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09-03-2025 Vol 19

स्वास्थ्य सेवा केंद्रों के बुरे हाल!

देश के किसी भी गांव में जाकर असलियत जानी जा सकती है। इतना ही नहीं आबादी के तेजी से बढ़ते आकार के बावजूद देश भर में जनसंख्या पर आधारित सेवा केन्द्रों व कर्मचारियों को बढ़ाने का काम कई वर्षों से ठप्प पड़ा है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा केन्द्रों के हाल इतने बुरे हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में कोई भी विशेषज्ञ अपनी नियुक्ति नहीं चाहता। प्रशिक्षण केन्द्रों का पूरा स्टाफ व साज सज्जा दशकों से बेकार पड़ी है।

आजादी के बाद नियोजित कार्यक्रम के तहत देश भर में जो कार्यक्रम शुरू किए गए थे, उनमें ग्रामीण इलाकों के लिए स्वास्थ्य परियोजनाएं भी थीं। मकसद था देश के देहातों में स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बिछाना ताकि गरीब लोगों की सेहत सुधर सके। आज पचहत्तर वर्ष बाद भी हालत यह है कि गरीब की सेहत सुधरना तो दूर स्वास्थ्य सेवाओं की ही सेहत खराब दिखाई देती है।

विभिन्न दलों की सरकारों के शासन के बावजूद नए-नए नारों से, नए-नए वायदों से, नई-नई योजनाओं के सपने दिखाकर देश का पैसा बर्बाद किया जाता रहा है। स्वास्थ्य आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसलिए उसकी चिंता जितनी आम आदमी को होती है उतनी ही सरकार को भी होनी चाहिए। जाहिर है कि सभी चालू सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार आना चाहिए।

नियोजित विकास के तहत देश के कई प्रदेशों के देहातों में सामुदायिक विकास खण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना की गई। मूल सोच यह थी कि ग्रामवासियों के लिए चिकित्सा, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सेवाएं एकीकृत रूप में उपलब्ध कराई जायेंगी। जिनमें उपचार, वातावरण स्वच्छता (सुरक्षित पेय जय आपूर्ति व कूड़ा-मलमूत्रा निपटाना), मातृ शिशु स्वास्थ्य, विद्यालय स्वास्थ्य, संक्रामक रोगों की रोकथाम, स्वास्थ्य शिक्षा व जन्म-मृत्यु आंकड़ों का संकलन जैसी सेवाएं शामिल थीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर देश भर में हज़ारों प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र स्थापित हो चुके थे। मैदानी क्षेत्रों में 5000 व पर्वतीय क्षेत्रों में 3000 की आबादी पर एक मातृ शिशु स्वास्थ्य उपकेन्द्र भी खोले गए।

इन उपकेन्द्रों पर प्रसवपूर्व, प्रसव के दौरान व प्रसवोपरान्त स्वास्थ सेवाओं के साथ प्रतिरक्षण, निर्जलीकरण उपचार के लिए घोल वितरण और खून की कमी दूर करने के लिए आयरन या फोलिक एसिड की गोलियां बांटना व अन्धेपन व नेत्रारोग से बचाव हेतु विटामिन घोल बांटना शामिल था। कालान्तर में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में परिवर्तित होना था। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान इन केन्द्रों में जहां शल्य क्रिया, बाल रोग विशेषज्ञ, महिला रोग विशेषज्ञ व पैथोलॉजी सेवाएं और बढ़ाई गईं वहीं प्रत्येक केंद्र में मरीजों के लिए उपलब्ध बिस्तरों की संख्या 6 से 30 कर दी गई। जाहिर है इस पूरे तामझाम पर जनता का अरबों रूपया खर्च हुआ। पर क्या जो कुछ कागजों पर दिखाया गया, वह जमीन पर भी हो रहा है?

देश के किसी भी गांव में जाकर असलियत जानी जा सकती है। इतना ही नहीं आबादी के तेजी से बढ़ते आकार के बावजूद देश भर में जनसंख्या पर आधारित सेवा केन्द्रों व कर्मचारियों को बढ़ाने का काम कई वर्षों से ठप्प पड़ा है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा केन्द्रों के हाल इतने बुरे हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में कोई भी विशेषज्ञ अपनी नियुक्ति नहीं चाहता। प्रशिक्षण केन्द्रों का पूरा स्टाफ व साज सज्जा दशकों से बेकार पड़ी है।

इस तरह ऐसे सेवा केन्द्र चिकित्सकीय व स्वास्थ्य सेवाएं तो न मुहैया करा पाये, अलबत्ता नसबन्दी कराने के केन्द्र जरूर हो गए। 1970-71 से 1991-92 तक नसबंदी के अलावा यहां कुछ भी नहीं हुआ। बीस सूत्राीय कार्यक्रमों के दौरान जो फर्जी नसबंदी का दौर चला था, वह अभी थमा नहीं है। नसबंदी की उपलब्धियां फर्जी तौर पर बढ़ा चढ़ाकर बताई जाती रहीं और इन्हीं ‘उपलब्धियों’ की एवज में नौकरशाह करोड़ों रूपए के पुरस्कार लेते रहे। इस तरह देश की बेबस जनता पर दुहरी मार पड़ी है।

साल 2000 में विश्व बैंक द्वारा ‘भारत जनसंख्या परियोजना’ लागू हुई। योजना का मूल उद्देश्य सेवा संगठनों को मजबूत करना था। फलतः एक ओर नव निर्माण शुरू हुआ दूसरी ओर नए चिकित्सकीय सेवा केन्द्र खोले गए। देश में  कई उपकेन्द्र गांव से दूर बनाए गए, जो कभी इस्तेमाल नहीं हुए। आज ये केंद्र वीराने में खण्डहर बन चुके हैं। ्लैण्ड आदि से प्रशिक्षण लेकर आए।

पर जहां से प्रशिक्षण लेने गए थे, वहां वापिस लौटकर नहीं आए। उन्हें उनकी नियुक्ति दूसरी जगह कर दी गई, आखिर क्यों? जब यही करना था तो लाखों रुपया प्रशिक्षण पर बर्बाद करने की क्या जरूरत थी? इसी तरह सूचना शिक्षा संचार के नाम पर प्राइवेट छपाई भी लाखों रूपए खर्च करके करवाई गई। जनचेतना फैलाने के नाम पर छपवाई गई यह स्टेशनरी कभी काम नहीं आई। न जाने कितने फार्म छपे व रद्दी में बिक गए।

इस पूरे कार्यक्रम के नतीजे असन्तोषजनक थे। ऐसा विश्व बैंक द्वारा कराए गए मूल्यांकन से पता चला। नतीजतन देश के कई प्रदेशों में ‘भारत जनसंख्या परियोजना 3,4,5’ नहीं दी गई। पर ‘भारत जनसंख्या परियोजना-6’ इनमें से कई प्रदेशों को मिल गई। जिसका मूल उद्देश्य श्रम संसाधनों का विकास करना था। इस योजना के तहत ऊपर के अधिकारी तो विदेशी सैरगाहों में घूम आए पर नीचे का स्टाफ भी पीछे नहीं रहा। वे भी अहमदाबाद, गांधीग्राम, मुंबई में सैर सपाटे करता रहा।

फिर आया सूचना क्रांति का दौर। स्वास्थ्य सेवा भले ही लोगों को न मिले पर सूचना के आधुनिक उपकरणों को खरीदनें में संकोच क्यों किया जाए? सूचना नहीं तो कमीशन की आमदनी तो होगी ही। इसलिए प्रौद्योगिकी से तालमेल बिठाए रखने के नाम पर कराड़ों रूपये के सैकड़ों कंप्यूटर व व बाकी का साजो सामान खरीद लिया गया। जनजागरण के नाम पर हजारों टी.वी. व अन्य उपकरण भी खरीदे गए, जो स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकारियों के बंगलों की शोभा बढ़ा रहे हैं।

परिवार प्रशिक्षण के लिए पहले जहां थोड़े बहुत क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र थे उनके स्थान पर दुगने केन्द्र खोल दिए गए। जिनका भवन निर्माण हुआ, साज-सज्जा के लिए भारी खरीदारियां की गईं, पर योजनाबद्ध तरीके से कभी कोई प्रशिक्षण नहीं हुआ। दरअसल तो इन केन्द्रों में पहुंच वालों की बारातें टिकती रहती हैं। गरीब जनता के पैसे से खरीदे गए कंप्यूटर व साज सज्जा अपनी मूल पैकिंग में रखे रखे ही आउटडेटेड हो गए।

बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्रा में हुई खोजों व शोध के कारण उपचार के क्षेत्रा में अत्यधिक सुविधाएं आज सुलभ हैं। हृदय के साथ ही अन्य अंगों का प्रत्यारोपण भी आज हो रहा है। परन्तु वैश्वीकरण व उदारीकरण के फलस्वरूप इस दिशा में जितना भी विकास हुआ व सेवा सुविधाएं उपलब्ध हुईं उन ्य वर्ग की ही है। आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है। तमाम बड़े सरकारी संस्थान या प्राइवेट अस्पताल ्लीनिक की सेवाएँ केवल विशिष्ट वर्ग के लिए ही सुरक्षित व सुलभ हैं। दूसरी त्रासदी यह है कि कुछ गिनेचुने विशेषज्ञ जिनकी सेवाएँ सामान्य जनता को सरकारी अस्पतालों में मिल भी जाती थीं, वह भी अब इन्हीं पांच सितारा अस्पतालों में चले गए हैं। स्वास्थ्य के मामले में भारत का पारंपरिक ज्ञान और लोकजीवन का अनुभव इतना समृद्ध है कि हमें बड़े ढांचों, बड़े अस्पतालों और विदेशी अनुदानों की जरूरत नहीं है, जरूरत है अपनी क्षमता और अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल की।

NI Editorial

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