हिंदूओं पर जु्ल्म, अत्याचार की अनगिनत घटनाएं, विवाद और नीतियों के उदाहरण हैं। मगर इन सभी घटनाओं, परिघटनाओं पर तथ्यगत प्रस्तुति, आकलन, और चर्चा से हमारे प्रभावशाली राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग को परहेज रहा है। यहाँ तक कि अकादमिक शोध या तथ्य-संकलन तक लुप्त है। उपर्युक्त सभी घटनाओं, परिघटनाओं पर कोई प्रतिष्ठित पुस्तक या पर्चा तक ढूँढने से ही मिले, जिस की देश-विदेश में कद्र हुई हो। इतना विराट बौद्धिक शून्य – समस्या समाधान का उपाय तो क्या, समस्या का आकलन तक गायब!
हिन्दू पीड़ा का कारोबार – 1
अभी पाँच वर्ष भी नहीं हुए, जब देश की आंतरिक सुरक्षा का सीधा भार सँभाले एक सर्वोच्च नेता ने बयान दिया था कि बंगाल विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद ‘कुल 16 जिलों में हिंसा की पंद्रह हजार घटनाएं हुईं, जिस में सात हजार स्त्रियों के साथ बलात् किया गया।’ उन्होंने यह भी कहा था कि ‘उन में अधिकांश घटनाएं आकस्मिक नहीं बल्कि सोची-समझी पूर्व नियोजित थीं।’ उन्होंने यह भी बताया था कि उस हिंसा के फलस्वरूप ‘बहुत से लोग बंगाल में अपने घर छोड़कर झारखंड, उड़ीसा, और असम पलायन कर गये हैं।’
यह सब कहकर उन्होंने वादा किया कि उन का मंत्रालय रिपोर्ट का अध्ययन करेगा और भविष्य के लिए उपाय करेगा। उस विस्तृत बयान (29 जून 2021) के बाद जरा खोजें कि तब से क्या हुआ? कुछ हुआ भी या बात आई-गई हो गई? अब फिर उसी बंगाल से वैसे ही समाचार आ रहे हैं, जो उसी तरह जल्द गुम हो जाएंगे।
वस्तुत: ऐतिहासिक क्रम में, यही सब दशकों तक कश्मीर में चला था, और अभी जम्मू आदि कई अन्य छोटे-बड़े इलाकों में चल रहा है। ऐसे भयावह समाचारों की खुली गोपनीयता यह होती है कि इस में पीड़ित समुदाय की पहचान लुप्त रखी जाती है, और ‘पूर्व-नियोजित’ हिंसा और बलात् करने वाले की भी। किसी रोते-कलपते पीड़ित या हिंसक-उग्र उत्पीड़क की फोटो देश-विदेश की मीडिया में बार-बार लहराई, दिखाई नहीं जाती – ताकि पहचान छिपी रहे! यद्यपि मोटे तौर पर सभी लोग जानते हैं कि यह हिन्दू-मुस्लिम वाला मामला है। पर किसी प्रसंग, घटना, दौर विशेष में कौन पीड़ित हुआ और किस ने उत्पीड़न किया? यह बंगाल की तरह ही सभी चुनिंदा मामलों में गुम रखे जाने से मुख्यतः संदेह, भ्रम, आक्रोश, और तू-तू मैं-मैं ही बच रहता है।
उपर्युक्त घटना एक उदाहरण भर है। देश के एक सर्वोच्च कर्णधार का बयान, उन का वादा, फिर उस पर किसी कार्रवाई का समाचार न आना, और अंततः कुछ अंतराल के बाद ठीक वही क्रम दुहराया जाना। इस बीच कई गाँव, मुहल्ले उन अनाम बेबस अभागे समुदाय से विहीन होते जाना जिन के उत्पीड़न का समाचार तक पूरी तरह नहीं बताया जाता। बरसों, दशकों से जगह-जगह और बार-बार यही होना क्या दर्शाता है? इस की परख ठोस पैमानों पर होनी चाहिए। परन्तु किसी ठोस परख को ही रोका जाता है।
क्योंकि इस में मतवादी और दलबंदी की बाधा आ जाती है। भारत के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों और दलबंदी प्रभावित पत्रकारों, बुद्धजीवियों ने अपनी-अपनी कुछ टेक, निष्कर्ष और तदनुरूप कर्तव्य-नारे तय कर रखे हैं। उस के विरुद्ध पड़ने वाले हाथी जैसे विशाल तथ्य को भी वे अनदेखा करने को तत्पर रहते हैं। यह ठीक हिन्दू मुस्लिम मुद्दे पर सर्वाधिक होता है। इसलिए इस मुद्दे से जुड़ी कोई नई या पुरानी घटना, नीति-रीति, आँकड़े, या दृश्य वास्तव में कुछ भी क्यों न हो – भारतीय राजनीतिक या बौद्धिक गुट अपनी टेक से नहीं डिगते। इस हद तक कि यदि कोई पत्रकार या शोधकर्ता असलियत दिखाए तो सभी अपने-अपने तरीके से उसे नजरंदाज करते या झुठलाते तक हैं। सत्य दबा दिया जाता है, और विविध झूठ हजारों बार दुहराये जाते हैं।
इस विडंबना का परिणाम? वास्तविक पीड़ित समूह या व्यक्ति अपनी दुर्गति असहाय झेलता रहता है। कुछ गुट अपनी मतवादी झक में एक समुदाय विशेष को ही स्थाई पीड़ित मानकर उस के हाथों निरंतर पीड़ित भी किसी समूह को पीड़ित मानने से इन्कार करते हैं। अन्य गुट ऐसे उपेक्षित पीड़ित समूह की पीड़ा को भुनाकर लाभ उठाने का कारोबार करते हैं। विगत अनेक दशकों से, जैसे भी हिसाब करें, यह दोनों प्रवृत्तियाँ यथावत मिलती हैं।
कुछ भड़कीले पर अनावश्यक कानून बनना, बंगलादेश में हिन्दू मंदिरों और हिन्दुओं पर हमला, औरंगजेब की कब्र पर बयानबाजी, शाहीनबाग जैसी घेरेबंदियाँ, तबलीगी जमात, कन्हैया लाल, नुपूर शर्मा, कश्मीरी पंडित, बंबई स्टॉक एक्सचेंज, संसद, सरोजिनी नगर, ताज होटल, आदि असंख्य महत्वपूर्ण स्थानों पर जिहादी हमले, अक्षरधाम-रघुनाथ मंदिर-संकटमोचन आदि अनगिनत मंदिरों पर वही हमले, अल्पसंख्यक संस्थानों के विशेषाधिकार, संविधान के अनुच्छेद 25-31 का विकृत अर्थ कर देना, अल्पसंख्यक आयोग, अल्पसंख्यक मंत्रालय, अल्पसंख्यक कोचिंग, अयोध्या-काशी-मथुरा जैसे इस्लाम-अतिक्रमित मंदिर , साबरमती एक्सप्रेस दहन, सेक्यूलरिज्म, संविधान का ४२वाँ और 44वाँ संशोधन, तथा उत्तर रजौरी से लेकर मध्य कैराना और दक्षिण मराड तक असंख्य छोटे-बड़े इलाकों से एक अभागे समुदाय का क्रमशः सफाया और पलायन, आदि आदि।
ये सब पीछे की ओर जाती हुई अनगिनत घटनाएं, विवाद और नीतियाँ गत चार-पाँच दशकों के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। परन्तु इन सभी घटनाओं, परिघटनाओं पर तथ्यगत प्रस्तुति, आकलन, और चर्चा से हमारे प्रभावशाली राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग को परहेज रहा है। यहाँ तक कि अकादमिक शोध या तथ्य-संकलन तक लुप्त है। उपर्युक्त सभी घटनाओं, परिघटनाओं पर कोई प्रतिष्ठित पुस्तक या पर्चा तक ढूँढने से ही मिले, जिस की देश-विदेश में कद्र हुई हो। इतना विराट बौद्धिक शून्य – समस्या समाधान का उपाय तो क्या, समस्या का आकलन तक गायब!
ऐसा क्यों? इसलिए कि वह सब हिन्दू-मुस्लिम वाले राजनीतिक मामले से जुड़ा है, जिस पर प्रायः सभी राजनीतिक गुट पर्दा डालने, झुठलाने या बेचने की तरकीब में लगे रहे हैं। जिस में सत्य किसी को सहन नहीं होता! इसीलिए, उपर्युक्त किसी भी घटना या मुद्दे पर एक भी प्रमाणिक शोध या राजकीय श्वेत-पत्र नहीं है। उन पर संसद में कभी कोई केंद्रित विमर्श हुआ नहीं मिलता। ऐसी भयावह लीपा-पोती इसलिए नहीं कि उक्त घटनाएं या विषय महत्वहीन हैं। बल्कि इसलिए कि इन सभी घटनाओं और मुद्दों पर देश के सभी प्रमुख राजनीतिक, बौद्धिक गुटों के पास पूर्व-निर्धारित निष्कर्ष हैं जो वास्तविक तथ्यों, आँकड़ों, परिणामों से दूर हैं। किन्तु चूँकि सभी गुटों को अपनी दलबंदी और तदनुसार स्वार्थ सर्वोपरि लगता है, इसलिए उपर्युक्त सभी घटनाओं और मुद्दों की असलियत पर पर्दा रखना ही सब को मुफीद है।
फलत: जो पीड़ित हुआ और आज भी है, उस की पीड़ा किसी हिसाब में नहीं। बल्कि अनेक प्रबल बौद्धिक, राजनीतिक समूह पीड़ित को ही दोषी ठहराते हैं। संकेतों में या खुलकर भी। फिर समय-समय पर उन्हें ऐसे हथकंडे मिलते रहते हैं जिस से उन्हें पीड़ित को ही आक्रामक और उत्पीड़क को ही बेचारा बताते रहने का हीला मिलता रहता है। जिस से आम अनजान भले लोग ठगे जाते हैं, देश-विदेश हर कहीं। यह हथकंडे उन झुनझुनों से मिलते हैं जो संघ-परिवार के बड़े लोग अपने पुराने, बंधुआ वोट-बैंक को बहलाने-फुसलाने के लिए बीच-बीच में प्रस्तुत करते रहते हैं। जिस से उस अभागे समुदाय के हाथ कुछ जुमले, मूर्तियाँ, तमाशे, सेल्फी, डींग, दिलासे, या अनावश्यक किस्म के कानूनों आदि के सिवा कुछ ठोस नहीं आता। पर उस की भावना को उत्तेजना व खुराक मिलती रहती है। बस, इसी झुनझुने को लहराकर तमाम मतवादी अपनी-अपनी टेक पुष्ट करते और दलीय स्वार्थ साधते हैं।
इस तरह, यह हिन्दू पीड़ा का विशाल कारोबार है। स्वतंत्रता मिलने समय से, बल्कि उस से भी कुछ पहले से अपने ही नेताओं की करनी से वह पीड़ित होता रहा है। जिस में अंग्रेज शासकों ने ही हिन्दुओं की चिन्ता की जब तक वे रहे। जबकि राष्ट्रवादी नेता ‘खलीफत सत्याग्रह’ से लेकर देश-विभाजन करने तक इस से बेफिक्र या नासमझ साबित होते रहे कि उन के विचित्र आंदोलनों, दोहरी बोली, दोहरी नीतियों से हिन्दू समाज को क्या मिल रहा है? जब से राष्ट्रवादी आंदोलन की हवा बनी, तभी से अर्थात 1919 से 1947 तक, अनेक ऐसे आंदोलन, वक्तव्य, और फैसले देखे जा सकते हैं जो राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा अनुचित एकतरफा तुष्टिकरण था। फलत: तुष्ट होने के बदले संबंधित समुदाय के नेताओं की भूख बढ़ती गई। जिसे डॉ. अंबेडकर ने 1940 में इन सटीक शब्दों में रखा था, ”मुसलमानों की माँगें हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं।” (जारी)