भारत के शेयर बाजार में अफरातफरी मची है। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज यानी बीएसई और निफ्टी दोनों में लगातार गिरावट हो रही है। सोमवार, 23 फरवरी को शेयर बाजार में नौ महीने के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। नौ महीने में पहली बार बीएसई का 30 शेयरों वाला संवेदी सूचकांक 75 हजार से नीचे आए। कुछ समय पहले तक शेयर बाजार कुलांचे भर रहा था। यह 80 हजार की सीमा रेखा को पार कर गया था और 2025 में इसके एक लाख पहुंचने की भविष्यवाणी की जा रही थी। लेकिन इसमें ऐसा रिवर्स गियर लगा कि यह 75 हजार से नीचे पहुंच गया। सवाल है कि शेयर बाजार की यह गिरावट वक्ती है और कुछ घरेलू व बाहरी कारणों से है या यह किसी बड़ी बीमारी का संकेत है?
शेयर बाजार की गिरावट का तात्कालिक कारण डोनाल्ड ट्रंप की शुल्क लगाने की नीति को माना जा रहा है। उन्होंने रेसिप्रोकल टैरिफ यानी जैसे को तैसा शुल्क लगाने की बात करके विश्व अर्थव्यवस्था में हलचल मचा दी। उन्होंने कनाडा. मेक्सिको और चीन पर अतिरिक्त शुल्क लगाया। इसके अलावा स्टील और एल्युमिनियम के आयात पर भी अतिरिक्त शुल्क लगाया। इस बीच एक वैश्विक वित्तीय एजेंसी एसएंडपी ने कह दिया कि ट्रंप के रेसिप्रोकल टैरिफ का ज्यादा असर भारत जैसे देश पर होगा। इसके बाद शेयर बाजार की गिरावट का सिलसिला और तेज हो गया। लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ ट्रंप की टैरिफ नीति के कारण बाजार का सेंटीमेंट बिगड़ा है। उनके राष्ट्रपति बनने स पहले ही शेयर बाजार में गिरावट का सिलसिला शुरू हो गया था। उस समय कहा जा रहा था कि संस्थागत वित्तीय निवेशक यानी एफआईआई बाजार से पैसा निकाल रहे हैं।
एफआईआई की बिकवाली और बाजार से पैसे निकालने के पीछे अमेरिका में फेडरल रिजर्व की ओर से ब्याज दरों में बढ़ोतरी को कारण बताया जा रहा था। जापान में भी ब्याज दरों में बढ़ोतरी की खबरें आईं तो शेयर बाजार में गिरावट के पीछे उसको भी एक कारण के तौर पर देखा गया। लेकिन उस समय माना जा रहा था कि भले एफआईआई बाजार से पैसा निकाल लें लेकिन भारत के घरेलू निवेशकों का रूझान इतनी तेजी से शेयर बाजार, म्युचुअल फंड और एसआईपी की ओर बढ़ रहा है कि उससे बाजार की तेजी बरकरार रहेगी। लेकिन अब बाहरी निवेशकों के साथ साथ छोटे छोटे घरेलू निवेशकों का भी मोहभंग हो रहा है। बड़ी संख्या में लोग एसआईपी छोड़ रहे हैं और म्युचुअल फंड से बाहर निकल रहे हैं। शेयर बाजार की ओर उनका रूझान इस वजह से बना था कि उसमें रिटर्न बहुत अच्छा था। लेकिन अब शेयर बाजार के मुकाबले सोने का रिटर्न बेहतर दिखने लगा है। सो, रिटर्न भी बेहतर नहीं है और जोखिम बहुत बढ़ गया है, जिससे खुदरा निवेशक भी बाजार छोड़ने लगे हैं। इस बीच एक आर्थिक जानकार एस नरेन ने कह दिया कि स्मॉल और मिड कैप फंड में निवेश जोखिम भरा है। उसके बाद इन फंड्स से लोगों के निकलने की रफ्तार तेज हो गई। हालांकि पीएल वेल्थ मैनेजमेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक सभी लार्ज कैप फंड में भी अपने अपने बेंचमार्क यानी पिछले प्रदर्शन के मुकाबले कम रिटर्न मिला है।
शेयर बाजार में गिरावट का सिलसिला पिछले साल सितंबर से शुरू हुआ और तब से अभी तक भारत की शीर्ष पांच सौ कंपनियों में से 272 कंपनियां ऐसी हैं, जिनके शेयरों का भाव 20 फीसदी तक कम हो चुका है। खुदरा निवेशकों के लाखों करोड़ रुपए शेयर बाजार में डूब चुके हैं। पिछले छह महीने में भारत के शेयर बाजार की पूंजी एक ट्रिलियन यानी एक खरब कम हुई है। इसके बरक्स चीन के शेयर बाजार की पूंजी दो ट्रिलियन बढ़ गई है। बहरहाल, शेयर बाजार में गिरावट सितंबर से शुरू हुई है इसका मतलब है कि डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से पहले ही गिरावट शुरू हो गई थी। ट्रंप की रेसिप्रोकल टैरिफ की नीति तो उसके बाद आई। उसने भी गिरावट में योगदान किया लेकिन इस गिरावट के कुछ और कारण हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था की सेहत और शेयर बाजार के कारोबार की गड़बड़ियों से जुड़े हैं। तभी यह माना जा रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था में सुधार शुरू होगा तो बाजार का सेंटिमेंट भी बेहतर होगा।
अर्थव्यवस्था में सुधार शुरू होने की उम्मीदों का कारण सरकार की ओर से आजमाए जा रहे उपाय हैं। जैसे सरकार ने आयकर के स्लैब बदले हैं और 12 लाख रुपए तक की आय को कर से मुक्त कर दिया है। इससे लोगों के हाथ में पैसे बचने और फिर खर्च बढ़ने की उम्मीद की जा रही है। इसी तरह महंगाई दर में कमी आनी शुरू हुई है और भारतीय रिजर्व बैंक ने नीतिगत ब्याज दरों में एक चौथाई फीसदी की कमी की है। अगली मौद्रिक नीति समीक्षा कमेटी की बैठक में इसमें एक चौथाई फीसदी की और कमी हो सकती है। इससे कर्ज की ब्याज दर में कमी आएगी तो उससे विकास दर में बढ़ोतरी की उम्मीद की जा रही है। सरकारी खर्च भले ज्यादा नहीं बढ़ाया गया है लेकिन 11 लाख करोड़ रुपए का खर्च भी मामूली नहीं है। सो, सरकारी खर्च बढ़ने, आयकर छूट और ब्याज दरों में कमी से अर्थव्यवस्था में तेजी लौटने की उम्मीद की जा रही है।
इसका सीधा मतलब है कि शेयर बाजार भले अभी ट्रंप की रेसिप्रोकल टैरिफ नीति से प्रभावित होकर गिर रहा है लेकिन इसके पीछे बुनियादी कारण अर्थव्यवस्था की सुस्ती है। देश के आम आदमी की हालत क्या है, यह इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में खुद सरकार ने बताया है। वित्त वर्ष 2024-25 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में स्वरोजगार करने वाले पुरुषों की मासिक आय वित्त वर्ष 2017-18 के 9,454 रुपए के मुकाबले नौ फीसदी गिर कर 2023-24 में सिर्फ 8,591 रह गई। महिलाओं की स्थिति तो और भी खराब रही। इसी अवधि में स्वरोजगार करने वाली महिलाओं की आय 32 फीसदी गिर कर 4,338 की जगह 2,950 रुपए रह गई। नौकरी करने और वेतन पाने वालों की स्थिति भी बिगड़ी है। आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक नौकरी करने वाले पुरुषों की मासिक आय 12,665 रुपए से घट कर 11,858 रुपए रह गई। नौकरीपेशा महिलाओं की मासिक आय 10,116 से घट कर 8,855 रुपए रह गई। अब सोचें, नौकरी करने वाले और स्वरोजगार करने वालों की मासिक आय छह साल में ब़ढ़ने की बजाय घट जाए तो उसे क्या कहा जा सकता है? इसमें महंगाई की दर अलग है। उस आधार पर हिसाब लगाएं तो कमाई कुछ नहीं रह गई है।
एक दूसरी रिपोर्ट के मुताबिक इस देश में एक सौ करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनकी सालाना आय एक हजार डॉलर या उससे कम है। यानी सौ करोड़ लोग सालाना 87 हजार रुपए यानी मासिक सात हजार रुपए से कुछ ज्यादा कमा रहे हैं। इनके बारे में कहा जा रहा है कि ये अनमोनेटाइजेबल हैं। यानी कोई भी कंपनी इनसे कुछ भी कमाई नहीं कर सकती है। यह देश की अर्थव्यवस्था की असली तस्वीर है। शेयर बाजार कम चमक दमक और उसकी ऊंची छलांग के पीछे इस वास्तविकता को छिपा दिया जाता था। अब बाजार गिरा है तो यह वास्तविकता भी सामने आ रही है। इसी तरह कई एजेंसियों ने समय समय पर शेयर बाजार में गड़बड़ी और परदे के पीछे से होने वाले संदिग्ध निवेश को लेकर सवाल उठाए हैं। लेकिन सरकार और सेबी दोनों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। कई जानकार मानते हैं कि शेयर बाजार के कामकाज में कुछ बुनियादी गड़बड़ी है, जिसकी ओर नियामक एजेंसियों ने ध्यान नहीं दिया तो आम निवेशकों को और भी नुकसान उठाना पड़ सकता है।