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24-04-2025 Vol 19

अहिंसा हैश्रेष्ठ दैवीय वृत्ति

ऋग्वेद में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हे वरुण ! यदि हमने हमें प्यार करने वाले व्यक्ति के प्रति कोई अपराध किया हो, अपने मित्रों, साथियों, पड़ोसियों के प्रति कोई गलती की हो अथवा किसी अज्ञात व्यक्ति के प्रत्ति कोई अपराध किया हो, तो हमारे अपराधों को क्षमा करो। मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह एक दूसरे की रक्षा करें। इसीलिए यजुर्वेद में कहा गया है कि मैं सभी प्राणियों को मित्रवत देखूं, आपस में सभी एक दूसरे को मित्र सम्मान देखें।

2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस

आदि काल से ही मानव जीवन के साथ दैवी (दैवीय) और आसुरी वृत्तियों का संघर्ष निरंतर चला आ रहा है। जीवन संग्राम में आसुरी वृत्तियों के विजय होने पर क्लेशों का समुद्र उमड़ पड़ता है। यह क्लेश मानव को काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार आदि विविध रूपों में व्यथित करते हैं। इनके वशीभूत होकर मनुष्य जब अन्य प्राणियों को कष्ट देने के लिए संनद्ध होता है, तो उस वृत्ति का ही नाम हिंसा है। परंतु व्यक्ति जब आसुरी वृत्तियों की प्रबल विरोधिनी सेनाओं के द्वारा दैवी वृत्तियों को विजयी बना लेता है, तो दैवी वृत्तियों के विशाल साम्राज्य में सात्विकता, शांति, श्रद्धा, प्रेम, उत्साह आदि आध्यात्मिक सुखद राज्यों की स्वतः स्थापना हो जाती है। इन्हीं श्रेष्ठ दैवी वृत्तियों की जननी एवं कोशिका वृत्ति का नाम है -अहिंसा। आसुरी अर्थात हिंसात्मक वृत्तियां व्यक्ति को विविध कष्टों से दुखित करने के साथ ही अध्यात्म- प्रसाद से भी वंचित रखती हैं। इसलिए ऋग्वेद 7/32/9 में कहा गया है कि सोम स्वरूप परमेश्वर को चाहने वाले तुम किसी की हिंसा मत करो- मा स्त्रेध सोमिनः।  हिंसा न करने का हेतु बताते हुए ऋग्वेद 7/32/9, सामवेद 868 में कहा है- न स्रेधन्तं रयिर्नशत्। अर्थात- हिंसक वृत्ति वाला व्यक्ति मोक्ष रूपी अनुपम संपदा को कदापि पा नहीं सकता।

इसके विपरीत अन्याय अनीति से स्वार्थवश किसी की हिंसा नहीं करने वाले ही धर्मात्मा, शक्तिशाली होकर निर्भयता से विजय पाते हैं। यद्यपि वेदों में अहिंसा शब्द का प्रयोग नहीं मिलता, लेकिन अहिंसा के कारण विकसित होने वाले ऊदात्त मूल्यों की चर्चा वेदों में स्पष्ट परिलक्षित होती है। मैत्री, सद्भावना, अपराध को क्षमा करने का चिंतन आदि अहिंसात्मक विचार ऋग्वेद, यजुर्वेद में स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं। ऋग्वेद में प्रार्थना को ही अहिंसा माना गया है। अहिंसा अत्यंत हितकारी है। ऋग्वेद में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हे वरुण ! यदि हमने हमें प्यार करने वाले व्यक्ति के प्रति कोई अपराध किया हो, अपने मित्रों, साथियों, पड़ोसियों के प्रति कोई गलती की हो अथवा किसी अज्ञात व्यक्ति के प्रत्ति कोई अपराध किया हो, तो हमारे अपराधों को क्षमा करो। मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह एक दूसरे की रक्षा करें। इसीलिए यजुर्वेद में कहा गया है कि मैं सभी प्राणियों को मित्रवत देखूं, आपस में सभी एक दूसरे को मित्र सम्मान देखें।

अहिंसा का अर्थ होता है- अ-हिंसा अर्थात हिंसा न करना। अर्थात दूसरों के प्रति वैर भावना का त्याग करना। दूसरों के प्रति वैर भाव होने अथवा निजी कोई स्वार्थ होने पर ही मनुष्य दूसरों के प्रति हिंसा करने को बाध्य होते हैं। जबकि हम यह कभी नहीं चाहते कि दूसरे लोग व प्राणी हमारे प्रति हिंसा करें। हिंसा जिसके प्रति की जाती है, उसको हिंसा से दुःख व पीड़ा होती है। यदि हम चाहते हैं कि कोई हमारे प्रति हिंसा का व्यवहार न करे, तो हमें भी दूसरों के प्रति हिंसा का त्याग करना होगा। इसके लिए दूसरों के प्रति अपने मन व हृदय में प्रेम व स्नेह का भाव उत्पन्न करने से ही हिंसा दूर हो सकती है। इससे हमारे मन व हृदय में शान्ति उत्पन्न होगी, जिससे हमारा मन व मस्तिष्क ही नहीं अपितु शरीर भी स्वस्थ एवं दीर्घायु को प्राप्त होगा। इसलिए हर उस व्यक्ति को दूसरे प्राणियों के प्रति अहिंसा का व्यवहार करना चाहिए, जो दूसरों के द्वारा अपने प्रति हिंसा का व्यवहार करना पसन्द नहीं करता है।

दूसरों को पीड़ा देना अधर्म कहलाता है। कोई भी विवेकी मनुष्य व विद्वान इस कृत्य को उचित नहीं कह सकता। इसलिए मनुष्य हो या पशु-पक्षी, किसी को भी पीड़ा देना अधर्म व महापाप होता है। दूसरों को पीड़ा देना उनके प्रति हिंसा ही कही जाती है। इसका उपाय यह है कि हम स्वयं को अहिंसक स्वभाव व भावना वाला बनाएं। ऐसा करने पर ही हम वास्तव में मनुष्य बनते हैं। वेद मनुष्य को मनुर्भवः अर्थात मनुष्य बनने अर्थात मननशील होकर सत्य का ज्ञान प्राप्त करने व उसका आचरण करने की प्रेरणा व आज्ञा देते हैं। मनुष्य को सबसे यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए। यथायोग्य का अर्थ होता है जैसे को तैसा। जैसे को तैसा की नीति का पालन नहीं करने से असत्य व हिंसक आचरण करने वाले मनुष्य का सुधार नहीं किया जा सकता। हमारे विरोध न करने से उसकी हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। अंततः इसका दोष हम पर ही होगा। मनुष्य को सुधारने के चार तरीके होते हैं- साम, दाम, दण्ड और भेद। सज्जन व्यक्ति को प्रेम से समझाया जा सकता है। उसके नहीं सुधरने पर उसका कुछ दमन करना होता है। उस पर भी वह न सुधरे और हिंसा का आचरण करे तो फिर उसको दण्ड वा अल्प हिंसा से युक्त दण्ड देकर ही सुधारा जा सकता है। अहिंसा का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि कोई हमारे प्रति हिंसा का व्यवहार करे, और हम मौन होकर उसे सहन करें।

ऐसा करने पर हिंसक मनुष्य का स्वभाव और अधिक हिंसा वाला होगा और वह अन्य सज्जन लोगों को भी दुःख देगा। वेद हिंसक मनुष्य या प्राणियों के प्रति यथायोग्य व्यवहार की ही प्रेरणा देते हैं। श्रीमद्भवद्गीता में श्रीकृष्ण ने भी दुष्टता करने वाले मनुष्य की दुष्टता को कुचल दे ने के लिए कहा है – विनाशाय च दुष्टकृताम् । ऐसा करके ही अहिंसा का पालन व सत्य की रक्षा की जा सकती है। इसीलिए गीता में मनुष्यों को अहिंसा का प्रयोग करते हुए विवेक से कार्य लेने के लिए कहा गया है। कहावत है-अहिंसा कायरों का आभूषण होता है। एक सीमा तक ही लोगों का बुरा व्यवहार सहन करना चाहिए। और यदि वह न सुधरे तो फिर उसका समुचित निराकरण यथायोग्य व उससे भी कठोर व्यवहार करके करना चाहिए। अष्टांग योग में योग के प्रथम अंग यम की महता से सब परिचित है। यम पांच होते हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह।

आदिकाल से ही योगी, ऋषि-मुनि व वैदिक मत के अनुयायी अहिंसा व सत्य सहित पांचों यमों का पालन करते आये हैं। यह सार्वजनीन हैं अर्थात विश्व के सभी मनुष्यों के पालन व आचरण करने योग्य हैं। सम्पूर्ण विश्व में शांति स्थापित करने और अहिंसा का मार्ग अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित करने के उद्देश्य से मोहनदास करमचंद गांधी के जन्म दिवस 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसे गांधी जयंती के नाम से भी जाना जाता है। मोहनदास करमचंद गांधी को भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और अहिंसा के पुजारी के रूप में मान्यता प्राप्त है। उन्हें विभाजित भारत में महात्मा और राष्ट्रपिता की उपाधि से विभूषित किया गया है। मान्यता है कि गांधी का दर्शन, सत्य व अहिंसा श्रीमद्भगवद्गीता, हिन्दू व जैन दर्शन से प्रभावित है। अहिंसा के पुजारी गांधी सदैव ही भारत के बहुसंख्यकों  की सभा में अहिंसा के संबंध में प्रचलित एक श्लोक को पढ़ा करते थे-

अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:।

अर्थात- अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और धर्म रक्षार्थ हिंसा भी उसी प्रकार श्रेष्ठ है।

इतिहासकारों के अनुसार मोहनदास करमचंद गांधी अपनी सभाओं में इस श्लोक को अधूरा – अहिंसा परमो धर्मः-  ही पढ़ते थे। ताकि देश के बहुसंख्यकों में अहिंसा की भावना बनी रहे और उनका धार्मिक खून उबल न पड़े, जिससे उनके प्रिय अल्पसंख्यक बंधुओं को किसी परेशानी का सामना न करना पड़े। इसीलिए उन्होंने अहिंसा के एक पक्ष अहिंसा परमो धर्मः- को ही अपनी शिक्षा का अंग बनाया। उन्होंने के दूसरे पक्ष- धर्म हिंसा तथैव च को कभी अपना समर्थन नहीं दिया। फिर भी अहिंसा की नीति के माध्यम से विश्व भर में शांति के संदेश को बढ़ावा देने में  गांधी के योगदान को सराहने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में 15 जून 2007 को दो अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का फ़ैसला किया गया।

तब ही प्रत्येक वर्ष दो अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। वैदिक मतानुसार सत्य व अहिंसा सर्वस्वीकार्य और अत्यंत उत्कृष्ट विचार है, परंतु अपने धर्म की रक्षा, राष्ट्र धर्म, मानवता, प्रकृति, कर्त्तव्य रक्षा, समाज रक्षा, गृहस्थ रक्षा अर्थात सभी धार्मिक कर्तव्यों के आड़े आने वाली हर बाधा की समाप्त करने के लिए किया गया आवश्यक हिंसा उतना ही श्रेष्ठ है। अपने बंधु-बान्धवो की रक्षा, राष्ट्र रक्षा में यदि हिंसा आवश्यक है तो करना श्रेष्ठ है।

उल्लेखनीय है कि इस जगत को देखने से सम्पूर्ण प्राणि जगत हिंसा से परिपूर्ण, जीव ही जीव का घातक दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में जीव, जीव का भोजन बना हुआ है, सबल निर्बल को ही खा रहा है, पीड़ा दे रहा है, दुखित कर रहा है। ये दुखित करने की भावनाएं गुण कर्म तथा स्वभाव में आ चुकी हैं। इनसे मानव स्वयं दुखी है और दूसरों को भी कष्ट देने के लिए तैयार रहता है। ऐसे में सुख की अनुभूति कदापि नहीं हो सकती। इसीलिए ऋग्वेद 5/82/5 एवं यजुर्वेद 30/3 में दुःख, पीड़ा व दुरितों को दूर करने की प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि- हे सविता देव ! हमारे संपूर्ण दुर्गुण दुर्व्यसन और दुखों को दूर कर दीजिए- ओम विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। सामवेद 1806 में कहा गया है कि हे इंद्र हिंसा कराने वाले काम, क्रोध, द्वेष आदि के अधीन हमें न होने दीजिए। द्वेष की भावना ही सब प्रकार की हिंसा की मूल है, इनके विनष्ट हुए बिना व्यक्ति आगे बढ़ नहीं सकता, इसलिए ऋग्वेद 4/1/4 में विनम्र हो पुनः ईश्वर से संपूर्ण द्वेष युक्त कर्मों को हम से पृथक कर देने के लिए निवेदन किया गया है। हिंसा से पृथक रहने की अवस्था हिंसा के दुष्परिणामों को भली-भांति जान लेने पर ही आती है। क्योंकि व्यक्ति पहले अज्ञान एवं कुसंगवश दुष्कर्मों में फंस जाता है, पुनः उनसे छुटकारा पाना कठिन समझकर परमेश्वर से विनय करता है, साथ ही लोक में अपने से वरिष्ठ विद्वानों से अत्याचार करनेवाले, दान न देने वाले तथा दुख देने वाले द्वेष भावों को हमसे दूर करके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए प्रार्थना करता है। हिंसा करने की बात तो दूर वेदों में हिंसक के संसर्ग से भी दूर रहने का उपदेश देते हुए कहा गया है कि जैसे विद्वान लोग हिंसा रहित मित्र के घर जाते रहते हैं, उन्हीं का अनुसरण मैं करूं।

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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