दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और वैश्विक स्तर पर नदियों के बहाव में अंतर आ रहा है| नदियों में पानी की कमी से पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है और समाज में अस्थिरता बढ़ रही है| ग्लेशियर से एशिया में गंगा समेत 12 प्रमुख नदियाँ निकलती हैं जो भारत समेत 16 देशों में बहती हैं और इन नदियों पर पानी के लिए लगभग 2 अरब आबादी आश्रित है|
एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि वर्ष 2027 में एक ऐसा दिन होगा जब उत्तरी ध्रुव और आर्कटिक महासागर बर्फ-विहीन होगा| संभव है कि यह घटना केवल एक दिन के लिए ही हो, इसके कोई स्थाई प्रभाव नहीं हों, पर इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि मनुष्य में तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन के माध्यम से उत्तरी ध्रुव के क्षेत्र में व्यापक बदलाव कर दिया है| इस तरीके के बदलाव से उत्तरी ध्रुव की पहचान ही बदल जाएगी| इन वैज्ञानिकों के अनुसार संभव है कि वर्ष 2030 तक पूरा एक महीना ऐसा हो जिसमें उत्तरी ध्रुव बर्फ-विहीन रहे|
हरेक वर्ष अनेक अध्ययन प्रकाशित किए जाते हैं, जो पूरी दुनिया में ग्लेशियर के तेजी से पिघलने की जानकारी देते हैं| दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में पहले केवल पश्चिमी भाग में ही ग्लेशियर के तेजी से पिघलने की चर्चा होती थी, जबकि पूर्वी क्षेत्र के ग्लेशियर को सुरक्षित समझा जाता था, पर पिछले 5 वर्षों से इस क्षेत्र के ग्लेशियर भी तेजी से पिघलने लगे हैं| यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में फैली 50 संरक्षित प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहरों में लगभग 18600 ग्लेशियर हैं, इनमें से अधिकतर वर्ष 2050 तक खत्म हो चुके होंगें|
काठमांडू स्थित इन्टरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हिन्दुकुश हिमालय के ग्लेशियर अभूतपूर्व दर से पिघल रहे हैं, और तापमान बृद्धि के कारण इस ग्लेशियर क्षेत्र में ऐसे खतरनाक और स्थाई बदलाव हो रहे हैं जिसके बाद भविष्य में यह क्षेत्र अपने सामान्य स्तर पर कभी नहीं आयेगा| इन ग्लेशियर से एशिया में गंगा समेत 12 प्रमुख नदियाँ निकलती हैं जो भारत समेत 16 देशों में बहती हैं और इन नदियों पर पानी के लिए लगभग 2 अरब आबादी आश्रित है| इन ग्लेशियर से उत्पन्न नदियों से पानी की जरूरतों को पूरा करने वाली कुल आबादी में से 24 करोड़ से अधिक आबादी तो हिमालय के क्षेत्रों में ही है, और 1.6 अरब आबादी मैदानी इलाकों में इस पानी पर आश्रित है| पिछले कुछ वर्षों के दौरान इससे पहले भी अनेक रिपोर्ट और अध्ययन हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने और सिकुड़ने की खतरनाक तरीके से बढ़ती दर पर प्रकाश डाल चुके हैं|
इस रिपोर्ट के अनुसार यदि वैश्विक स्तर पर तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए सख्त कदम नहीं उठाये गए तो इस शताब्दी के अंत तक हिमालय के ग्लेशियर के आयतन में 80 प्रतिशत तक की कमी हो जायेगी| वर्ष 2010 के बाद हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने की दर इससे पहले के समय की तुलना में 65 प्रतिशत बढ़ चुकी है| तापमान बृद्धि को नियंत्रित करने के बारे में सरकारों की लापरवाही का आलम यह है कि पिछले कुछ वर्षों से लगभग हरेक सप्ताह कोई ना कोई अध्ययन प्रकाशित होता है, जो ग्लेशियरों पर तापमान बृद्धि के प्रभावों के बढ़ते दायरे की ओर इशारा करता है, पर कहीं कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं|
हिमालय क्षेत्र पृथ्वी के भौगोलिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण और विशेष हिस्सा है जो पिछले कुछ वर्षों से तापमान बृद्धि की अप्रत्याशित मार झेल रहा है| इससे त्वरित बाढ़ और हिमस्खलन की दर और तीव्रता बढ़ती जा रही है| दो वर्ष पहले पाकिस्तान को जलमग्न करने वाली बाढ़ भी इसी का नतीजा थी जिसमें 1700 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी| जोशीमठ के धंसने पर तो बहुत कुछ लिखा गया है| माउंट एवेरेस्ट पर और आसपास के ग्लेशियर पिछले 30 वर्षों में ही इतने पिघल चुके हैं, जितना सामान्य स्थितियों में 2000 वर्षों में पिघलते|
इस रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन से जुड़े तीन प्रमुख कदम हैं – इसे नियंत्रित करना, इसके प्रभावों से आबादी को बचाना और इससे हुए नुकसान की भरपाई करना – पर दुखद यह है कि पूरी दुनिया इनमें से किसी भी कदम की तरफ नहीं बढ़ रही है| पृथ्वी के बढ़ते तापमान से सबसे अधिक प्रभावित ग्लेशियर होते हैं| पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में पृथ्वी का औसत तापमान 1.3 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है, पर ग्लेशियर पहाड़ों पर जिस ऊंचाई पर बनते हैं – अनुमान है कि उन क्षेत्रों का तापमान पृथ्वी के औसत तापमान बृद्धि की तुलना में दुगुना है| तापमान बृद्धि के कारण ग्लेशियर के पिघलने की दर लगातार बढ़ रही है|
अधिकतर ग्लेशियर से बहने वाला पानी किसी नदी में जाता है पर अनेक ग्लेशियर ऐसे भी हैं जिनसे बहने वाला पानी इसके ठीक नीचे के क्षेत्र में या आसपास के निचले हिस्से में जमा होता है और यह पानी पत्थरों और मलबों से रूककर एक झील जैसी आकृति बना लेता है| जब इसमें अधिक पानी जमा होता है तब किनारे के पत्थरों और मलबों पर दबाव बढ़ जाता है जिससे ये टूट जाते हैं| ऐसी अवस्था में झील में जमा पानी एक साथ तीव्र वेग से नीचे के क्षेत्रों में पहुंचता है जिससे फ्लैश फ्लड या आकस्मिक बाढ़ आती है| ऐसी बाढ़ से जानमाल, संपत्ति और इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचता है|
अनुमान है कि दुनिया में कुल 215000 ग्लेशियर है, जिनमें से आधे से अधिक वर्ष 2100 तक पूरी तरह पिघल कर ख़त्म हो चुके होंगें| पिछली शताब्दी के दौरान औसत सागर तल में जितनी बढ़ोत्तरी हुई है, उसमें से एक-तिहाई योगदान ग्लेशियर के पिघलने से उत्पन्न पानी का है| जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि ग्लेशियर के पिघलने की दर बढ़ा रही है और इसके साथ ही ग्लेशियर झीलों की संख्या भी बढ़ रही है| वर्ष 2020 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में ग्लेशियर झीलों की संख्या में पिछले 30 वर्षों के दौरान 50 प्रतिशत से अधिक की बृद्धि हो गयी है| इस अध्ययन को उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर किया गया था| ग्लेशियर झील खतरनाक होती हैं क्योंकि कभी भी इनका किनारा टूट सकता है और निचले क्षेत्रों में भयानक तबाही ला सकता है|
नेचर कम्युनिकेशंस नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के 30 देशों की 9 करोड़ से अधिक आबादी लगभग 1089 ग्लेशियर झीलों के जल-ग्रहण क्षेत्र में बसती है| इसमें से लगभग डेढ़ करोड़ आबादी ग्लेशियर झीलों के जल-ग्रहण क्षेत्र के एक किलोमीटर दायरे में रहती है और इस आबादी पर ग्लेशियर झील के टूटने के बाद आकस्मिक बाढ़ का सबसे अधिक ख़तरा है| यह डेढ़ करोड़ आबादी दुनिया के महज 4 देशों में बसती है – भारत, पाकिस्तान, चीन और पेरू| इसमें से 90 लाख आबादी हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में है, जिसमें से 50 लाख से अधिक आबादी भारत के उत्तरी क्षेत्र और पाकिस्तान में है|
ग्लेशियर झीलों पर पहले भी अनेक अध्ययन किये गए हैं, पर यह पहला अध्ययन है जो यह बताता है कि ग्लेशियर झीलों के टूटने के बाद सबसे अधिक ख़तरा कहाँ हो सकता है| हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में ग्लेशियर झील के टूटने के बाद हजारों लोगों की मौत होती है और संपत्ति के साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर का भारी नुकसान होता है, जबकि अमेरिका के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में हिमालय की तुलना में दुगुनी ग्लेशियर झीलें हैं, पर वहां इनके टूटने पर अधिक नुकसान नहीं होता| पिछले वर्ष पाकिस्तान की अभूतपूर्व बाढ़ में ग्लेशियर झीलों का पानी भी शामिल था|
वैज्ञानिक जर्नल नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 1900 की तुलना में ग्लेशियर झीलों के बनने के क्षेत्रों की औसत ऊंचाई बढ़ रही है, ग्लेशियर झीलें पहले की तुलना में कुछ सप्ताह पहले ही बनने लगी हैं और अब ग्लेशियर झीलों में आने वाले पानी का आयतन कम हो रहा है| जाहिर है, ग्लेशियर झीलें अब पहले से अधिक खतरनाक हो गयी हैं क्योंकि पानी के अपेक्शाक्रिय कम आयतन में भी टूट सकती हैं| इस अध्ययन के लिए वर्ष 1900 के बाद से 1500 से अधिक ग्लेशियर झील के टूटने के बाद आई आकस्मिक बाढ़ से बहने वाले पानी का आयतन, सबसे अधिक बहाव, उनके समय और झील की समुद्र तल से औसत ऊंचाई का आकलन किया गया है| यह भी देखा गया है कि साल-दर-साल इनमें क्या अंतर आया है| इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ पाट्सडैम के वैज्ञानिक जॉर्ज वेह के नेतृत्व में किया गया है|
इस अध्ययन के अनुसार पिछले कुछ दशकों के दौरान ग्लेशियर झीलों की संख्या में तेजी आई है, पर अब इन झीलों में एकत्रित पानी का आयतन और इनके टूटने के बाद पानी के सर्वाधिक बहाव में वर्ष 1900 की तुलना में कमी देखी गयी है| ग्लेशियर झीलें वर्ष 1900 में साल के जिस समय बना करती थीं अब उस समय से कई हफ़्तों पहले ही झीलें बन जाती हैं| वर्ष 1900 की तुलना में हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में झीलें औसतन 11 सप्ताह पहले ही बन जाती हैं, जबकि यूरोपियन आल्प्स में 10 सप्ताह पहले और उत्तर-पश्चिम अमेरिका में यह समय 7 सप्ताह पहले का है| इसका सीधा सा मतलब यह है कि हिमालय के ऊपरी ग्लेशियर के क्षेत्रों में जो तापमान औसतन 11 सप्ताह बाद होता था, अब वही तापमान 11 सप्ताह पहले ही आ जाता है| इस अध्ययन के अनुसार एंडीज, आइसलैंड और उत्तरी ध्रुव के पास स्थित देशों में ग्लेशियर झीलों की समुद्र तल से ऊंचाई 250 से 500 मीटर से अधिक बढ़ गयी है|
काठमांडू स्थित इन्टरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट ने ऑस्ट्रेलिया वाटर पार्टनरशिप के साथ संयुक्त तौर पर मार्च 2024 में तीन रिपोर्ट प्रस्तुत कर बताया कि तापमान बृद्धि के प्रभावों का बेहतर तरीके से सामना करने के लिए दक्षिण एशिया की तीन प्रमुख नदियों – ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिन्धु – के सम्बन्ध में सम्बंधित देशों में परस्पर सहयोग और आपसी तालमेल को बढाने की तत्काल आवश्यकता है| यह मुद्दा लगभग एक अरब लोगों के पानी की सुरक्षा के साथ ही कृषि, ऊर्जा और उद्योग से भी जुड़ा है| दक्षिण एशिया का यह क्षेत्र आबादी के घनत्व के सन्दर्भ में दुनिया में सबसे घना है| एक बड़ी आबादी के पानी और खाद्यान्न सुरक्षा के साथ ही जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों को कम करने के लिए इन देशों को संयुक्त कार्ययोजना बनाने की जरूरत है जिसमें योजना, अनुसंधान, परस्पर सहयोग और आंकड़ों के साझा करने को शामिल किया जाना चाहिए| सतत ऊर्जा रणनीति, जलीय जीवन, जल सुरक्षा और आपदा प्रबंधन पर भी सहयोग की आवश्यकता है क्योंकि इस पूरे क्षेत्र पर परम्परागत तौर पर जनसंख्या का भारी दबाव रहा है और तापमान बृद्धि से समस्याएं विकराल होती जा रही हैं|
पानी की कमी से मध्य-पूर्व की 83 प्रतिशत आबादी और एशिया की 74 प्रतिशत आबादी जूझ रही है| वर्ष 2050 तक अफ्रीका में पानी की मांग 163 प्रतिशत और दक्षिण अमेरिका में 43 प्रतिशत तक बढ़ जायेगी| पानी के उचित प्रबंधन के लिए यदि वैश्विक जीडीपी का एक प्रतिशत प्रतिवर्ष खर्च किया जाए तब इसकी कमी से छुटकारा पाया जा सकता है, पर इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है और वैश्विक जीडीपी में पानी की कमी के कारण 7 से 12 प्रतिशत प्रतिवर्ष का नुकसान उठाना पड़ रहा है| दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और वैश्विक स्तर पर नदियों के बहाव में अंतर आ रहा है| नदियों में पानी की कमी से पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है और समाज में अस्थिरता बढ़ रही है|