अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले एमके स्टालिन की सत्ता निरापद दिख रही थी। ऐसा लग रहा था कि केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल कर वे दक्षिण भारत की बुलंद आवाज बने हैं और तमिलनाडु के हितों को संरक्षित करने वाले मसीहा के तौर पर स्थापित हुए हैं। वे तमिलनाडु की संस्कृति और भाषा के भी स्वंयंभू रक्षक के तौर पर उभरे हैं। उन्होंने हिंदी का विरोध किया। उनके बेटे ने सनातन का विरोध किया। उन्होंने मेडिकल में दाखिले के लिए होने वाली नीट की परीक्षा का विरोध करके स्थानीय छात्रों के हितों को बचाने का संकल्प दिखाया।
उन्होंने विधानसभा से पास विधेयकों को रोकने की राज्यपाल की मनमानियों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और बड़ी जीत हासिल की। उन्होंने राज्य के राजनीतिक महत्व को बचाने के लिए परिसीमन का विरोध किया और ज्वाइंट एक्शन कमेटी यानी जेएसी बना कर सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों, पूर्व मुख्यमंत्रियों या उप मुख्यमंत्रियों के साथ चेन्नई में बैठक की। उनके गठबंधन में कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई, वीसीके और आईयूएमल जैसी पार्टियां हैं। इसके अलावा उन्होंने अखबारों में विज्ञापन देकर बताया कि तमिलनाडु पूरे देश में सबसे तेज गति से विकास करने वाला राज्य है। सो, चार साल के शासन के बाद एक परफेक्ट पिक्चर उन्होंने बना दी है।
इन सबकी रोशनी में देखने पर ऐसा लग रहा था कि स्टालिन की सत्ता को कोई चुनौती नहीं है। उनको चुनौती देने वाली अन्ना डीएमके बिखरी हुई है। जयललिता के निधन के बाद उसके पास कोई करिश्माई नेतृत्व नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री ई पलानीस्वामी पार्टी कैडर में उत्साह नहीं भर पा रहे हैं। पार्टी के बड़े नेता और मुख्यमंत्री रहे ओ पनीरसेल्वम का रास्ता अलग हो गया है। जयललिता की सहेली वीके शशिकला भी राजनीति से दूर हो गई हैं और उनके भतीजे टीटीवी दिनाकरण की पार्टी का कोई आधार नहीं बन पाया है।
विपक्ष के स्पेस में हिस्सा लेने के लिए फिल्म स्टार विजय की पार्टी टीवीके भी मैदान में आ गई है, जिसको चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की मदद मिल रही है। सो, एक तरफ स्टालिन तमिलनाडु के भावनात्मक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों के चैंपियन बने हैं तो दूसरी ओर उनकी विरोधी पार्टियों की ताकत कम हुई है और वे बिखरे हुए हैं। इस आधार पर माना जा रहा है कि 2016 में जैसे अन्ना डीएमके लगातार दूसरी बार चुनाव जीत कर सरकार में आई और पांच साल पर सत्ता बदलने का रिकॉर्ड टूटा वैसे ही 2026 में डीएमके लगातार दूसरी बार सत्ता में लौटेगी।
परंतु अब अचानक स्टालिन के सामने बड़ी चुनौती आ गई है। चुनाव से एक साल पहले अन्ना डीएमके और भाजपा ने तालमेल का ऐलान कर दिया है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह स्वंय चेन्नई गए और उन्होंने दोनों पार्टियों के तालमेल की घोषणा की। साथ ही अन्ना डीएमके के प्रमुख ई पलानीस्वामी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात करके उनको मुख्यमंत्री पद का दावेदार के तौर पर भी प्रस्तुत कर दिया। दूसरी ओर भाजपा ने इसी मौके पर प्रदेश अध्यक्ष के अन्नामलाई को हटा दिया और उनकी जगह नयनार नागेंद्रन को अध्यक्ष बनाया गया।
वे अन्ना डीएमके में रहे हैं और जयललिता के निधन के तुरंत बाद 2017 में भाजपा में शामिल हुए थे। वे थेवर जाति से आते हैं, जो तमिलनाडु की राजनीति में एक मजबूत आधार वाली जाति है। वीके शशिकला भी थेवर जाति से हैं और पिछले कई दशकों तक अन्ना डीएमके की सरकार बनवाने और जयललिता को मुख्यमंत्री बनवाने में थेवर जाति की भूमिका रही। अन्नामलाई को हटाते समय कहा गया कि वे गौंडर जाति से आते हैं और ई पलानीस्वामी भी उसी जाति से हैं इसलिए अन्नमलाई की जगह नया अध्यक्ष लाया गया है।
पता नहीं इसमें कितनी सचाई है लेकिन यह सही है कि नागेंद्रन के अध्यक्ष बनने के बाद राजनीतिक समीकरण बदला है। भाजपा का खुल कर विरोध करने वाले सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी नागेंद्रन का समर्थन किया है।
तमिलनाडु में स्टालिन की राजनीति और चुनौती
तमिलनाडु में एक तरफ एमके स्टालिन ने सनातन विरोधी और भाजपा विरोधी माहौल बना कर सभी पिछड़ी, दलित जातियों को साथ लाने का दांव चला है। उनकी योजना द्रविड आंदोलन की भावना के अनुरूप राजनीति को आगे लेकर जाने की है। लेकिन उसके बरक्स भाजपा ने अन्ना डीएमके से मिल कर नया जातीय समीकरण प्रस्तुत किया है। अन्ना डीएमके सुप्रीमो ई पलानीस्वामी गौंडर समाज के हैं, भाजपा के अध्यक्ष नयनार नागेंद्रन थेवर हैं और सहयोगी पार्टी पीएमके के रामदॉस पिता-पुत्र वनियार हैं। ये तीनों नेता मजबूत जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
दूसरी ओर एमके स्टालिन वल्लालार समुदाय से आते हैं, जो उत्तर भारत के ब्राह्मणों, जाटों या आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के रेड्डियों की तरह एक मजबूत जाति है। पलानीस्वामी की गौंडर और स्टालिन की वल्लालार जाति एक दूसरे से मिलती जुलती जाती है और दोनों का सामाजिक आधार एक जैसा है। दलित समाज की पार्टी वीसीके, कांग्रेस और मुस्लिम लीग से तालमेल की वजह से स्टालिन को दलित व मुस्लिम वोट की उम्मीद है। दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां भी उनके साथ हैं।
स्टालिन को अंदाजा होगा कि अन्ना डीएमके अपने स्थायी जातीय समर्थन की वजह से हमेशा एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी है। इसलिए उन्होंने भाजपा को निशाना बनाया और भाजपा व उसकी केंद्र सरकार को तमिलनाडु और द्रविड संस्कृति का विरोधी बताया। उनको पता था कि दोनों पार्टियों में तालमेल होगा तो भाजपा के सहारे वे अन्ना डीएमके की साख बिगाड़ सकेंगे। लेकिन उनको यह भी पता है कि पिछले चुनाव में भी अन्ना डीएमके और भाजपा ने एक साथ चुनाव लड़ा था और 10 साल की एंटी इन्कम्बैंसी के बावजूद बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था। 10 साल सत्ता से बाहर रही डीएमके को करुणानिधि के निधन से उपजी सहानुभूति भी मिली थी।
तब भी डीएमके गठबंधन को करीब 46 फीसदी और अन्ना डीएमके गठबंधन को करीब 40 फीसदी वोट मिले थे। पार्टी के पूरी तरह से साफ हो जाने की अटकलों के उलट अन्ना डीएमके गठबंधन ने 75 सीटें जीतीं। अगर पांच साल में स्टालिन सरकार के खिलाफ जरा सी भी एंटी इन्कम्बैंसी हुई है तो चुनावी पासा पलट सकता है। तीन फीसदी वोट का निगेटिव स्विंग राज्य की राजनीतिक तस्वीर बदल देगा।
ऊपर से मुख्यमंत्री एमके स्टालिन जो राजनीति कर रहे हैं वह दोधारी तलवार की तरह है। उनकी राजनीति का खतरा देश और समाज के लिए तो है ही उनकी अपनी पार्टी, गठबंधन और सत्ता के लिए भी है। वे हिंदी विरोध, सनातन विरोध, उत्तर भारत विरोध, मोदी विरोध, भाजपा विरोध, केंद्र सरकार विरोध आदि की राजनीति को अपनी पहचान बना रहे हैं। विरोध की इस राजनीति के दम पर वे विधानसभा का चुनाव जीतना चाहते हैं।
परंतु क्या भावनात्मक मुद्दों या वैचारिक विरोध की राजनीति के दम पर वे चुनाव जीत पाएंगे? दूसरा सवाल यह है कि इसमें अन्ना डीएमके विरोध की राजनीति कहां है? स्टालिन को तमिलनाडु में न तो हिंदी भाषी लोगों से लड़ना है, न सनातनियों से लड़ना है, न भाजपा और नरेंद्र मोदी से लड़ना है। उनको ई पलानीस्वामी की पार्टी अन्ना डीएमके से लड़ना है और उनको सुपरस्टार विजय की पार्टी टीवीके से लड़ना है।
पता नहीं स्टालिन यह देख पा रहे हैं या नहीं कि वे विरोध की राजनीति का जो झंडा उठाए घूम रहे हैं उनसे इन दोनों प्रतिद्वंद्वी पार्टियों का कोई लेना देना नहीं है। मोटे तौर पर वे दोनों भी स्टालिन के एजेंडे से सहमत हैं और इस बात को तमिलनाडु की जनता जानती है। अगर स्टालिन हिंदी विरोध कर रहे हैं तो ऐसा नहीं है कि अन्ना डीएमके हिंदी समर्थक है।
अगर इस वैचारिक मसले पर दोनों पार्टियों की एक राय है फिर स्टालिन का मुद्दा कैसे चुनावी राजनीति में काम आएगा? यह जरूर है कि अन्ना डीएमके ने भाजपा से तालमेल किया है लेकिन ध्यान रखने की बात है कि भाजपा ने पलानीस्वामी को ही मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान किया है। दूसरे, भाजपा पिछली बार विधानसभा की 20 सीटों पर लड़ी थी और चार पर जीती थी। इस बार ज्यादा से ज्यादा 30 सीट लड़ जाएगी। सबको पता है कि इससे तमिलनाडु की राजनीति में उसको बहुत मजबूती नहीं मिल पाएगी।
लोकसभा चुनाव में अन्नामलाई के नेतृत्व में भाजपा ने बड़ी उपलब्धि हासिल की थी। उसे एक भी सीट नहीं मिली लेकिन उसका वोट तीन से बढ़ कर 11 फीसदी हो गया, जबकि भाजपा गठबंधन को 18 फीसदी से ज्यादा वोट मिला। दूसरी ओर अन्ना डीएमके को भी कोई सीट नहीं मिली लेकिन उसे 23 फीसदी से ज्यादा वोट मिला। यानी अन्ना डीएमके, भाजपा, पीएमके, टीएमसी आदि पार्टियों का वोट 41 फीसदी से ऊपर है। इसका मतलब है कि तमिलनाडु की लड़ाई बहुत नजदीकी मुकाबले वाली रहेगी।
ऐसे में नकारात्मक राजनीति स्टालिन के लिए भारी पड़ सकती है। कई बार ऐसा लग रहा है कि वे हर बात में केंद्र सरकार से लड़ने के मामले में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव जैसी राजनीति कर रहे हैं। इन दोनों ने भाजपा और मोदी के अंधविरोध के एजेंडे पर चुनाव लड़ा और अपना नुकसान किया। अभी एक साल है और देखना होगा कि अन्ना डीएमके और भाजपा गठबंधन के बाद स्टालिन अपनी राजनीति में कुछ बदलाव करते हैं या नहीं!
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