भाजपा नेताओं ने विविध प्रकार के हिन्दू-विरोधी बौद्धिकों, सिद्धांतकारों, सरपरस्तों को पुरस्कृत किया है। जबकि सचेत हिन्दू बौद्धिकों, सिद्धांतकारों, पत्रकारों को उपेक्षित, लांछित और दंडित तक किया है। ऐसे विशिष्ट व्यक्ति भी, जिन्होंने सांप्रदायिकता और सेक्यूलरिज्म की बहस में संघ-भाजपा का बचाव, तथा इन्हें बड़ा सहयोग भी दिया था। इस के बावजूद संघ-भाजपा सत्ताधारियों द्वारा इन्हें प्रायः निंदित, और हो सके तो समाप्त तक किया, या होने दिया जा रहा है। दुर्लभ हिन्दू लेखक, विद्वान भी छीजने, लुप्त होने छोड़ दिए गये हैं।
हिन्दू पीड़ा का कारोबार -3
पत्रकार संदीप देव की अन्वेषणात्मक रिपोर्ट ‘हिन्दू आतंकवाद के आर्किटेक्ट की हार’ विचारोत्तेजक है। उस के अनुसार ‘हिन्दू आतंकवाद’ मुहावरे के जनक को संघ-भाजपा ने बाद में ईनाम देकर लोकसभा तथा और भी ऊपर पँहुचाया। एक आर्किटेक्ट ने समझौता, अजमेर, मालेगाँव, आदि बम-विस्फोटों में कुछ संघ स्वयंसेवकों का नाम मीडिया में जारी किया था। यद्यपि कांग्रेसी सत्ताधारियों ने स्पष्ट किया था कि उन्होंने ‘संघ के शिविरों में’ आतंकवादी प्रशिक्षण की बात की थी, न कि ‘हिन्दू’ आतंकवाद कहा। फिर एक राजकीय उच्चाधिकारी सामने आए और संघ के दस स्वयंसेवकों और प्रचारकों की सूची जारी की और कहा कि इन का संबंध आतंकवादियों से हैं। इस प्रकार, उन्होंने साक्ष्य के दावे से संघ को आतंकवाद में लिप्त बताया था। इस तरह, मीडिया में ‘हिन्दू आतंकवाद’ प्रचारित हुआ
इसलिए हैरत हो सकती है कि इसी उच्चाधिकारी को सेवानिवृत्ति के बाद भाजपा ने लोकसभा का टिकट दिया। वे दो-दो बार न केवल सांसद बने, बल्कि और ऊपर पहुँचे। क्या यह संघ-भाजपा को झूठ-मूठ आतंकवादी कहने का ईनाम था? आखिरकार उस दुष्प्रचार से हिन्दुओं के एक वर्ग में गुस्सा भरा और वे भाजपा के पक्ष में आ गये। रिपोर्ट इस के अलावा भी उदाहरण देती है जिस में उच्च अधिकारियों ने भाजपा नेताओं पर चोट किया था, जिस से सनसनीखेज खबरें बनी थीं। पर चोट खाने वाले नेताओं द्वारा बाद में उन्हें ईनाम ही मिले!
इयान फ्लेमिंग या अगाथा क्रिस्टी की कसौटी पर जाँचें तो यह कोई अपवाद नहीं, एक पैटर्न लगता है। किसी तरह हिन्दुओं को मुसलमानों के संबंध में उकसाना, नाराजगी भरना और उस का चुनावी लाभ लेना। संदीप देव के अनुसार, पहले भी यही तरीका भाजपा की बढ़त में देखने को मिलता है। हिन्दुओं को संघ-भाजपा के साथ लपेट कर बदनाम करने वाले महत्वपूर्ण लोग भाजपा सत्ताधारियों द्वारा प्रायः पुरस्कृत हुए। संदीप ने अपनी रिपोर्ट में तीन-चार बड़े नामों के साथ 1990 ई. से ही ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख किया है, जिस में संघ-भाजपा को बदनाम करने वाले अधिकारी, नेता, लेखक, और पत्रकार सत्तासीन भाजपाइयों द्वारा पद, पुरस्कार, सम्मान, आदि पाते रहे। क्योंकि अनुचित बदनामी से संघ-भाजपा को प्रतिक्रियात्मक सहानुभूति और वोट मिलते हैं।
फलत:, आप की यह चाह स्वाभाविक है कि हिन्दुओं में किसी न किसी रूप में आक्रोश बना रहे, बनता रहे। यह मुस्लिमों को विशेष सुविधा-प्राप्त दिखने से सहज ही होता है। सो यह मुफीद लगता है कि यह विषमता बनी रहने दी जाए, न कि इस का समाधान करें। शायद यही संघ-भाजपा की ‘तृप्तिकरण’ नीति की अधिक सही व्याख्या है। साथ ही, इस की भी कि क्यों देश में ‘अल्पसंख्यक’ आधार पर तरह-तरह के विशेष अधिकार और सुविधाएं सदैव बढ़ाई जाती रही हैं। चाहे किसी भी दल की सत्ता हो।
इस तरह, हिन्दुओं को कई सुविधाओं, अधिकारों से वंचित कर, वैधानिक रूप से निचले दर्जे का नागरिक बनाए रखा जा रहा है। शिक्षा, संस्कृति और धर्म संस्थानों के संचालन में हिन्दुओं की स्थिति हीन बना दी गई है। ऐसा दुनिया के किसी देश में नहीं कि अल्पसंख्यकों को वैसे अधिकार हों, जिन से अन्य लोग वंचित रखे जाएं। पर स्वतंत्र भारत में (न कि ब्रिटिश भारत में) यही हुआ और होता गया है। चाहे यहाँ लगभग सारे बड़े बौद्धिक, पत्रकार, नेता खुद हिन्दू होकर भी यह नहीं देखते!
पर यदि संदीप देव का सिद्धांत सही है तो यह विडंबना बनाए रखना ही संघ-भाजपा के हित में है। ताकि हिन्दू चिंतित रहें और अन्य दलों को *अधिक* मुस्लिम-परस्त समझ कर, संघ-भाजपा के ‘तृप्तिकरण’ के बावजूद इसे चढ़ावा देते रहें। जबकि यदि शिक्षा संस्थान और धर्म संस्थान चलाने में हिन्दू और मुस्लिमों को समान अधिकार दे दिए जाएं तो तुष्टिकरण-तृप्तिकरण समाप्त हो सकेगा। लेकिन, तब सभी राजनीतिक दल एक धरातल पर आ जाएंगे और संघ-परिवार को हिन्दू आक्रोश का लाभ मिलना बंद हो जाएगा। अतः उक्त रिपोर्ट के अनुसार, ”जो भी संघ-भाजपा के विरूद्ध साजिश करता है, उस से संघ-भाजपा के प्रति हिन्दू वोट गोलबंद होता है और इस से भाजपा को सत्ता मिलती है।” इसलिए, संघ-भाजपा वैसे लोगों को पुरस्कृत करते हैं।
एकबारगी यह अप्रत्याशित लगता है। किन्तु इस का पैटर्न गत पचास वर्षों से दिख रहा है, कि भाजपा नेताओं ने विविध प्रकार के हिन्दू-विरोधी बौद्धिकों, सिद्धांतकारों, सरपरस्तों को पुरस्कृत किया है। जबकि सचेत हिन्दू बौद्धिकों, सिद्धांतकारों, पत्रकारों को उपेक्षित, लांछित और दंडित तक किया है। ऐसे विशिष्ट व्यक्ति भी, जिन्होंने सांप्रदायिकता और सेक्यूलरिज्म की बहस में संघ-भाजपा का बचाव, तथा इन्हें बड़ा सहयोग भी दिया था। इस के बावजूद संघ-भाजपा सत्ताधारियों द्वारा इन्हें प्रायः निंदित, और हो सके तो समाप्त तक किया, या होने दिया जा रहा है। दुर्लभ हिन्दू लेखक, विद्वान भी छीजने, लुप्त होने छोड़ दिए गये हैं।
इस से झलकता है कि हिन्दुओं को पीड़ित व बदनाम करने वाले ही संघ-परिवार को सीधा लाभ पँहुचाते हैं। जबकि हिन्दुओं के पक्ष से शैक्षिक, सांस्कृतिक, वैचारिक प्रयास करने वाले दलीय वोट-लाभ की दृष्टि से बेकार हैं। क्योंकि वह तो हिन्दुओं को सचेत, शिक्षित करके मानो संघ-भाजपा की हानि करते हैं!
यह कोई बड़ी थ्योरी नहीं कि हिन्दुओं के विरुद्ध भेदभाव बनाए रखकर कोई अपने को उन का हित-चिन्तक बताए। आखिर जो समूह कानूनी रूप से समान, सबल, सचेत हो गया, उसे भड़काना या डरा कर उस का ‘पक्षधर’ बनने का उपाय जाता रहेगा। अतः संदीप देव की थ्योरी संघ-परिवार के इतिहास से पुष्ट होती लगती है। आखिर संघ-परिवार ने कभी भी सामुदायिक भेदभाव के किसी नीतिगत मुद्दे को उठाकर कोई गंभीर दबाव नहीं बनाया। ताकि वह बदले या रुके। कितनी भी बड़ी बात, सामूहिक संहार, या वीभत्स घटना हो, वे उस पर केवल रस्मी बयान देकर अपने-अपने घर में मजे से पड़े इंतजार करते रहे कि हवा बदले और कुर्सी मिले। यही होता भी रहा है। तब उन्हें कुछ बदलने की जरूरत ही क्या है?
पिछले पाँच दशकों में संघ-भाजपा कभी भी ऐसे प्रस्तावित प्रावधान या काम रोकने को नहीं अड़े जिस से हिन्दुओं के विरुद्ध भेदभाव हो रहा हो। बल्कि, अनेक बार ऐसे प्रावधान संघ-भाजपा ने स्वयं बनाए या बनने दिये। ऐसे कई प्रकरणों का विवरण कभी संघ-जनसंघ के सब से प्रखर नेता रहे बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा ‘जिन्दगी का सफर’ में 1960 के दशक से ही दिया है। उन विवरणों का संघ-भाजपा नेताओं ने कभी खंडन नहीं किया। अतः न केवल वह आरोप सही हैं, बल्कि हालिया वर्षों में ‘तृप्तिकरण’ की अनेक सौगातें उसी क्रम में फिट होती हैं। यह सब करते हुए संघ-भाजपा नेता अपने भी कार्यकर्ताओं को कभी ‘मास्टरस्ट्रोक’, कभी ‘लाचारी’ की अंतर्विरोधी दलीलें देकर चुप कराते हैं। फिर अपने किसी सर्वोच्च नेता के विदा होते ही, वह सब फलाँ की ‘निजी गलती थी’, और ‘कोई पावर में हो तो हम आप क्या कर सकते हैं’, आदि कहकर पिछला रफा-दफा करते हैं। किन्तु पुनः उसी तरह के काम में लगे रहते हैं। यह कैसा व्यापार है! कम से कम ऐसा दो-मुँहापन और भगोड़ापन कांग्रेसियों, वामपंथियों या जातिवादियों में नहीं रहा है। वे सत्ताहीन या सत्ताधारी, एक ही तरह की टेक पर रहते हैं।
किंतु संघ-परिवार में अंतर्विरोधी प्रवृत्तियाँ हालिया अपवाद नहीं, अपितु दशकों से नियम के रूप में दिखती हैं। वह उन के किसी अ, ब, या स नेता की निजी भूल या धूर्तता नहीं रही है। हिन्दू पीड़ा का दोहन, उस से धन संग्रह, वोट संग्रह, सत्ता संग्रह की धूर्तता। जितनी और विविध हिन्दू पीड़ा, उतने ही विविध भागों से वोट, सत्ता, और धन माँगना। कुछ यही समीकरण बार-बार कार्यान्वित होता लगता है। यह हिन्दू पीड़ा का कारोबार है। जिस के सभी हिस्सेदार हैं। सेक्यूलर भी, सोशलिस्ट भी, नेशनलिस्ट भी। कुछ मुखर, कुछ मौन।