वैदिक तैंतीस देवताओं की सूची में अश्विनी कुमारों का नाम भी शामिल है। स्वामी दयानंद सरस्वती विरचित सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार ईश्वर एक है, और सिर्फ वही उपासनीय है। ऋग्वेद 1/164/ 39 के अनुसार जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने और उपासना करने योग्य ईश्वर है।…अश्विनि कुमारों को देवों का वैद्य कहा गया है। यहां देव का भावार्थ मनुष्य से है। अश्विनी कुमारों की क्षमता इतनी है कि च्यवन अर्थात वृद्ध को युवा बना दिया।
प्राचीन भारत चिकित्सा के क्षेत्र में अत्यंत विकसित था। धन्वंतरि, सुश्रुत, चरक सदृश्य अनेक ऋषि- मुनियों ने चिकित्सा के क्षेत्र में अमूल्य योगदान प्रदान किया है। परंतु इन प्राचीन चिकित्सकों में असाध्य रोग-दोष का शमन करने वाले प्रसिद्ध वैद्य अश्विनी कुमार का नाम सर्वाधिक प्राचीन है। मान्यतानुसार विशुद्ध आयुर्वेद के ज्ञाता अश्विनी कुमार दो जुड़वां भाई थे। अश्विनी का अर्थ शक्तिशाली और पूर्णता से है। अश्विनी देव से पैदा होने के कारण ही इन्हें अश्विनी कुमार कहा गया। अश्विनी कुमार ने वृद्ध च्यवन ऋषि को पुनः जवान किया था। उन्होंने शरीर को स्वस्थ रखने और रोगमुक्ति हेतु अनेक उपायों से संसार को अवगत कराया। वर्तमान में प्राचीन भारत के प्रसिद्ध वैद्यद्वय अश्विनी कुमार का नाम चिकित्सा जगत में बड़े ही श्रद्धा व आदर के साथ लिया जाता है। वैदिक व पौराणिक ग्रंथों में भी अश्विनी कुमार के प्रसिद्धि का वर्णन अंकित है।
वैदिक तैंतीस देवताओं की सूची में अश्विनी कुमारों का नाम भी शामिल है। स्वामी दयानंद सरस्वती विरचित सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार ईश्वर एक है, और सिर्फ वही उपासनीय है। ऋग्वेद 1/164/ 39 के अनुसार जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने और उपासना करने योग्य ईश्वर है। परमेश्वर देवों का देव होने से महादेव इसीलिए कहाता है कि वही सब जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकर्त्ता, न्यायाधीश, अधिष्ठाता है। देवता शब्द से ईश्वर का ग्रहण करना भूल है। देवता दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहाते हैं। जैसे पृथ्वी, परंतु वैदिक ग्रंथों में कहीं इसको ईश्वर अथवा उपासनीय नहीं माना गया है। तैंतीस कोटि के देवता के संबंध में यजुर्वेद 14/31 में त्रयस्त्रिंशता॰ कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण कांड 14/ 6/ 3-7 में त्रयस्त्रिंशता॰ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि तैंतीस देव में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य और 2 अश्विनी मिलाकर कुल 33 देवता शामिल हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से आठ वसु। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय और जीवात्मा ये ग्यारह रुद्र इसलिए कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं तब रोदन करानेवाले होते हैं।
संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिए हैं कि ये प्रत्येक पदार्थ की आयु ग्रहण करते हैं। धाता, मित्र, अर्यमा, शुक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु यह बारह आदित्य कहे गए हैं। दो अश्विनी – एक इन्द्र और एक प्रजापति। बिजली का नाम इन्द्र परम ऐश्वर्य का हेतु होने के कारण है। यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहा गया है कि इससे वायु, वृष्टि, जल, औषधि की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस दिव्य गुणों के योग के कारण से देव कहाते हैं। शतपथ के चौदहवें काण्ड के अनुसार ही इनका स्वामी और सब से बड़ा होने से परमात्मा चौंतीसवां उपास्यदेव है।
वैदिक मतानुसार तैंतीस कोटि के अंतर्गत आने वाले देवताओं में शामिल ग्यारह रूद्र अर्थात देह में दस प्राण और ग्यारहवां आत्मा में से प्रथम दो प्राण व अपान नासिका से पैदा हुए हैं। ये प्राण और अपान देवों के चिकित्सक हैं। इन प्राण और अपान को वेदों में नासत्यौ और अश्विनी कहा है। अश्विनि कुमारों को देवों का वैद्य कहा गया है। यहां देव का भावार्थ मनुष्य से है। अश्विनी कुमारों की क्षमता इतनी है कि च्यवन अर्थात वृद्ध को युवा बना दिया। इससे संबंधित एक मंत्र ऋग्वेद 1/118/6 में आया है-
उद्वन्दनमैरतं दंसनाभिरुद्रेभं दस्रा वृषणा शचीभिः।
निष्टौग्रयं पारयथः समुद्रात्पुनश्च्यवानं चक्रथुर्युवानम् ।। -ऋग्वेद 1/118/6
इस मंत्र का भाष्य करते हुए महर्षि दयानंद सरस्वती कहते हैं- हे (दस्रा) दुःखों के दूर करने और (वृषणा) सुख वर्षाने वाले सभासेनाधीशो! तुम दोनों (शचीभिः) कर्म और बुद्धियों वा (दंसनाभिः) वचनों के साथ जैसे (तौग्रयम्) बलवान मारने वाला राजा का पुत्र (च्यवानम्) जो गमनकर्त्ता बली (युवानम्) जवान है उसको (समुद्रात्) सागर से (निः, पारयथः) निरन्तर पार पहुँचाते (पुनः) फिर इस ओर आए हुए को (उत्, चक्रथुः) उधर पहुँचाते हो वैसे ही (वन्दनम्) प्रशंसा करने योग्य यान और (रेभम्) प्रशंसा करनेवाले मनुष्य को (उदैरतम्) इधर-उधर पहुँचाओ।
इसमें प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि जैसे नाव चलाने वाले मल्लाहादि मनुष्यों को समुद्र के पार पहुँचाकर सुखी करते हैं, वैसे राजसभा शिल्पीजनों और उपदेश करने वालों को दुःख से पार पहुँचाकर निरन्तर आनन्द देवें। दोषों का उपक्षय करनेवाले प्राण- अपाण (प्राणापानो) ही उत्तम कर्मों के द्वारा वन्दना करने वाले को विषयकूप से ऊपर प्रेरित करते हैं। प्राण साधना करने वाला माता -पिता, आचार्य व अतिथियों का अभिवादन करता हुआ सदा उनसे प्रदर्शित सन्मार्ग पर चलकर विषयकूप में डूबने से बच जाता है। शक्तिशाली प्राणापानो ही प्रज्ञानों व शक्तियों के द्वारा स्तोता को- प्रभुस्तवन की वृत्ति वाले को संसार सागर से ऊपर उठाते हैं। प्रभुस्तवन करता हुआ व्यक्ति विषय समुद्र में नहीं डूबता।
प्राण – साधक प्रभु का स्तोता बनता है और प्रभुस्तवन उसे विषय समुद्र में डूबने नहीं देता। प्राण- अपान ही तुग्र- पुत्र भुज्यु को अपने भोगों के लिए औरों की हिंसा करने वाले भोग -प्रवण व्यक्ति को विषय समुद्र से पार करते हैं। इनकी कृपा से भोगों से ऊपर उठता है तथा औरों की हिंसा में प्रवृत्त नहीं होता। भोगों में फँसे होने के कारण क्षीणशक्ति होते हुए पुरुष को भोगप्रवणता से ऊपर उठाकर पुनः युवा कर देते हैं। प्राण साधना का ही यह परिणाम होता है कि मनुष्य विषय भोगों से ऊपर उठता है और शक्ति के संयम के कारण सदा युवा बना रहता है। इसीलिए हमें बड़ों का वन्दन, प्रभु का स्तवन करना चाहिए। अपने सुख के लिए औरों का हिंसन न करना चाहिए। इस तरह शक्ति का संचय करके सदा युवा बने रहना चाहिए।
ऋग्वेद 1/118/6 का भाष्य करते हुए अश्विनी कुमारों के बारे में सायण लिखते हैं-
च्यवानं च्यवनमृषिं जीर्णं पुनः युवानं यौवनोपेतं चक्रथु: कृतवन्तौ।। -ऋग्वेद 1/118/6 अर्थात- अश्विनी कुमारों ने युवावस्था से ढलते हुए वृद्ध च्यवन को फिर से युवा बना दिया। अश्विनी कुमारों का अन्य नाम नासत्यौ भी है। यास्काचार्य अपनी निरुक्त में लिखते हैं-
नासिकाप्रभवौ बभूवतुरिति वा। -निरुक्त 6/13
अर्थात- जो नासिका से पैदा हुए हैं। प्राण और अपान की उत्पत्ति नासिका से है। ये प्राण और अपान देवों के चिकित्सक हैं। इन प्राण और अपान को वेदों में नासत्यौ और अश्विनी कहा है।
यहां देवों का अर्थ इन्द्रिय है।
वेदों में प्राण शक्ति का विस्तृत वर्णन अंकित है। चारों वेदों में आश्विन (अश्विना) शब्द 123 बार आया है। ऋग्वेद में अश्विना शब्द का 93 बार, यजुर्वेद में 1, सामवेद में 5 और अथर्ववेद में 24 संदर्भ मिलते हैं। वेदों में उल्लिखित इन संदर्भों के समीचीन अध्ययन से स्पष्ट होता है कि ये किसी शरीरधारी अश्विनी के लिए नहीं है, बल्कि अलग- अलग भावार्थ में प्रयोग हुए हैं। अथर्ववेद 7/53/1 में कहा गया है-
प्रत्यौहतामश्विना मृत्युमस्मद्देवानामग्ने भिषजा शचीभि:।। – अथर्ववेद 7/53/1
अर्थात- हे परमात्मन इन्द्रियों के चिकित्सक प्राण और अपान हमसे मौत को अपनी क्रियाओं से दूर कर देवें।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वेद में अश्विनी कुमार प्राण और अपान को ही कहा गया है। वेद स्पष्ट कहता है-
सं क्रामतं मा जहीतं शरीरं प्राणापानौ मे सयुजाविह स्ताम्। -अथर्ववेद 7/53/2
अर्थात- हे (प्राणापानौ) प्राण और अपान शरीर मे संचार करते रहो, शरीर को मत छोड़ो, मेरे इस शरीर में सदा साथ रहने वाले अश्विनी अर्थात प्राण और अपान रहें।
इस प्रकार वेद में स्पष्ट रूप से प्राण और अपान को अश्विनी कहा है। अश्विनि कुमारों द्वारा स्वास्थ्य लाभ और लम्बी आयु की प्राप्ति संभव है। क्योंकि प्राण और अपान कभी पृथक नहीं होते। इसलिए अश्विनी कुमारों की युग्म अर्थात जोड़ी प्रसिद्ध हो गई है। प्राणायाम मनुष्य के शारीरिक और आध्यात्मिक विकास से जुड़ा हुआ है। वेदों ने स्पष्ट घोषणा की है कि-
सप्तर्षिभ्य एनं परि ददामि त एनं स्वस्ति जरसे वहन्तु।। -अथर्ववेद 7/53/4
अर्थात- मैं सात शीर्षण्य प्राणों के लिए (दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आंखें व मुख) इसे देता हूं। वे इस पुरुष को स्वस्ति- कल्याणपूर्वक पूर्ण जरावस्था प्राप्त कराएं।
अथर्ववेद 7/53/6 स्पष्ट रूप से घोषणा करता है कि प्राणायाम के द्वारा राजयक्ष्मा रोग तक नष्ट हो जाता है और जीवन लाभ होता है। अथर्ववेद 7/53/5 में इसे पूर्ण आयु का खजाना बताते हुए इसे शरीर में न घटता हुआ सदा बढ़ने की शक्ति देने के लिए प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि गोशाला में जैसे बैल वेग से घुसते हैं, वैसे प्राण और अपान शरीर में प्रवेश करें। इसमें प्राणायाम को एक उपमा के माध्यम से समझाते हुए कहा गया है कि बाहर से घूमकर आने पर बैल अपने निवास स्थल गौशाला में पहुंचते ही एक साथ वेग से घुसते हैं। इसी प्रकार प्राण को रोके जाने से वह तीव्र वेग से अन्दर फेफड़े के कण-कण में घुस जायेगा। इसलिए प्राणायाम का अभ्यास मनुष्य की दीर्घायु के लिए अतिआवश्यक है। इसकी पुष्टि अथर्ववेद 11/3/54, 55, 56 के अनुसार तत्त्व अर्थात ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति के जानने वाले का शिष्य ही प्राण का निरोध (प्राणायाम) करता है। यदि प्राण निरोधक प्राणायाम नहीं करता है, तो सारी आयु की हानि उठाता है।
यदि आयु की हानि नहीं उठाता, तो प्राण इसे बुढ़ापे से पूर्व छोड़ जाता है। इससे स्पष्ट है कि प्राणायाम न करने से मनुष्य की हानि होती है। इतना ही नहीं बल्कि प्राणायाम के बिना शरीर में वीर्यरक्षा भी सम्भव नहीं है क्योंकि प्राण के स्थायित्व से वीर्य में स्थायित्व आता है। इसलिए प्राणयाम और वीर्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। तैत्तिरीयसंहिता 2/6/10/3 में वीर्य को धारण करना योगयज्ञ का यजन माना गया है, और कहा गया है कि वीर्य जीवन का आधार है। इस जीवनाधार का आधार प्राणायाम है। ऋग्वेद 1/38/11 के अनुसार योग से विभिन्न प्रकार की सिद्धि चाहने वाले योगाभ्यासी पुरुष निरन्तर गमनशील प्राणों को नाड़ियों में कुम्भक आदि उपयुक्त क्रियाओं से मूलबन्ध जालन्धर आदि बन्धों के साथ अवरुद्ध करते हैं तो शरीर मे सम्यक प्रकारेण रुधिर-संचार तथा सुदृढ़ बल का आधान होता है। ऋग्वेद 8/85/1 में प्राणापानो से प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि आप मेरी पुकार को सुनकर अवश्य प्राप्त होओ। आप ही मेरे जीवन में सब असत्यों को दूर करने वाले हो। आप ही हमारे जीवनों को मधुर बनाने वाले सोम के रक्षक होते हो।
वेदों में प्राणायाम द्वारा वीर्यरक्षा की बात कही गई है। ऋग्वेद 8/96/13 के अनुसार केवल शुद्ध वीर्य की ही रक्षा करनी श्रेयस्कर है। वीर्य दो प्रकार का होता है- प्रथम कृष्ण अर्थात गर्वित करने वाला और द्वितीय हर्षोल्लास देने वाला। गर्वित करने वाले दूषित वीर्य की रक्षा करनी योग्य नहीं, साधक को तो शुद्ध वीर्य की ही रक्षा करनी चाहिए। प्राणायाम औषधि रूप है, कल्याण और सुख को देने वाला है। वैदिक उक्ति- प्राणों वै भूतानामायु: के अनुसार प्रत्येक प्राणी की आयु श्वासों पर है, वर्षों पर नहीं। स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य, योगादि के द्वारा श्वास को जितनी देर तक ले सकने की शक्ति वाला मनुष्य कर लेगा, उतनी ही उसकी आयु अधिक बढ़ेगी। संयमित वायु प्राणायाम औषधि रूप और आयुवर्धक है।
नितांत वेदानुकूल ग्रंथ मनुस्मृति 4/134 के अनुसार आयु को नष्ट करने वाले सभी पदार्थों में से परस्त्रीगामी सर्व प्रधान है। परस्त्रीगामी की श्वास अधिक चलती है उसके प्राणतन्तु नष्ट हो जाते हैं। इन दोषों को दूर करने के लिए मनुस्मृति 6/71 में प्राणायाम को कल्याणकारी व महत्वपूर्ण बताते हुए कहा गया है कि जैसे अग्नि में तपाने से सोना आदि धातुओं का मल नष्ट हो पूर्णतः धातु शुद्ध हो जाने की भांति ही प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं। प्राणायाम दुर्बलता आदि दोषों को दूर कर बलपुष्टि व आयु आदि को देता है। निःसंदेह ही वेदों से अनुप्राणित होकर मनुष्य के जीवन को स्वस्थ एवं प्रसन्नता से परिपूर्ण किया जा सकता है।