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31-03-2025 Vol 19

सदन के सामने से कतराते हमारे जनप्रतिनिधि…!

parliament session 2025 : आजादी की हीरक जयंति के दौरान देश के इस मसले पर गंभीर चिंतन करना चाहिए कि क्या आजादी के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वाले या जानलेवा संघर्ष करने वाले हमारे राष्ट्रभक्त पूर्वजों की मोहक कल्पनाओं पर हम खरे उतर रहे है?

या उनके सपनों में रंग भरनेे का तनिक भी प्रयास कर रहे है? यह एक ऐसा मुद्दा है जो हमें निराश ही करने वाला है, क्योंकि देश व देशवासियों को उनकी पारिवारिक उलझनों में उलझा कर स्वार्थ सिद्ध करने वालों का आज बाहुल्य हो गया है, आज की राजनीति का जनसेवा से दूर का भी सम्बंध नहीं रहा।

आज राजनीति ने एक व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है, जो कम समय में अधिक लाभदायक सिद्ध हो रही है, इसीलिए आज राजनीति एक महत्वपूर्ण आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है, आज युवा वर्ग का रूझान इसी ‘‘हींग लगे न फिटकरी, रंग चौखा होय’’ की ओर आधिक है।

….और राजनीति से लोकसेवा की भावना खत्म हो जाने से यह व्यवसाय सभ्य समाज में ‘गाली’ बनता जा रहा है। (parliament session 2025)

इधर उधर की जुगाड़ लगाकर साधारण सरकारी नौकरी पाने वाला एक युवक खून पसीना बहाने के बाद भी पूरे महीनें में इतना नहीं कमा पाता, जितना राजनीति में लिप्त एक युवा एक दिन में अपनी काली कमाई एकत्र कर लेता है।

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संसदीय प्रणाली की गिरती साख और राजनीतिक स्वार्थ (parliament session 2025)

….और यदि यही राजनीतिक युवा जोड़-तोड़ करके चुनाव जीत कर सांसद या विधायक बन जाता है तो फिर उसकी सात पीढि़यों को किस भी प्रकार की कोई चिंता करने की जरूरत नहीं, क्योंकि फिर उसका बहुमूल्य समय संसद या विधानसभा के सदनों में कम बाहर की आर्थिक जोड़-तोड़ में ज्यादा खर्च होता है। (parliament session 2025)

आज की यह भी एक महान समस्या सामने आ रही है, जिसके तहत हमारे प्रजातंत्र की संसदीय पद्धति बदनामी के शिखर को छूने की तैयारी कर रही है, आज हमारे जन प्रतिनिधि संसद या विधानसभाअें की सदस्यता या उसके माध्यम से जनसेवा के लिए ग्रहण नहीं करते, बल्कि सदन के बाहर की राजनीतिक ‘दादागिरी’ के लिए चुनते है, (parliament session 2025)

आज इसीलिए हमारी संसदीय प्रणाली अपने मूल उद्देश्यों को हासिल करने में अयोग्य साबित हो रही है, और इसी कारण आज हमारी संसद व विधानसभाओं की निर्धारित दिवसों की संख्या पूरी नही हो पाती, सत्र जितनी अवधि के लिए आहूत किए जाते है, उससे आधी अवधि तक भी चल नही पाते और लोक महत्व के विधेयकों या विषयों पर सदनों में चर्चा ही नहीं हो पाती और मतदाताओं की उम्मीदें अपेक्षाएं धवस्त हो जाती है।

ऐसा कब तक चलेगा?

आज की सबसे अहम् समस्या यही है, राज्यों व देश के बजट के आकार में बेतहाशा वृद्धि होती जा रही है और प्रजातंत्र के मंदिरों (संसद विधानसभा) में पूजा की अवधि लगाकर कम होती जा रही है

अर्थात् अब लोकतंत्र के मंदिर सिर्फ दिखावे के लिए ही रह गए है, इनमें विराजित ‘देवता’ के प्रति न कोई आस्था शेष रही और न ही विश्वास। (parliament session 2025)

आज तो यह आम चलन ही हो गया है कि सत्र बुलाए जाते है लम्बी अवधि के लिए और फिर खत्म हो जाते है अल्पावधि में ही, न सत्र चलाने वालों की अब इनमें कोई दिलचस्पी बची है और न ही सत्र में शामिल होने वालों की।

यद्यपि आज इस महत्वपूर्ण मसले पर गंभीर चिंतन करने का वक्त प्रजातंत्र के किसी भी अंग के पास नही है, किंतु सबसे अहम् चिंताजनक सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलेगा?

और यदि यही चलता रहा तो हमारे प्रजातंत्र का भविष्य क्या होगा? आज हमारे भारतीयों के खून-पसीनें से कमाई और विभिन्न करों के रूप में सरकार द्वारा वसूली जा रही राशि राजनेताओं की रंग-रैलियों व फालतू कामों पर खर्च की जा रही है (parliament session 2025)

इस पर निगरानी रखने वाला दर्शक दीर्घा में जाकर बैठ गया है, ऐसे में इस देश का क्या होगा? आज यही सबसे बड़ी चिंता का सवाल है, जिसका जवाब किसी के पास भी नही है, चिंतित है तो केवल चिंताग्रस्त परेशान नागरिकों या बुद्धिजीवी?

ओमप्रकाश मेहता

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