भोपाल। भारतीय प्रजातंत्र का महल तीन स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर खड़ा है, चैथा स्वयं भू-स्तंभ खबर पालिका भी इसे सहारा देने का दावा करती रही है। किंतु आज जब हमारा प्रजातंत्र उम्रदराज हो चुका है और आठवें दशक के समापन की ओर बढ़ रहा है, ऐसे में इसके स्तंभों में आपसी टकराव की स्थिति निर्मित हो रही है और इसे कमजोर कर इसे खंडहर में परिवर्तित करने के प्रयास किए जा रहे है, जबकि हमारे संविधान ने पहले से ही स्तंभों के कर्तव्य और अधिकार की सीमा रेखा तय कर रखी है। किंतु अब इन तीनों ही स्तंभों में धीरे-धीरे स्वेच्छाचारिता बढ़ती जा रही है और इन्होंने अपनी सीमा रेखा के उल्लंघन की तैयारीयां शुरू कर दी है। इसका ताजा उदाहरण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यपालों की शक्ति सीमा तय करने का प्रयास है। ….और यही नही सर्वोच्च न्यायालय के तो राज्यपाल के अधिकारों पर अतिक्रमण कर तमिलनाडू के राज्यपाल के पास लम्बित दस अधिनियमों बिल को (मंजूरी) भी दे दी।
भारतीय प्रजातंत्र के अब तक के इतिहास में शायद यह पहला अवसर है, अब इंदिरा जी के आपातकाल में क्या-क्या हुआ? उसे यदि एक तरफ रखकर मौजूदा माहौल में देखा जाए तो तमिलनाडू के लम्बित अधिनियमों की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मंजूरी एक विष्मयकारी घटना है। इस घटना के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय यही तक सीमित नही रहा उसने राज्यपाल को कई तरह की कानूनी सीख भी दे दी और कहा कि- राज्यपाल किसी राजनीतिक दल विशेष के प्रतिनिधि नही बन सकते साथ ही देश के सभी राज्यपालों को सीख देते हुए कहा कि- राज्यपालों को एक से तीन महीनों का समय सीमा मेें बिल पर फैसला लेना होगा, वे इससे ज्यादा अवधि तक बिलों को अपने पास लम्बित नही रख सकते। साथ ही यदि राज्यपाल जनता की इच्छा के विरूद्ध काम करते है तो यह शपथ का उल्लंघन माना जाएगा।
शायद प्रदेशों के सर्वोच्च सत्ताशीर्ष के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय की इतनी सख्त टिप्पणी पहली बार आई है। अब ऐसी स्थिति में यहां यह भी याद दिलाना जरूरी है कि देश के आधा दर्जन से अधिक राज्यों में मौजूदा सरकारों व राज्यपालों के बीच तीखी तकरार चल रही है, जिनमें पंजाब, तमिलनाडू, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल प्रमुख है। इस विवाद की मुख्य वजह यह है कि अब यह आम परिपाटी बन गई है कि किसी भी राजनेता के राज्यपाल बना दिए जाने के बाद भी उसका जुड़ाव उसके सम्बंधित राजनीतिक दल व उसके नेताओं के साथ ही होता है और वह संविधान के नियम-कानूनों को भूलकर एक राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह ही राज्यपाल की भूमिका में होता है।
इससे प्रदेश की जनता, संविधान व कानूनी मर्यादाओं का ठीक से परिपालन नही हो पाता और राजभवन एक राजनीतिक दल विशेष का कार्यालय बनकर रह जाता है। आज देश के कई राजभवन इसके साक्षात उदाहरण बने हुए है। शायद इसी विकट स्थिति को देखते हुए इसके भविष्य की कल्पना कर सर्वोच्च न्यायालय को यह कदम उठाने को बाध्य होना पड़ा है, पर अब मुख्य सवाल यह है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय भी इस संवैधानिक महारोग का माकूल इलाज खोज पाएगा? या प्रजातंत्र की उसकी उम्र के आठवें दशक में ही अकाल मौत हो जाएगी?