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01-03-2025 Vol 19

महाकुंभ पर तो चुप रह सकते थे!

नेताओं को चुप रहने की नसीहत देना किसी भी समय मुश्किल काम रहा है, लेकिन आज के  समय में जब हर व्यक्ति के हाथ में कैमरा है और हर व्यक्ति के पास अभिव्यक्ति का प्लेटफॉर्म उपलब्ध है, किसी को भी चुप रहने के लिए कहना और भी मुश्किल काम हो गया है। आज जब हर व्यक्ति ही अपने को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त कर रहा है तो नेता तो इसे अपना परम पुनीत कर्तव्य मानते हैं। फिर भी कुछ बातों पर नेताओं को या सार्वजनिक जीवन में जो भी लोग हैं उनको चुप रहना चाहिए। कई बार चुप रहना नेता को ज्यादा समझदार दिखाता है और बोलना या तो उसकी मूर्खता को जाहिर करता है या उसकी आत्मघाती प्रवृति को प्रकट करता है। महाकुंभ का मामला भी ऐसा ही कुछ है। इस पर नेताओं को कुछ भी बोलने से पहले सौ बार सोचना चाहिए।

महाकुंभ के मामले में नेताओं को मुंह बंद रखने की नसीहत देते हुए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक संस्मरण ध्यान में आ रहा है, जो उन्होंने अपनी किताब ‘संसद में तीन दशक’ में लिखी है। किताब के नाम से ही जाहिर है कि उनके सांसद के रूप में तीन दशक पूरे होने के मौके पर यह किताब आई थी। इसमें उनके कुछ भाषण संकलित हैं और कुछ संस्मरण हैं। उन्होंने लिखा है कि 1957 में जब वे पहली बार उत्तर प्रदेश की बलरामपुर सीट से चुनाव जीत कर संसद में पहुंचे तो उस समय संसद आजादी की लड़ाई के योद्धाओं, विद्वानों और दिग्गज राजनेताओं से भरी थी। तब वाजपेयी संसद में नहीं बोलते थे। एक दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उनसे कहा, ‘अरे नौजवान तुम कुछ क्यों नहीं बोलते’? उस समय वाजपेयी की उम्र 31 साल की थी और उन्होंने जवाब दिया, ‘बोलने के लिए सिर्फ वाणी की जरुरत होती है लेकिन चुप रहने के लिए वाणी और विवेक दोनों की आवश्यकता होती है’। पंडित नेहरू कई दिनों तक इसे दोहराते रहे थे।

आज न नेहरू जैसे लोकतांत्रिक नेता हैं, जो संसद में पहली बार के किसी सांसद को बोलने के लिए प्रेरित करें और न वाजपेयी जैसे सांसद हैं, जो चुप रहने को बोलने से बेहतर विकल्प मानते हों और यह भी मानते हों कि चुप रहने के लिए वाणी और विवेक दोनों की जरुरत है। आज नेता के पास सिर्फ वाणी है, जिसका इस्तेमाल वे कुछ भी बोलने के लिए करते हैं। समूचा समाज ही विवेक शून्य होता जा रहा है तो सिर्फ नेताओं से विवेक की अपेक्षा करना उनके साथ अन्याय होगा। आज यह कहने की जरुरत इसलिए पड़ रही है क्योंकि महाकुंभ और गंगा में डुबकी लगाने को लेकर तीन नेताओं के ऐसे बयान नजर के सामने से गुजरे हैं, जो पूरी तरह से गैरजरूरी थे और अगर वो बयान नहीं दिए जाते तो देश और समाज की स्थिति में रत्ती भर भी फर्क नहीं आने वाला था।

इसमें पहला बयान समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का है, जिन्होंने 16 जनवरी तक सात करोड़ लोगों के महाकुंभ में डुबकी लगाने के आंकड़े को फर्जी करार दिया था। उन्होंने कहा कि सरकार का आंकड़ा फर्जी है। लेकिन वे इतने पर नहीं रूके। उन्होंने आगे कहा कि ट्रेनें खाली चल रही है और गोरखपुर से जाने वाली ट्रेन भी खाली थी। हो सकता है कि आंकड़े में कुछ कमी हो और सात करोड़ से कम लोगों ने संगम पर डुबकी लगाई हो। लेकिन सवाल है कि अगर यह बात नहीं कही जाती है तो क्या आफत आ रही थी? अगर हिंदुओं के आस्था के सबसे बड़े मेले में सात करोड़ लोगों के पहुंचने की बात कही जा रही है तो उससे अखिलेश यादव को क्यों आहत होना चाहिए? क्या महाकुंभ में डुबकी लगाने वाले श्रद्धालुओं की संख्या पर सवाल उठा कर उन्होंने अपनी कुंठा और असुरक्षा बोध को जाहिर नहीं कर दिया है? क्या वे मान रहे हैं कि महाकुंभ में जो लोग डुबकी लगा रहे हैं वे भाजपा के मतदाता हैं और जितनी ज्यादा संख्या बताई जाएगी उतना ज्यादा फायदा भाजपा को होगा?

यह किसी राजनीतिक दल या किसी एक धार्मिक संगठन का आयोजन नहीं है। इसका प्रबंधन राज्य सरकार करती है और 12 साल पहले जब महाकुंभ का आयोजन हुआ था तब उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की ही सरकार थी और उनकी सरकार ने भी इसका बहुत अच्छा प्रबंधन किया था। तब भी महाकुंभ में पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या ऐसे ही बताई जा रही थी। तब भी ऐसा ही दावा किया जा रहा था कि करोड़ों लोग हर दिन डुबकी लगा रहे हैं और शाही स्नान के दिन तो रिकॉर्ड ही टूट रहे हैं। इसलिए अखिलेश यादव को इस तरह के बयान देने से बचना चाहिए था। अगर बड़ी संख्या बताने से आस्था को मजबूती मिल रही है तो उससे अखिलेश को समस्या नहीं होनी चाहिए थी। ऐसा नहीं है कि संख्या बहुत ज्यादा बता देने से अखिलेश की पार्टी को कोई बड़ा राजनीतिक नुकसान हो जाएगा।

इससे पहले आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद ने कहा कि पाप धोने के लिए लोग संगम में डुबकी लगाने जाते हैं। यह भी कोई नई या अनोखी बात नहीं है लेकिन जिस अंदाज में कही गई वह अपमानजनक है। गंगा पापनाशिनी और मुक्तिदायिनी मानी जाती है। कहा जाता है कि गंगा नहाने से पाप धुल जाते हैं। पाकिस्तान के मशहूर गायक अताउल्ला खान के गाने की एक लाइन है, ‘पारसा बन रहे हैं वो ऐसे, जैसे गंगा नहाए हुए हैं’। सोचें, पाकिस्तान के पूर्वी पंजाब के छोटे से सेराएकी इलाके से आने वाला एक गायक कह रहा है कि कोई पाक साफ होने का दावा ऐसे कर रहा है, जैसे गंगा नहाया हुआ हो। यानी गंगा नहाना पाक साफ होना है। कहने की जरुरत नहीं है कि चंद्रशेखर आजाद के हजारों, लाखों समर्थक भी संगम पर डुबकी लगाने गए होंगे। लेकिन अपनी क्रांतिकारिता दिखाने के लिए उन्होंने यह लाइन बोली कि पाप धोने लोग महाकुंभ में जाते हैं। वे महाकुंभ को कमतर करके दिखाने का दयनीय प्रयास कर रहे थे।

बिल्कुल ऐसा ही बयान बिहार सरकार की मंत्री शीला मंडल ने दिया है। पिछले दिनों प्रशांत किशोर ने अपना आमरण अनशन खत्म करने से पहले गंगा में डुबकी लगाई और हवन करने के बाद अनशन समाप्त करके सत्याग्रह शुरू किया तब शीला मंडल ने कहा कि जो लोग पाप करते हैं वे ही गंगा में डुबकी लगाते हैं। प्रशांत किशोर को निशाना बनाने के और भी कई तरीके हो सकते हैं। उनके कई काम हैं, जिनको लेकर उनके खिलाफ वस्तुनिष्ठ तरीके से आरोप लगाए जा सकते हैं। लेकिन उनके गंगा में डुबकी लगाने को लेकर उन पर हमला करना राजनीतिक रूप से नुकसानदेह है और सामाजिक रूप से भी एक बड़े तबके की भावना को आहत करने वाला है। ध्यान रहे हर हिंदू मानता है कि गंगा में नहाने से पाप धुलते हैं लेकिन इसका मजाक बनाया जाना या इस आधार पर किसी को अपमानित करना उसको पसंद नहीं आएगा।

चाहे चंद्रशेखर आजाद हों या शीला मंडल उनके कहने का एक मतलब यह भी है कि उन्होंने कोई पाप नहीं किया है इसलिए उनको गंगा नहाने जाने की जरुरत नहीं है। ऐसा मानने वाले बहुत से और लोग भी होंगे। लेकिन ऐसे तमाम लोग हिंदू धर्म में गंगा स्नान के सूक्ष्म विचार को ही नहीं समझ रहे हैं। वे यह भी नहीं समझ रहे हैं कि यह विचार हर धर्म में किसी न किसी रूप में मौजूद है कि अगर किसी ने मनसा, वाचा या कर्मणा कुछ गलत किया है तो उसे स्वीकार करे और उससे मुक्ति के प्रयास करे। ईसाई धर्म में तो हर गिरिजाघर में अपराध स्वीकारोक्ति का कमरा बना होता है। जैन धर्म के लोग जाने अनजाने में हुई गलतियों के लिए क्षमा मांगते हैं। ‘मिच्छामी दुक्कडम’ बोलते हैं। उसी तरह से हिंदू लोग गंगा स्नान करते हैं। उनका गंगा स्नान मनसा, वाचा कर्मणा जाने अनजाने में हुई गलतियों के प्रायश्चित के लिए है। इसका सूक्ष्म अर्थ मन की शुद्धि से जुड़ा है। यह भी ध्यान रखने की जरुरत है हिंदू धर्म में कर्म फल से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। बहरहाल, मामला महाकुंभ का हो या उर्स और जियारत का वह विशुद्ध रूप से लोगों की आस्था से जुड़ा होता है और इसलिए उस पर अनर्गल बयान देना कोई समझदारी की बात नहीं होती है।

अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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