Ban On Convicted Leaders : इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में कुछ बड़े चुनाव सुधारों की जरुरत है। उनमें एक सुधार धनबल और बाहुबल के असर को रोकने का है। पिछले कई दशक से इसका प्रयास हो रहा है।
परंतु मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। राजनीति में धनबल का असर इतना बढ़ गया है कि करोड़पति होना अब चुनाव जीतने की पहली शर्त है। इसी तरह बाहुबलियों या दबंगों के चुनाव जीतने की संभावना दूसरे लोगों से ज्यादा होती है। (Ban On Convicted Leaders)
अगर ऐसा नहीं होता तो जितने विवाद कुश्ती संघ के ब्रजभूषण शरण सिंह को लेकर हुए थे उन्हें देखते हुए वे हर पार्टी के लिए अछूत हो जाते। लेकिन भाजपा ने उनके बेटे करण सिंह को फिर भी टिकट दिया और उत्तर प्रदेश में भाजपा के खराब प्रदर्शन के बावजूद वे उस सीट से जीते, जहां से उनके पिता पिछले कई बार से जीत रहे थे।
ऐसी अनेक मिसालें देश के अलग अलग राज्यों की दी जा सकती है। तभी चुनाव की पवित्रता और लोकतंत्र की मूल भावना को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि बाहुबलियों या अपराधी छवि के लोगों को राजनीति में आने या चुनाव लड़ने से रोका जाए। (Ban On Convicted Leaders)
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परंतु क्या इसका उपाय यह हो सकता है कि उनके चुनाव लड़ने पर कानूनी रोक लगा दी जाए? इस सवाल का जवाब होगा, नहीं! असल में जब भी राजनीति में अपराधी छवि या दागी छवि के लोगों की एंट्री की बात होती है तो आदर्शवादी लोगों की एक जमात हमेशा कहती है कि कानून बना कर इनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा देनी चाहिए।
सोशल मीडिया में भी इस विरोधाभास की अक्सर चर्चा होती है कि जेल में बंद व्यक्ति को वोट डालने का अधिकार नहीं होता है लेकिन जेल में बंद व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार होता है। इस विरोधाभास को समाप्त करने की जरुरत है।
परंतु कानूनी रूप से इसको रोकने के कई खतरे हैं। एक खतरा तो यही है कि जो भी सत्ता में होगा वह अपने विरोधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए किसी न किसी मामले में फंसा कर जेल में डाल सकता है। (Ban On Convicted Leaders )
दूसरे, सक्रिय राजनीति करने वाले हर नेता पर किसी न किसी तरह का मुकदमा रहता है। धारा 144 के उल्लंघन से लेकर सरकारी काम में बाधा डालने, सड़क रोकने, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने आदि के मुकदमे अक्सर नेताओं के ऊपर दर्ज होते हैं।
ऐसे राजनीतिक मामलों में भी उनको जेल में डाल कर चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है। इन खतरों की वजह से ही यह मामला अभी तक टलता आ रहा है। (Ban On Convicted Leaders
सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर हुई (Ban On Convicted Leaders )
इस बीच सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर हुई है, जिसमें सजायाफ्ता नेताओं के चुनाव लड़ने पर स्थायी रोक लगाने की मांग की गई। भाजपा के नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय की याचिका में कहा गया है कि जनप्रतिनिधित्व कानून दो साल या उससे ज्यादा की सजा पाने वाले दोषी व्यक्तियों को सजा की अवधि खत्म होने के बाद छह साल तक चुनाव लड़ने से रोकता है। जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा आठ के तहत यह प्रावधान है।
कोई नौ साल पहले दायर याचिका में इस धारा को चुनौती दी गई है और मांग की है कि दो साल या उससे ज्यादा सजा पाने वाले व्यक्तियों पर आजीवन चुनाव लड़ने की पाबंदी लगाई जाए। (Ban On Convicted Leaders )
इसमें यह भी कहा गया है कि नेताओं से जुड़े मामलों की जल्दी से जल्दी सुनवाई और फैसला हो। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने भी इस की गंभीरता को समझा और यह सवाल पूछा कि जिस तरह से सजा पाए लोगों के सरकारी नौकरी करने पर रोक है उसी तरह सजा पाए व्यक्ति के चुनाव लड़ने और जन प्रतिनिधि बनने पर भी रोक होनी चाहिए।
अदालत ने यह भी कहा कि कानून तोड़ने के जुर्म में दोषी ठहराए गए व्यक्ति को फिर से कानून बनाने की जिम्मेदारी कैसे दी जा सकती है।
केंद्र सरकार ने इस मामले में बहुत साफ स्टैंड लिया है और कहा है कि चुनाव लड़ने पर स्थायी रोक लगाना ठीक नहीं है। सरकार ने धारा आठ के प्रावधानों का बचाव किया है और कहा है कि अभी जितनी रोक लगाई गई उतनी पर्याप्त है।
इसके साथ ही सरकार ने यह भी कहा है कि सजा पाए लोगों के चुनाव लड़ने पर सीमित अवधि तक या स्थायी रोक लगाने का मामला विधायी है और इसमें किसी तरह का बदलाव करने संसद का विशेषाधिकार है। (Ban On Convicted Leaders )
चुनाव लड़ने पर आजीवन पाबंदी
तभी सवाल है कि क्या संसद में ऐसी कोई पहल हो सकती है कि सजायाफ्ता लोगों के चुनाव लड़ने पर आजीवन पाबंदी लगा दी जाए? इसकी संभावना कम है।
यह संभावना इसलिए कम है क्योंकि इसकी मिसाल बहुत कम है कि किसी नेता को उसके सक्रिय राजनीतिक जीवन काल में किसी मामले में सजा हो जाए और सजा की अवधि पूरी होने के बाद वह चुनाव लड़ने के योग्य रहे। ऐसे मामले अपवाद हैं। (Ban On Convicted Leaders )
हालांकि इसके आंकड़े भी सामने आ जाएंगे क्योंकि अदालत ने ऐसे मामलों का ब्योरा मांगा है, जिसमें चुनाव आयोग ने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके दोषी नेताओं को चुनाव लड़ने की मंजूरी दी है।
बहरहाल, आमतौर पर किसी आपराधिक या दीवानी मामलों में नेताओं को सजा नहीं होती है और अगर निचली अदालत से सजा होती है तो ऊपरी अदालत से उस पर रोक लग जाती है और जब तक ऊपरी अदालतों में फैसला होता है तब तक नेताओं का राजनीतिक जीवन समाप्त हो चुका होता है या निधन हो जाता है। (Ban On Convicted Leaders)
ऐसे मामले गिने चुने होंगे, जिनमें नेता को सजा हो गई, ऊपरी अदालत ने उस पर रोक नहीं लगाई या ऊपरी अदालत ने भी सजा कर दी और नेता सजा काट कर निकलने के छह साल बाद चुनाव लड़ने के योग्य हो।
अगर कोई ऐसा नेता होता भी है तो आमतौर पर बड़ी पार्टियां उसको टिकट नहीं देती हैं। इसलिए ऐसे आपवादिक मामलों के लिए अलग से कानून बनाने की जरुरत नहीं समझी गई है। (Ban On Convicted Leaders )
परंतु समस्या सिर्फ दोषी ठहराए गए नेताओं की नहीं है, जिनकी संख्या गिनी चुनी है। समस्या आपराधिक छवि के नेताओं से है, जो अपनी ताकत के दम पर सजा पाने से बचे रहते हैं और चुनाव लड़ कर जीतते भी रहते हैं। उनको रोकने के उपायों पर विचार होना चाहिए।
राजनीतिक शुचिता का मामला (Ban On Convicted Leaders )
असल में यह कानून से ज्यादा राजनीतिक शुचिता का मामला है। राजनीतिक दलों और आम लोगों को भी इस बारे में सोचने की जरुरत है। कानून की बजाय अगर पार्टियां यह तय करें कि वे आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंगी तो अपने आप यह मसला हल हो जाएगा।
आखिर पार्टियां ही दागी या आपराधिक छवि वालों को टिकट देती हैं, बड़े नेता उनके लिए प्रचार करने जाते हैं और भारत में दलीय व्यवस्था इतनी मजबूत है कि आम मतदाता भी पार्टियों से अलग बहुत कम ही मामलों में मतदान के बारे में सोचता है।
कई बार पार्टियां जातीय समीकरण साधने या मतदाताओं पर असर के लिहाज से बाहुबली किस्म के नेताओं को टिकट देती हैं। नीतीश कुमार ने एक बार बिहार में कहा था कि बाघ के सामने बकरी नहीं लड़ा सकते हैं। (Ban On Convicted Leaders )
यानी अगर एक पार्टी ने किसी बाहुबली या दबंग को टिकट दिया है तो बराबरी की लड़ाई सुनिश्चित करने के लिए दूसरे दलों को भी वैसे ही नेता उतारने पड़ते हैं।
यह कानून के शासन के लिए शर्म और चिंता की बात होनी चाहिए। परंतु इसे एक सामान्य व्यवहार की तरह स्वीकार कर लिया गया है। इस मामले में पार्टियां पहल करें और आम लोग भी उसमें शामिल हों।
जो राजनीति में शुचिता की जरुरत मानते हैं वे बाहुबलियों या दागी छवि वालों को चुनाव में उतारने का विरोध करें तो धीरे धीरे इससे मुक्ति मिल सकती है। कानून के जरिए इसे रोकने का उपाय मुश्किल है। (Ban On Convicted Leaders )