इस साल के अंत में बिहार विधानसभा का चुनाव होना है और अगले साल मई में पांच राज्यों, पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुड्डुचेरी में चुनाव होगा। इन छह राज्यों के चुनावों की तैयारियां अभी से हो रही हैं। सभी पार्टियों ने कमर कस ली है और अभी से एजेंडा तय हो रहा है। बिहार चुनाव सात महीने बाद हैं लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बिहार में डेरा डालने की बात कह कर चुनाव की तैयारियों का आभास करा दिया है। इन छह राज्यों के चुनाव से पहले एक बड़ा सवाल यह है कि क्या कहीं भी राज्य सरकारों के कामकाज के आधार पर चुनाव होगा या विपक्षी पार्टियां विकास का मुद्दा उठा कर, राज्य सरकार की विफलता गिना कर, उसे कठघऱे में खड़ा करके चुनाव लड़ेंगी? ये सवाल इसलिए है क्योंकि सभी छह राज्यों में चुनाव की जो तैयारी चल रही है या जो एजेंडे तय किए जा रहे हैं वे सामान्य राजनीतिक मुद्दे नहीं हैं। उसमें विकास का मुद्दा नदारद है, सरकारों के कामकाज या उसकी सफलता-विफलता का मुद्दा गायब है और भावनात्मक मुद्दे हावी हैं।
सबसे पहले बिहार की बात करें तो वहां पिछले 20 साल से जनता दल यू के नेतृत्व वाली सरकार है। नीतीश कुमार ने खुद करीब 19 साल तक सरकार का नेतृत्व किया है और नौ महीने के लिए उनके प्रॉक्सी के तौर पर उनकी पार्टी के जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री रहे थे। इन 20 वर्षों में करीब साढ़े तीन साल राष्ट्रीय जनता दल के साथ उन्होंने सरकार चलाई और करीब दो साल अकेले चलाई। बाकी साढ़े 14 साल भाजपा के साथ उनकी सरकार चली है। लेकिन चुनाव में उनकी 20 साल की उपलब्धियों का कहीं जिक्र नहीं है। एनडीए में शामिल सभी घटक दल चाहे वह जनता दल यू हो या भाजपा या बाकी छोटी पार्टियां हों सब इस आधार पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही हैं कि बिहार के लोगों को लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के कथित जंगल राज की याद दिलानी है, लोगों को जंगल राज का भय दिखाना है, उनको डराना है और लालू प्रसाद के परिवार को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर वोट का ध्रुवीकरण कराना है।
अगर कोई कसर रहती है तो भाजपा के नेता सांप्रदायिक भाषणों से उसे पूरा करेंगे। भाजपा के एक विधायक हरिभूषण ठाकुर बचौल ने इस बार होली के दिन मुसलमानों को घर में ही बंद रहने की सलाह देकर संकेत दे दिया है कि आगे किस तरह की राजनीति होने वाली है। दूसरी ओर नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव जरूर नीतीश सरकार के कामकाज पर सवाल उठा रहे हैं लेकिन वह औपचारिकता भर है। उनका भी फोकस जाति का ध्रुवीकरण कराने पर है। वे मुस्लिम, यादव के अपने पिता के बनाए माई समीकरण में मुकेश सहनी के सहारे मल्लाह और कांग्रेस के सहारे कुछ दलित व सवर्ण वोट जोड़ने की कोशिश में हैं। उनका मुख्य चुनावी एजेंडा नीतीश कुमार की मानसिक सेहत और आरक्षण की सीमा बढ़ाने पर लगाई गई अदालती रोक है। वे एनडीए को आरक्षण चोर बता कर चुनावी लड़ाई की तैयारी में हैं।
अगले साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनावों हैं उनमें तमिलनाडु ने चुनाव तैयारियों और एजेंडा तय करने की सबसे पहले शुरुआत की है। एमके स्टालिन की पार्टी डीएमके लग नहीं रहा है कि सरकार के पांच साल के कामकाज पर चुनाव लड़ेगी। स्टालिन ने परिसीमन का हौव्वा खड़ा किया है, जबकि अभी यह तय नहीं है कि कब परिसीमन होगा क्योंकि उससे पहले जनगणना होनी है और हो सकता है कि परिसीमन से पहले ही राज्य में विधानसभा चुनाव हो जाए। लेकिन वे अभी से राज्य के लोगों को डरा रहे हैं कि परिसीमन से लोकसभा की आठ सीटें कम हो जाएंगी और दिल्ली में तमिलनाडु के साथ साथ सभी दक्षिणी राज्यों की आवाज दबा दी जाएगी। इस पर वे खूब राजनीति कर रहे हैं। इसी तरह नई शिक्षा नीति और त्रिभाषा फॉर्मूले के आधार पर हिंदी थोपने का भी मुद्दा उन्होंने चर्चा में ला दिया है। ये सभी भावनात्मक मुद्दे हैं। इनका बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने के लिए स्टालिन ने 22 मार्च को सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पूर्व मुख्यमंत्रियों की एक बैठक चेन्नई में बुलाई है। मजबूरी में मुख्य विपक्षी अन्ना डीएमके भी इन मुद्दों पर सरकार का साथ दे रही है। दूसरी ओर भाजपा सनातन धर्म पर दिए उदयनिधि स्टालिन के बयान को चुनावी मुद्दा बना रही है।
पश्चिम बंगाल में पिछले 14 साल से सरकार चला रही ममता बनर्जी मतदाता सूची में गड़बड़ी और चुनाव आयोग पर आरोप लगा कर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही हैं। उनके पास एक बना बनाया स्थायी मुद्दा बांग्ला अस्मिता का है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बरक्स अपना चेहरा दिखा कर वे अस्मिता की राजनीति कर ले जाती हैं। संयोग भी ऐसा है कि भाजपा तमाम कोशिशों के बावजूद राज्य में अपना कोई नेता नहीं खड़ा कर पाई है। उसके पास ले देकर ममता की पार्टी से आए सुवेंदु अधिकारी हैं, जिनके लिए इस बार के चुनाव का मुख्य मुद्दा यह है कि अगर भाजपा चुनाव जीती तो सभी मुस्लिम विधायकों को विधानसभा से निकाल कर बाहर फेंक देंगे। यह हिंदू मुस्लिम राजनीति का अभी तक का सबसे निचला स्तर माना जा सकता है। हालांकि ऐसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मुद्दा कितना काम आएगा यह नहीं कहा जा सकता है। आखिर पिछले तीन चुनावों से भाजपा ऐसे ही मुद्दों पर लड़ रही है। लेकिन कामयाबी नहीं मिली है।
असम में नौ साल से भाजपा का राज है और अगले साल चुनाव में उसे अपने दो कार्यकाल के कामकाज का हिसाब देना है। साथ ही केंद्र की सरकार के 12 साल का भी हिसाब देना है। सोचें, राज्य में पिछले 10 साल से डबल इंजन की सरकार चल रही है लेकिन मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा मियां मौलवी का मुद्दा उठा कर चुनाव लड़ेंगे। वे मदरसे बंद कराने या मुस्लिमों में प्रचलित बहुविवाह रोकने, समान नागरिक कानून बनाने, नागरिक रजिस्टर जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ेंगे। अपनी सरकार के कामकाज का हिसाब देने की बजाय उनके लिए बड़ा मुद्दा यह है कि जोरहाट से कांग्रेस के सांसद और लोकसभा में कांग्रेस के उप नेता गौरव गोगोई की पत्नी ब्रिटिश हैं और पाकिस्तान के एक व्यक्ति के साथ काम कर चुकी हैं। इस आधार पर वे गौरव गोगोई की पत्नी को पाकिस्तान का एजेंट बता रहे हैं। कांग्रेस के पास डबल इंजन सरकार के कामकाज का बड़ा मुद्दा है लेकिन वह भी हिमंत बिस्वा सरमा की सरकार की ओर से उठाए जा रहे मुद्दों के बरक्स ऐसे ही मुद्दों की तलाश कर रही है।