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09-03-2025 Vol 19

वोटों की भीख मांगने वाले, वोटर को भिखारी बता रहे…?

भोपाल। अब इसे हम प्रजातंत्र पद्धति का दोष कहे या हमारे ‘माननीयों’ की समझ की कमी, जो राजनेता हर पांच साल में मतदाताओं से घर-घर जाकर मतों की भीख मांगते है, वे ही कुर्सी पर आसीन हो जाने के बाद कह रहे है कि- ‘‘लोगों को सरकार से भीख मांगने की आदत पड़ गई है।’’ यह किस्सा मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले के सुठालिया ग्राम का है, जहां मध्यप्रदेश के एक वरिष्ठ मंत्री ने जनता के मांग पत्रों को ‘भीख’ की संज्ञा दी, वीरांगना अवंती बाई लोधी की प्रतिमा का अनावरण करने के बाद वहां उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए मंत्री जी ने कहा कि- ‘‘अब तो लोगों की सरकार से भीख मांगने की आदत सी पड़ गई है, नेता आते है और उन्हें टोकना भर के मांगपत्र मिल जाते है, माला पहना देगें और एक मांगपत्र पकड़ा देगें, यह अच्छी आदत नही है, लेने के बजाए देने का मानस बनाए, यह भिखारी की फौज इकट्ठी करना, समाज को मजबूत करना नही है, समाज को कमजोर करना है, मुफ्त की चीजों के प्रति जितना आकर्षण रखते है, यह वीरांगनाओं का सम्मान नही है।’’

अब सवाल यह पैदा होता है कि ये हमारे माननीय नेता कुछ ही दिनों पूर्व का अपना अतीत क्यों भूल जाते है? जब वे स्वयं इन कथित भिखारी मतदाताओं के सामने वोटों की भीख मांगने गए थे? इन सब प्रसंगों को देख-सुनकर क्या ऐसा नही लगता कि आजादी के पचहत्तर साल बाद अब प्रजातंत्र के दोष सामने आ रहे है? और प्रजातंत्र को दीर्घायु बनाने के लिए इन दोषों को खत्म करना अब जरूरी हो गया है? यद्यपि अपनी पारिवारिक समस्याओं में उलझे देश के आम नागरिकों के पास इन मसलों पर विचार करने का समय नही है, किंतु अब सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामलों में काफी मुखर हो गई है, पिछले दिनों ही एक याचिका पर विचार के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा था कि- ‘‘मुफ्त में चीजें देने की चुनावी ‘रेवडि़यां’ लोगों को अकर्मण्य बना रही है, न्यायालय ने पूछा कि ‘‘राष्ट्रीय विकास के लिए लोगों को मुख्य धारा में लाने के बजाए क्या हम परजीवियों की एक फौज खड़ी नही कर रहे है? आज लोग काम करने को तैयार ही नही है, क्योंकि उन्हें मुफ्त राशन और पैसा मिल रहा है, अब हर चुनाव के पूर्व की यह परम्परा ही बन गई है।’’

अब चिंता का मुख्य मुद्दा यह है कि देश में प्रजातंत्र की हीरक जयंति के दौरान उसके ये दोष उभर कर सामने क्यों आ रहे है? क्योंकि हमने प्रजातंत्र का सही अर्थ ही इतनी लम्बी अवधि में नही समझा और प्रजातंत्र की परिभाषा ‘‘जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा’’ को ही अपने स्वार्थ में गलत परम्परा से जोड़ दिया, हमने प्रजातंत्र का मूल तत्व को सही अर्थों में समझने का इतनी लम्बी अवधि में भी प्रयास तक नही किया, हम हर जगह अपना स्वार्थ खोजते रहे और वही परम्परा आज भी जारी है।

यदि निर्पेक्ष भाव से प्रजातंत्र के बाद से हमारी भूमिका को देखा जाए तो हमें निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि हम आजादी के स्वार्थ से जोड़कर देखने लगे और आजादी दिलाने वालों के साथ इसके सही भावार्थ को भी समझ नही सके, इसीलिए आज प्रजातंत्र एक ढकोसला मात्र बनकर रह गया है, जिसकी परिणति अंग्रेज शासनकाल से भी बदत्तर नजर आ रही है, आज जैसे-तैसे कुर्सी पा जाने वाले नेता अपने आपको ‘भगवान’ से कम नही समझते और कुर्सी पाने के बाद उन्हें कुर्सी तक पहुंचाने वाले को ‘याचक’ से अधिक नही समझते।
यह कुछ हमारे प्रजातंत्र में आई कुछ विषमताऐं है, जिन्हें उजागर करने की मैंने हिम्मत जुटाई है, आज भीख मांगने वाला ‘राजा’ बन गया है और भीख देने वाले ‘भिखारी’ आज के प्रजातंत्र का यही दुर्भाग्य है।

इसलिए यह एक गंभीर चिंतन का विषय है, जिस पर समय रहते गंभीर चिंतन कर इस परम्परा को खत्म करने का प्रजातंत्र की मजबूती व दीर्घायु के लिए आज की प्राथमिक आवश्यक है।

ओमप्रकाश मेहता

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