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14-03-2025 Vol 19

होली के रंग में राजनीति की भंग

भारत में जब कोई किसी को कहता है कि ‘ज्यादा राजनीति मत कीजिए’ तो इसका मतलब होता है कि गलत काम मत कीजिए, साजिश या धोखा मत कीजिए, भड़काऊ काम मत कीजिए या लोगों को लड़वाइए मत। सोचें, भारत में राजनीति शब्द कैसे नकारात्मक अर्थों में रूढ़ हो गया है! इस राजनीति का शिकार भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था बन रही है तो समाज व्यवस्था और धार्मिक व निजी व्यवहार और तीज त्योहार भी बन रहे हैं। यह अचानक नहीं हुआ है कि इस साल होली से पहले सामाजिक स्तर पर इतना विभाजन दिख रहा है। यहां तक पहुंचने की शुरुआत कई साल पहले हो गई थी। जब सोशल मीडिया में पानी बचाने की सलाह देने वालों को गालियां दी जाने लगी थी, रंग व गुलाल को सनातन धर्म से जोड़ा जाने लगा था और यह व्हाटअबाउटरी शुरू हुई थी कि मुस्लिम त्योहारों पर क्यों नहीं बोलते हो, तभी यह सुनिश्चित कर दिया गया था कि आने वाले दिनों में हमारे त्योहार प्यार, मोहब्बत, भाईचारे, धार्मिकता, आध्यात्मिकता की बजाय नफरत और जहालत का शिकार होने वाले हैं। अब कोई त्योहार इससे अछूता नहीं है क्योंकि सब पर राजनीति की छाया पड़ गई है।

अनेक आशावादी लोग कह रहे हैं कि देश के लोग नफरत की राजनीति करने वाले और धर्म के आधार पर समाज को बांटने वाले लोगों को पहचान गए हैं और उनकी साजिशों को विफल कर देंगे। लेकिन यह विशुद्ध सदिच्छा है, जिसका जमीनी वास्तविकताओं से कोई मतलब नहीं है। पहली बात तो यह है कि पूरे कुएं में राजनीति की भंग पड़ी है और दूसरी बात यह है कि सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने या प्यार, मोहब्बत और भाईचारे के उत्सव को या किसी धार्मिक या राष्ट्रवादी आयोजन को नफरत या हिंसा में बदल देने के लिए सभी 140 करोड़ लोगों की जरुरत नहीं होती है। थोड़े से मोटिवेटेड लोग, जो किसी व्यक्ति या किसी पार्टी या किसी संगठन के लिए काम करते हैं वे अपने से थोड़े ज्यादा लोगों के समूह को झूठी, सच्ची भड़काऊ बातों से उकसा सकते हैं और उसके बाद घटनाक्रम पर किसी का जोर नहीं रह जाएगा। ऐसी घटना देश के किसी भी कोने में हो सकती है, जिसका असर पूरे देश के लोगों की मनःस्थिति पर पड़ेगा। मिसाल के तौर पर भारत के चैंपियंस ट्रॉफी जीतने के बाद मध्य प्रदेश के महू में हुई घटना को देख सकते हैं। भारत की जीत की खुशी में पूरा देश जश्न मना रहा था लेकिन एक छोटी सी जगह पर, छोटे से समूह के लोगों की झड़प ने धर्म और संप्रदाय के आधार पर विभाजन को राष्ट्रीय बना दिया।

असल में निहित स्वार्थों की सांप्रदायिक राजनीति धीरे धीरे लोगों की सोचने, समझने की क्षमता को, सहनशीलता को और उत्सव की मूल भावना की अभिव्यक्ति को कम करती जा रही है। सवाल है कि इसके लिए किसको दोष दिया जाए? क्या सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और उसकी पिछले एक दशक की राजनीति इसके लिए दोषी है या स्वाभाविक रूप से नागरिकों में सांप्रदायिक कट्टरता बढ़ रही है, जिससे सहिष्णुता घटती जा रही है और एक साथ मिल कर सद्भाव के साथ रहने और आपस में मिल कर तीज त्योहार या उत्सव मनाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति खत्म होती जा रही है? यह वास्तविकता है कि सांप्रदायिक कट्टरता भारत के समाज में बहुत गहरे जड़ जमाती जा रही है और इसके लिए सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की राजनीति जिम्मेदार नहीं है। उसने तो अपने राजनीतिक लाभ के लिए धर्म के आधार पर विभाजन कराने का प्रयास किया। यह प्रयास भाजपा और उससे पहले भारतीय जनसंघ की ओर से भी किए ही जा रहे थे। लेकिन तब उसमें कामयाबी नहीं मिल पाई थी। पहले कामयाबी क्यों नहीं मिली और अब क्यों मिल गई, इसको लेकर दो तरह की थ्योरी है। एक थ्योरी भाजपा की है, जिसका मानना है कि पहले हिंदू एकतरफा तरीके से बरदाश्त करता रहा। यानी जो सद्भाव समाज में दिख रहा था वह हिंदू के सहिष्णु और उदार होने की वजह से था। इसका मतलब है कि हिंदुओं ने अब सहिष्णुता और उदारता छोड़ दी है तो टकराव बढ़ गया है। दूसरी थ्योरी सेकुलर बिरादरी की है, जिसके मुताबिक सत्ता तंत्र का इस्तेमाल करके राजनीतिक लाभ के लिए व्यवस्थित तरीके से सामाजिक सद्भाव बिगाड़ा जा रहा है। उनके मुताबिक इसके पीछे बड़ी साजिश है।

इन दोनों में कुछ कुछ सचाई हो सकती है। इसके बीच एक तीसरी थ्योरी यह बनती है कि पहले सामाजिक विभाजन की कोशिशें इसलिए कामयाब नहीं हो पाती थीं क्योंकि जो लोग इसके प्रयास करते थे वे भी चुनावों के समय ही इसका प्रयास करते थे। यानी विभाजन के प्रयास में निरंतरता और सांस्थायिकता नहीं थी। दूसरे, शहरीकरण बहुत कम था और उपभोक्ता संस्कृति का विकास नहीं हुआ था। इसकी वजह से मनुष्य एकाकी या अरक्षित या बाजार पर निर्भर नहीं था। उसके अंदर सामूहिकता का भाव स्वाभाविक रूप से मौजूद था, जिससे विभाजनकारी और भड़काऊ बातों से उसे प्रभावित करना मुश्किल था। व्यक्ति पर परिवार, समूह और समाज का असर ज्यादा था। तीसरे, आजादी के बाद कई दशकों तक आजादी की लड़ाई के मूल्य जीवित थे। इसके अलावा सामाजिक स्पेस में ईमानदारी, नैतिकता, समझदारी जैसे मूल्य मौजूद थे। चाहे कारोबारी हों या फिल्म व खेल जगत के लोग हों या सामाजिक कार्यकर्ता हों या नौकरीपेशा लोग हों या मीडिया के लोग हों, सबको अपनी जवाबदेही का अहसास था। किसी भी घटना पर तत्काल समझदारी वाली बातें सुनवाई देने लगती थीं। आग में घी डालने की बजाय आग पर पानी डालने वाले लोग ज्यादा सामने आते थे। आज यह स्थिति पूरी तरह से उलट गई है। आज नेता भी भड़का रहे हैं, अधिकारी भी भड़का रहे हैं, मीडिया भी भड़का रहा है, धर्मगुरू भी भड़का रहे हैं इसलिए चारों तरफ आग लगी हुई दिख रही है।

अन्यथा कोई कारण नहीं था कि होली पर मस्जिदें ढंकी जाएं या नमाज का समय दो घंटे आगे बढ़ाया जाए या होली का त्योहार दो घंटे तक रोक देने की मांग की जाए। उत्तर प्रदेश के एक पहलवान रहे पुलिस अधिकारी ने कह दिया कि मुस्लिम समाज के लोग जुमे की नमाज के लिए नहीं निकलें क्योंकि उनका जुमा तो हर हफ्ते आता है लेकिन होली साल में एक बार आती है। यह बहुत खराब बयान था लेकिन राज्य के महंत मुख्यमंत्री ने इसका समर्थन कर दिया। उधर बिहार में एक विधायक ने मुसलमानों को होली के समय बाहर नहीं निकलने की सलाह दी तो उसी शहर की मेयर ने हिंदुओं से कहा कि वे दो घंटे तक होली स्थगित रखें ताकि मुस्लिम लोग नमाज पढ़ सके।

ऐसे समय में नागरिक समाज की जो भूमिका बनती थी वह निभाने के लिए कोई सामने नहीं आया। उलटे मुसलमानों ने मस्जिदें ढंकनी शुरू कर दीं। हो सकता है कि प्रशासन ने ऐसा कोई सुझाव दिया हो लेकिन कोई मौलवी या मुतवल्ली इसे मानने के लिए बाध्य नहीं था। वह कह सकता था कि रंग या गुलाल पड़ने से मस्जिद अपवित्र नहीं होती है या नमाज पढ़ने जा रहे मुस्लिम पर अगर रंग पड़ गया तो उसका धर्म भ्रष्ट नहीं होता। दूसरी ओर हिंदुओं की ओर से भी नहीं कहा गया कि होली के उत्सव के बीच अजान या नमाज की आवाज आती है तो उससे उत्सव के माहौल में कोई खलल नहीं पड़ेगा। दोनों समुदाय अपने रहनुमाओं की कट्टरता और जहालत के हाथों खेलने लगे। यह खेल काफी समय से चल रहा है, जिसके लाभार्थी थोड़े से नेता हैं, जिनकी सत्ता दांव पर लगी है और नुकसान उठाने वाली बाकी पूरी आबादी है।

पहले हिंदू, मुस्लिम मिल कर अपना त्योहार मनाते थे। फिर सामाजिक दूरी बढ़ी तो दोनों धर्मों के जुलूस वाले त्योहारों में पुलिस सुरक्षा लगाई गई। अब स्थिति यह आ गई है कि होली और ईद भी पुलिस की सुरक्षा में मनाई जाएगी। अब ‘बुरा न मानो होली है’ कह कर हुड़दंग के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता है क्योंकि लोग हर बात का बुरा मानने लगे हैं। यहां ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ भजन गाने पर भी विवाद होने लगा है। फिर भी ईश्वर, अल्लाह से ही तो सबको सन्मति देने की प्रार्थना की जा सकती है। इस प्रार्थना के साथ सबको होली की शुभकामनाएं!

अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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