

मनु श्रीवत्स

स्वतंत्र पत्रकार जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ-अनुभवी पत्रकारों में की 33 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय। खेल भारती,स्पोर्ट्सवीक और स्पोर्ट्स वर्ल्ड में प्रारंभिक खेल पत्रकारिता। फिर जम्मू-कश्मीर के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार ‘कश्मीर टाईम्स’, और ‘जनसत्ता’ के लिए लंबे समय तक जम्मू-कश्मीर को कवर किया। दस वर्ष जम्मू के सांध्य दैनिक ‘व्यूज़ टुडे’ के संपादक भी किया। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता और ‘नया इंडिया’ के लिए लेखन।

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