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25-04-2025 Vol 19

उग्र कुल देवियों का स्वरूप

देवी सौम्य, सौम्य उग्र तथा उग्र तीन रूपों में अवस्थित हैं तथा स्वभाव के अनुसार दो कुल में विभाजित हैं- काली कुल तथा श्री कुल। अपने कार्य तथा गुण के अनुसार देवी अनेकों अवतारों में प्रकट हुई। .. भगवान विष्णु के अन्तःकरण की संहारक शक्ति साक्षात महाकाली ही हैं, जो नाना उपद्रवों में उनकी सहायता कर दैत्यों, राक्षसों का वध करती हैं। प्रकारांतर से देवी के दो भेद हैं- दक्षिणा काली तथा  महाकाली।

शाक्त मतानुसार जगत पालक भगवान विष्णु के अन्तःकरण की शक्ति सर्वस्वरूपा योगमाया आदिशक्ति महामाया हैं तथा वे ही प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से संपूर्ण ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति, स्थिति तथा लय की कारण भूता हैं। त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की उत्पत्ति इन्हीं के अनुसार हुई हैं। सृष्टि के सुचारु संचालन हेतु विष्णु को पालनहार, ब्रह्मा को रचनाकार, तथा शिव को संहारक पद महामाया आद्याशक्ति द्वारा ही प्राप्त हैं। त्रिदेव क्रमशः तीन प्राकृतिक गुणों -सत्व गुण, रजो गुण तथा तमो गुण के कारक बने। संपूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन इन्हीं गुणों के द्वारा ही होता हैं, परंतु इन कार्यों की इच्छा शक्ति, आदि शक्ति की आधारभूत शक्ति हैं।

त्रिदेवों के अनुसार ही इनकी जीवन संगिनी त्रिदेवियां भी इन कार्यों में संलग्न रहती हुई अपने-अपने स्वामी की शक्तियां हैं। त्रिदेवियां अर्थात महादेवियां- महालक्ष्मी, महासरस्वती तथा पार्वती सती के रूप में त्रिदेवों की जीवन संगिनी तथा सहायक हैं। महालक्ष्मी के रूप में ये भगवान विष्णु की सात्विक शक्ति हैं। महासरस्वती के रूप में ये ब्रह्मा की राजसिक शक्ति हैं तथा पार्वती-सती के रूप में ये शिव की तामसी शक्ति हैं।

साक्षात आदिशक्ति महामाया ही शिवा स्वरूपी शिव अर्द्धांगिनी पार्वती एवं सती हैं और तामसी संहारक शक्ति होने के कारण  समय-समय पर भयंकर रूप धारण करती हैं। परंतु उनका भयंकर रूप, केवल दुष्टों के लिए ही भय उत्पन्न करने वाला तथा विनाशकारी हैं। देवी सौम्य, सौम्य उग्र तथा उग्र तीन रूपों में अवस्थित हैं तथा स्वभाव के अनुसार दो कुल में विभाजित हैं- काली कुल तथा श्री कुल। अपने कार्य तथा गुण के अनुसार देवी अनेकों अवतारों में प्रकट हुई।

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उल्लेखनीय है कि देवी के सभी रूप भयानक नहीं हैं, बल्कि सौम्य स्वरूप में देवी कोमल स्वभाव वाली हैं। सौम्य उग्र स्वरूप में देवी कोमल और उग्र अर्थात सामान्य स्वभाव वाली हैं तथा उग्र रूप में देवी अत्यंत भयानक हैं। महादेवियां, दस महाविद्या, योगिनियां, डाकिनियां, पिशाचनियां, भैरवी इत्यादि महामाया आदिशक्ति के नाना अवतार हैं। सभी केवल गुण एवं स्वभाव से भिन्न-भिन्न हैं। काली कुल की देवियां प्रायः घोर भयानक स्वरूप तथा उग्र स्वभाव वाली होती हैं तथा इन का सम्बन्ध काले या गहरे रंग से होता हैं, इसके विपरीत श्री कुल की देवियां सौम्य तथा कोमल स्वभाव की तथा लाल रंग या हलके रंग से संबंधित होती हैं।

काली कुल की देवियों में महाकाली, तारा, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी हैं, जो स्वभाव से उग्र हैं। परंतु इनका स्वभाव दुष्टों के लिए ही भयानक हैं। श्री कुल की देवियों में महात्रिपुरसुंदरी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला हैं। देवी धूमावती को छोड़ कर सभी सुन्दर रूप तथा यौवन से संपन्न हैं। इस प्रकार महाकाली, तारा, श्री विद्या महात्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला, मिलकर दस महाविद्या समूह का निर्माण करती हैं। इनमें से प्रत्येक देवियां भिन्न-भिन्न प्रकार के शक्तियों तथा ज्ञान से परिपूर्ण हैं, उन शक्तियों की अधिष्ठात्री हैं।

पौराणिक मान्यतानुसार अपने भैरव महाकाल की छाती पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी, घनघोररूपा महाशक्ति महाकाली के नाम से विख्यात हैं। वास्तव में देवी महाकाली साक्षात महामाया आदिशक्ति ही हैं। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व सर्वत्र अंधकार ही अंधकार से उत्पन्न शक्ति, आद्याशक्ति अथवा आदिशक्ति काली नाम से विख्यात हैं। अंधकार से जन्मी होने के कारण देवी काले वर्ण वाली तथा तामसी गुण सम्पन्न हैं। इनकी इच्छा शक्ति ने ही इस संपूर्ण चराचर जगत को उत्पन्न किया हैं तथा समस्त शक्तियां प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से इनकी ही अनेक शक्तियां हैं।

असुरों से प्रताड़ित देवताओं द्वारा सहायतार्थ महामाया की स्तुति करने पर साक्षात आदिशक्ति ही पार्वती के शरीर से कौशिकी रूप में प्रकट हुई थीं। प्रलय काल में देवी स्वयं मृत्यु के देवता महाकाल का भी भक्षण करने में समर्थ हैं। देखने में महाशक्ति महाकाली अत्यंत भयानक एवं डरावनी हैं। देवी स्वभाव से ही दुष्ट असुरों के रक्त की धार बहते हुए तत्काल कटे हुए मस्तकों की माला धारण करती हैं। इनके दंतपंक्ति अत्यंत विकराल हैं। मुंह से निकली हुई जिह्वा को देवी ने अपने भयानक दंतपंक्ति से दबाये हुए हैं। अपने भैरव या स्वामी के छाती में देवी नग्नावस्था में खड़ी हैं।

कुछ एक रूपों में देवी दैत्यों के कटे हुए हाथों की करधनी धारण करती हैं। देवी महाकाली चार भुजाओं से युक्त हैं। अपने दोनों बाएं हाथों में खड़ग तथा दुष्ट दैत्य का तत्काल कटा हुआ सिर धारण करती हैं जिससे रक्त की धार बह रहीं हो तथा बाएं भुजाओं से सज्जनों को अभय तथा आशीर्वाद प्रदान करती हैं।

इनके बिखरे हुए लम्बे काले केश अत्यंत भयानक प्रतीत होते हैं, जैसे कोई भयानक आंधी के काले विकराल बादल समूह हो। देवी तीन नेत्रों से युक्त हैं तथा बालक शव को देवी ने कुंडल रूप में अपने कान में धारण कर रखा हैं। देवी रक्त प्रिया तथा महाश्मशान में वास करने वाली हैं। देवी ने ऐसा भयंकर रूप रक्तबीज के वध हेतु धारण किया था।

इस चराचर जगत के पालन कर्ता एवं सत्व गुण सम्पन्न भगवान विष्णु के अन्तःकरण की संहारक शक्ति साक्षात महाकाली ही हैं, जो नाना उपद्रवों में उनकी सहायता कर दैत्यों, राक्षसों का वध करती हैं। प्रकारांतर से देवी के दो भेद हैं- दक्षिणा काली तथा  महाकाली। महाकाली ने हयग्रीव नामक दैत्य के वध हेतु नीला शारीरिक वर्ण धारण किया था। देवी का वह उग्र स्वरूप उग्रतारा के नाम से विख्यात है।

प्रकाश बिंदु रूप में आकाश के तारे के समान विद्यमान होने के कारण देवी तारा नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी तारा ही लंकेश रावण का वध करने वाले भगवान श्रीराम की विध्वंसक शक्ति हैं। महाविद्या तारा मोक्ष प्रदान करने तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटों से मुक्ति प्रदान करने वाली महाशक्ति हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध मुक्ति से हैं, फिर वह जीवन और मरण रूपी चक्र से हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु।

भगवान शिव द्वारा समुद्र मंथन के समय हलाहल विष पान करने पर उनके शारीरिक पीड़ा के निवारण हेतु देवी तारा ने माता की भांति भगवान शिव को शिशु रूप में परिणत कर अपना अमृतमय दुग्ध स्तन पान कराया था। फलस्वरूप शिव को उनकी शारीरिक पीड़ा जलन से मुक्ति मिली थीं। तारा जगत जननी माता के रूप में एवं घोर संकटों से मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई।

हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव देवी के भैरव हैं। मोक्ष प्राप्ति हेतु देवी की आराधना, साधना मुख्यतः तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में यत्र- तत्र- प्रशस्त समस्त ज्ञान इन्हीं देवी तारा या नील सरस्वती के स्वरूप ही हैं। देवी का निवास स्थान घोर महाश्मशान हैं। देवी ज्वलंत चिता में रखे हुए शव के ऊपर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किए नग्न अवस्था में खड़ी हैं। कहीं-कहीं देवी बाघाम्बर भी धारण करती हैं। नर खप्परों तथा हड्डियों की मालाओं से अलंकृत हैं तथा इनके आभूषण सर्प हैं। तीन नेत्रों वाली देवी उग्रतारा स्वरूप से अत्यंत भयानक प्रतीत होती हैं।

महाविद्याओं में तृतीय स्थान पर श्रीकुल की देवी श्री विद्या महात्रिपुरसुंदरी हैं, लेकिन चतुर्थ स्थान पर काली कुल की देवी तीनों लोक स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल की ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी प्रतिष्ठित हैं। अपने नाम के अनुसार देवी त्रिभुवन या त्रिलोकों की स्वामिनी हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दायित्व भुवनेश्वरी देवी का हैं। यही कारण है कि देवी जगन माता तथा जगतधात्री नाम से भी विख्यात हैं। चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण पंच तत्व-आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि, जल, से होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तिओं द्वारा संचालित होता है।

पंच तत्वों को इन्हीं ने निर्मित किया है। देवी के इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड अर्थात त्रिलोक के समस्त तत्वों का निर्माण होता है। महाविद्या भुवनेश्वरी साक्षात प्रकृति स्वरूपा हैं। इनकी तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं। भुवनेश्वरी शिव के समस्त लीला विलाश की सहचरी हैं, सखी हैं। देवी नियंत्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिए दंड का विधान भी करती हैं। इनकी भुजा में सुशोभित अंकुश नियंत्रक का प्रतीक है, जो विश्व को वामन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्म नियंत्रक, जीवों को दण्डित करने के परिणामस्वरूप रौद्री,प्रकृति निरूपण करने के कारण मूल-प्रकृति कही जाती हैं।

भगवान शिव का वाम भाग देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता है और सदा शिव को सर्वेश्वर होने की योग्यता इनके संग होने से ही प्राप्त हैं। देवी भुवनेश्वरी सौम्य तथा अरुण के समान अंगकांति युक्त युवती हैं। देवी के मस्तक पर अर्द्ध चन्द्र सुशोभित है और तीन नेत्र हैं। मुखमंडल मंद-मंद मुस्कान की छटा युक्त हैं। देवी चार भुजाओं से युक्त हैं, दाहिने भुजाओं से देवी अभय तथा वर मुद्रा प्रदर्शित करती हैं तथा बाएं भुजाओं में पाश तथा अंकुश धारण करती हैं। देवी अनेक प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त विभिन्न अलंकार धारण करती हैं। दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त हो सभी  देवताओं ने हिमालय पर जाकर भुवनेश्वरी देवी की ही स्तुति की थीं।

शताक्षी रूप में इन्होंने ही पृथ्वी के समस्त नदियों, जलाशयों को अपने अश्रुजल से भर दिया था। शाकम्भरी रूप में देवी ही अपने हाथों में अनेक शाक, मूल इत्यादि खाद्य द्रव्य धारण कर प्रकट हुई तथा सभी जीवों को भोजन प्रदान किया। अंत में देवी ने दुर्गमासुर दैत्य का वध कर तीनों लोकों को उसके अत्याचार से मुक्त किया तथा दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई।

महाविद्याओं की श्रेणी में पांचवें स्थान पर काली कुल की देवी महाविद्या छिन्नमस्ता अवस्थित हैं। छिन्नमस्ता शब्द दो शब्दों के योग से बना हैं- छिन्न और मस्ता। छिन्न का अर्थ है-अलग अथवा पृथक तथा मस्ता का अर्थ है- मस्तक। अर्थात जिनका मस्तक देह से अलग हैं, वे छिन्नमस्ता कहलाती हैं। देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर अपने अन्य हाथ में धारण की हुई हैं।

मस्तक कट जाने के पश्चात भी देवी जीवित हैं, यह देवी की श्रेष्ठ योग साधना का परिचायक है। छिन्नमस्ता योग साधना के उच्चतम स्तर पर अवस्थित हैं। देवी प्रचंड चंडिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं, जो अत्यंत उग्र स्वभाव वाली हैं। देवी का यह स्वरूप घोर डरावना, भयंकर तथा उग्र है।

देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप अन्य समस्त देवी-देवताओं से भिन्न है। देवी स्वयं ही तीनों गुण सात्विक, राजसिक तथा तामसिक का प्रतिनिधित्व करती हैं। त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड इस चक्र पर टिका हुआ है। सृजन तथा विनाश का संतुलित होना ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यंत आवश्यक हैं। देवी छिन्नमस्ता की आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं।

बौद्ध धर्म में देवी छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं। वासना से नूतन जीवन की उत्पत्ति तथा अंततः मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं। देवी स्वनियंत्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणामस्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति, आत्मनियंत्रण, बढ़ती इच्छा पर नियंत्रण की प्रतीक हैं। छिन्नमस्ता योग अभ्यास के पर्यन्त इच्छाओं के नियंत्रण और यौन वासना के दमन का प्रतिनिधित्व करती हैं।

छिन्नमस्ता के अत्यंत ही गोपनीय स्वरूप को कोई सिद्ध पुरुष ही जान सकता हैं। देवी के कटे हुए गले से रक्त की तीन धाराएं  निकल रही हैं, जिनमें से देवी एक धार से स्वयं रक्तपान कर रहीं हैं तथा अन्य दो धाराएं इन्होंने अपने सखी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान कर रखी हैं। इनके साथ इनकी दो सखी सहचरी डाकिनी तथा वारिणी हैं, जिनके क्षुधा निवारण हेतु ही देवी ने अपने ही खड्ग से स्वयं अपने मस्तक को अलग कर दिया।

देवी कामदेव तथा रति के ऊपर विराजमान हैं, यहाँ वे काम या अत्यधिक अनावश्यक वासनाओं से उत्पन्न विनाश को प्रदर्शित कर रहीं हैं। देवी के आभूषण सर्प हैं। देवी तीन नेत्रों से युक्त तथा मस्तक पर अर्द्ध चन्द्र धारण करती हैं तथा इन्होंने नरमुंडो की माला धारण कर रखी हैं।

Pic Credit: ANI

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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