bihar assembly election : कांग्रेस ने बिहार में पहले दलित को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। फिर बिहार की राजनीतिक परिस्थितियों के मुताबिक राजद से गठबंधन में चुनाव लड़ने का फैसला किया।
इस घोषणा के होते ही गोदी मीडिया को कैसा सांप सूंघ गया। खबर तक नहीं दी। फिर बीजेपी ने डांट लगाई तो उठकर अब बताने लगे है कि इससे कांग्रेस को क्या क्या नुकसान होगा!…. मीडिया भाजपा को माई बाप मानता है और कांग्रेस को गरीब की जोरू।
बिहार में कांग्रेस सही जा रही है। पहले उसने अपनी पार्टी मजबूत करने की प्रक्रिया शुरू की। और फिर बहुत सही समय पर राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। वह साथ मिलकर क्यों लड़ रही है? (bihar assembly election)
इसके बहुत सारे जवाब हो सकते हैं। मगर एक सबसे मजबूत जवाब, राजनीतिक यह है क्योंकि भाजपा चाहती थी कि कांग्रेस अलग चुनाव लड़े। पंडितजी कहते थे कि जिस दिशा में संघ जाने की बात करे उसकी उल्टी दिशा में जाओ। पंडितजी मतलब पं. नेहरु।
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भाजपा की कोशिशें असफल हो गईं। तो आपने देखा की सबसे बड़ी राजनीतिक खबर न तो टीवी में चली और न ही अखबारों में। असफल मीडिया भी हुई।
मगर उसके लिए अपनी सफलता असफलता, सम्मान अपमान अब कुछ मायने नहीं रखता है। मालिक का फायदा नुकसान ही सब कुछ है। मालिक याने मीडिया के स्वामित्व वाला मालिक नहीं। उनके भी मालिक। (bihar assembly election)
मीडिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए ही काम करता है। त्वमेव माता च पिता त्वमेव …! उसकी पूरी कोशिश थी कि बिहार में कांग्रेस और राजद अलग-अलग लड़ें।
ताकि गरीब कमजोर पिछड़ा दलित मुसलिम वोटों का बंटवारा हो और भाजपा के पहले मुख्यमंत्री की उम्मीद बने। और बिहार में तो पिछड़ा और दलित का नीतीश कुमार ने और विभाजन कर रखा है। अति पिछड़ा, अति दलित। और मुस्लिम में भी। पसमांदा ( पिछड़ा) और अशराफ ( उच्च जाति वर्ग)।
यह विभाजन करके नीतीश ने अपना एक अलग समर्थक वर्ग बना लिया था। इसी के दम पर उन्होंने बिहार में सबसे अधिक समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री का रिकार्ड बना लिया है। पहली बार मार्च 2000 में बने थे। (bihar assembly election)
और बीच में कुछ समय नहीं भी रहे, इधर उधर जाकर भी मुख्यमंत्री बने और आज जब यह लिख रहे हैं तब भी हैं। 25 साल हो गए।
वजह वही उनका बनाया अति पिछड़ा, अति दलित और पसमांदा मुस्लिम। करीब 16 प्रतिशत का यह वोट बैंक नीतीश का स्थाई आधार है। बाकी इतने बड़े जनाधार के साथ काफी कुछ फ्लोटिंग वोट भी उनके साथ आ जाता है। (bihar assembly election)
मुस्लिम सबसे ज्यादा खुश है (bihar assembly election)
अब मानसिक रूप से कमजोर होने के बाद उनका वोट बैंक साथ रहना मुश्किल है। 2025 का बिहार चुनाव किसकी तरफ झुकेगा कहना बहुत मुश्किल है। मगर एक बात गारंटी के साथ कही जा सकती है।
वह यह कि 2025 बिहार विधनसभा का चुनाव नीतीश कुमार के लिए वाटरलू साबित होगा। उनकी राजनीति खत्म हो जाएगी। पार्टी भी। कमजोर मानसिक स्वास्थ्य के साथ कोई अपनी पार्टी का नेतृत्व नहीं कर सकता। कर तो राज्य का भी नहीं सकता। मगर वहां अधिकारी होते हैं।
कुछ समय के लिए (छह महीने बाद चुनाव हैं) चला सकते हैं। मगर पार्टी में तो कोई दूसरा है ही नहीं। बेटे जयंत के आने की बात हुई थी। वह सार्वजनिक रूप से दिखे भी। बोले भी। मगर उन्हें स्थापित करने वाला कोई दिख नहीं रहा। bihar assembly election)
जेडीयू में जो भी नीतीश के बाद तीन चार प्रमुख लोग हैं उनकी लायल्टी नीतीश के साथ नहीं भाजपा के साथ है। ऐसे में चुनाव तक खुद नीतीश का मानसिक स्वास्थ्य जो राष्ट्रगान से लेकर विधानसभा तक में कई जगह बिगड़ा दिख चुका है वह और खराब स्थिति तक जा सकता है। और इसी के साथ पार्टी का स्वास्थ्य भी गिरता जाएगा।
तो यह बिहार की राजनीति में एक बड़ा संक्रमण काल है। भाजपा इसे एक अवसर बनाना चाह रही थी। जिसे कांग्रेस ने असफल कर दिया। अगर चने के झाड़ पर चढ़ जाते तो अपने साथ राजद को भी ले डूबते। (bihar assembly election)
भाजपा का पहला मुख्यमंत्री पक्का था। जो पहले लिखा है कि गरीब कमजोर का वोट बंट जाता, कांग्रेस और राजद में। और भाजपा जीत जाती। दूसरा जो नीतीश का वोट टूट रहा है वह भी कांग्रेस और राजद के अलग अलग लड़ने पर इन दोनों के बीच बंटता भी और बीजेपी की तरफ भी घूम जाता।
और तीसरा सबसे बड़ी मुस्लिम जो करीब 18 प्रतिशत है वह विभाजित हो जाता। कांग्रेस और राजद के बीच यह वोट बंटना ही भाजपा की जीत में निर्णायक साबित होता। मुस्लिम सबसे ज्यादा खुश है कि उसे कांग्रेस ने धर्मसंकट में नहीं डाला। (bihar assembly election)
2010 का ही मामला देख लीजिए
2010 में कांग्रेस राजद से अलग लड़कर देख चुकी है। उस समय उसका स्वर्ण काल था। 2009 के लोकसभा में वह 200 से उपर सीटें लेकर 2004 के मुकाबले बहुत कम्फर्टेबल पोजिशन में आई थी। (bihar assembly election )
मगर अकेले लड़कर वह 2010 विधानसभा में अपनी सबसे कम सीटों केवल चार पर आ गई थी। फिर 2015 विधानसभा में साथ लड़ी। 27 ले आई। और 2020 में 19।
मुख्य सवाल है कि पिछले 35 साल में कांग्रेस ने बिहार में खुद को मजबूत बनाने के लिए किया क्या? कुछ नहीं। और नुकसान पहुंचाने के लिए बहुत कुछ। (bihar assembly election)
2010 का ही मामला देख लीजिए। प्रदेश अध्यक्ष थे अनिल शर्मा और इन्चार्ज थे जगदीश टाइटलर। दोनों इस तरह लड़ रहे थे जैसे अभी हरियाणा में कांग्रेस के नेता लड़े। विधानसभा हरवा के ही माने।
ऐसे ही टाइटलर और अनिल शर्मा के बीच तब तक द्वंद चला जब तक कि कांग्रेस अपने इतिहास की न्यूनतम 4 सीट पर नहीं आ गई। जैसे अभी हरियाणा में कांग्रेस नेतृत्व कुछ नहीं कर पाया वैसे ही बिहार में कोई फैसला नहीं लिया। यही कहानी 35 साल से चल रही थी। (bihar assembly election)
मगर इस बार पहली बार समय रहते पहले इन्चार्ज मोहन प्रकाश को हटाया। और फिर प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह को। नए इन्चार्ज कृष्णा अल्लावरु में कुछ कर दिखाने का जज्बा दिख रहा है। किसी गुट के नहीं है।
गठबंधन में क्या क्या बाधाएं आएंगी!
सीधे राहुल गांधी से नजदीकी है इसलिए बेहिचक फैसले कर रहे हैं। पहला काम दलित को प्रदेश अध्यक्ष बनवाकर किया। और फिर दूसरा बिहार की राजनीतिक परिस्थितयों के मुताबिक गठबंधन में चुनाव लड़ने का। (bihar assembly election)
आप देखिए कि इस घोषणा के होते ही गोदी मीडिया को कैसा सांप सूंघ गया। खबर तक नहीं दी। फिर बीजेपी ने डांट लगाई तो उठकर अब बताने लगे है कि इससे कांग्रेस को क्या क्या नुकसान होगा! कांग्रेस को इतना ही मूर्ख समझते हैं कि उसकी बातों में आकर नुकसान से बचने के लिए वह गठबंधन तोड़ देगी।
मीडिया भाजपा को माई बाप मानता है और कांग्रेस को गरीब की जोरू। जिससे वह जो चाहे कह सकता है। इसमें कांग्रेस के नेताओं का भी बड़ा हाथ है जो गोदी मीडिया के मुखबीर हैं। और अब हमारा कुछ नहीं हो सकता जैसी दुखभरी आवाजों के साथ उसकी मान मनउव्वल भी करते रहते हैं। (bihar assembly election)
इसलिए मीडिया यह भी समझा रहा है कि गठबंधन में क्या क्या बाधाएं आएंगी! गठबंधन को लेकर अनिश्चितता पैदा की जा रही है। मगर पहला राउन्ड कांग्रेस जीत चुकी है। संगठन की मजबूती की और बढ़ने के साथ गठबंधन की मजबूती तक।