प्रयागराज में त्रिवेणी के संगम पर हुए पूर्णकुंभ, जिसे महाकुंभ कहा जा रहा है, से जो कुछ प्राप्त हुआ है उसकी अनेक प्रकार की व्याख्या हो रही है। समापन के बाद ‘जाकी रही भावना जैसी’ के अंदाज में हर व्यक्ति इस महाकुंभ को अपने अपने दृष्टिकोण से देख रहा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने अंदाज में इस बात को कहा। उन्होंने कहा कि, ‘गिद्धों को लाशें दिखीं और सुअरों को गंदगी’। जाहिर है ये दोनों चीजें यानी ‘लाशें’ और ‘गंदगी’ भी किसी न किसी मात्रा में मौजूद थीं, जो उनके हिसाब से ‘गिद्धों’ और ‘सुअरों’ को दिखीं।
वे देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री होने के साथ साथ गोरखनाथ पीठ के महंत भी हैं फिर भी इतने बड़े सफल आयोजन के बाद भी वे ‘गिद्ध’, ‘लाश’, ‘सुअर’, ‘गंदगी’ आदि के विमर्श में उलझे रहे। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी के उन्नाव के सांसद साक्षी महाराज को दिखा कि इस महाकुंभ ने 2027 के चुनाव परिणाम बता दिए हैं। उन्होंने कहा कि महाकुंभ से पता चल गया है कि 2027 में फिर से भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीतेगी और इसी कारण समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव परेशान हो रहे हैं। साक्षी महाराज धार्मिक व्यक्ति हैं लेकिन महाकुंभ में धार्मिकता और आध्यात्मिकता से ऊपर उनको राजनीति और चुनावी जीत की गारंटी
दिखी।
परंतु जो उनको दिखा क्या वह वास्तविकता है? क्या सचमुच उत्तर प्रदेश की सरकार को और व्यापक रूप से भारतीय जनता पार्टी को राजनीति का अमृत मिल गया? क्या महाकुंभ के सफल और भव्य आयोजन से उसकी सत्ता चिरस्थायी हो गई? सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 45 दिन के इस भव्य आयोजन में 66 करोड़ लोगों ने संगम पर डुबकी लगाई। सोचें, अमेरिका की कुल आबादी से दोगुने लोग 45 दिन की अवधि में एक क्षेत्र विशेष में इकट्ठा हुए और धर्म, आध्यात्म की डुबकी लगाई! जितने आस्थावान हिंदुओं ने महाकुंभ में डूबकी लगाई अगर उसके आधे लोग भी भाजपा को वोट करें तो उसकी सत्ता स्थायी हो जाएगी। पिछले लोकसभा चुनाव में यानी 2024 में भाजपा को 23 करोड़ 60 लाख वोट मिले थे। सोचें, करीब साढ़े 23 करोड़ वोट हासिल करके भाजपा ने 240 सीटें जीतीं तो उसे 33 करोड़ वोट जाए तो उसकी सीटें कितनी हो जाएंगी? इसी संख्या और संगम पर डुबकी लगाने वालों के राजनीतिक रूझान का आकलन करके साझी महाराज ने 2027 के परिणाम की भविष्यवाणी कर दी है।
परंतु 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में भव्य राममंदिर के उद्घाटन पर कई दिन तक हुए भव्यतम कार्यक्रम के बाद भी क्या यही नहीं माना जा रहा था? हर व्यक्ति यहां तक कि विपक्षी पार्टियां भी मान रही थीं कि अब उनका चुनाव जीतना मुश्किल होगा। रामंदिर के उद्घाटन से पूरे देश में जिस धार्मिक भावना का संचार हुआ था और जो माहौल बना था, उसमें भाजपा का जीतना महज औपचारिकता थी। तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से चार सौ सीट के लक्ष्य की घोषणा हुई थी। उसका अंत नतीजा क्या हुआ वह सबको पता है। भाजपा उत्तर प्रदेश में भी बुरी तरह से हारी। अयोध्या नगरी वाली फैजाबाद लोकसभा सीट भी हार गई। उसकी सीटें 303 से घट कर 240 हो गईं। ऐसा नहीं था कि भगवान राम में लोगों की आस्था कम थी या वे अयोध्या में भव्य राममंदिर के उद्घाटन से खुश नहीं थे।
सभी आस्थावान हिंदू खुश थे लेकिन उनकी धार्मिक, आध्यात्मिक खुशी अपनी जगह है और उनका राजनीतिक रूझान अपनी जगह है। हिंदू होने की धार्मिक अस्मिता और अलग अलग जातियों का होने की राजनीतिक अस्मिता बिल्कुल अलग हैं। भारत का नागरिक एक साथ कई अस्मिताएं धारण किए होता है। आंदोलन कर रहे किसान या छात्र की एक अस्मिता होती है लेकिन आंदोलन के बाद उसकी किसान व छात्र वाली अस्मिता खूंटी पर टांग दी जाती है। ऐसे ही महाकुंभ में पहुंचने वाले 66 करोड़ लोगों की धार्मिक अस्मिता एक चीज है और महाकुंभ से लौटने के बाद जब वे अपने अपने गांव, कस्बे या शहर में लौटते हैं तो उनकी अस्मिता बदल जाती है। सब अपने अपने जातीय, सामाजिक और आर्थिक खांचे के हिसाब से बने भौतिक व भावनात्मक खोल में सेट हो जाते हैं। फिर उनका राजनीतिक व्यवहार भी उनकी इसी अस्मिता से प्रभावित होता है।
कहा जा रहा है कि संगम तट पर भारत की विविधता, एकता और विशालता की झलक दिखी। देश की सामाजिक एकता का प्रत्यक्ष प्रमाण मिला। आर्थिक एकता इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि जो पांच लाख लोग हवाई जहाज से पहुंचे या जिन सात सौ लोगों के विशेष विमान उतरे वे ट्रेन से पहुंचने वाले करीब पांच करोड़ और बसों व गाड़ियों से असहनीय कष्ट उठा कर पहुंचे अन्य करोड़ों भक्तों के तुलना में तो विशिष्ट थे ही। अच्छी बात यह है कि जहां धर्म की बात होती है वहां उन विशिष्ट लोगों से हम भारतीयों को किसी तरह की समस्या नहीं होती है। हम मानते हैं कि यह प्रारब्ध है कि वह विशेष विमान से आ रहा है और हम 72 घंटे तक किसी हाईवे पर जाम में फंसे रहने के बाद 12 किलोमीटर पैदल चल कर संगम तक पहुंच रहे हैं। बहरहाल, जो सामाजिक एकता भी दिखी वह हमारे दिलों में स्थायी रूप से नहीं बैठती है।
हम महाकुंभ में हर जाति के लोगों के साथ कंधे टकराते हुए डुबकी लगाने जाते हैं लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है कि उसके बाद हम उन तमाम लोगों के साथ रोटी या बेटी का रिश्ता जोड़ें। ऐसे तमाम आयोजनों के बाद समाज की इस सचाई में रत्ती भर बदलाव नहीं आता। सो, अगर हम अगड़ा-पिछड़ा, पिछड़ा-दलित, दलित-महादलित आदि की बाधा को रोटी-बेटी के लिए नहीं तोड़ सकते हैं तो यह उम्मीद कैसे करते हैं कि राजनीति के लिए यह बाधा टूट जाएगी? अगर सामाजिक स्तर पर यह बाधा नहीं टूटती है तो राजनीतिक स्तर पर भी मौजूद रहेगी। इसलिए साक्षी महाराज का निष्कर्ष उनकी सदिच्छा से प्रेरित लगता है। वे चाहते हैं कि 2027 में और उसके आगे भी भाजपा जीतती रहे इसलिए वे महाकुंभ के सफल आयोजन को उस दृष्टि से देख रहे हैं।
बहरहाल, हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि अगर कष्ट उठा कर आस्था के केंद्र पर पहुंचेंगे तो मनवांछित फल प्राप्त होने की संभावना बढ़ जाती है। सो, सड़कों पर लगे मीलों के जाम या मीलों पैदल चलने या भीड़ में खो जाने और मुश्किल से त्रिवेणी संगम तक पहुंचने की तात्कालिक शिकायतों के बाद भी महाकुंभ को लेकर आस्थावान हिंदुओं की प्रतिक्रिया अनंत आनंद, आध्यात्मिक संतोष और भक्ति वाली थी। वे अपने को धन्य मान रहे थे। ऐसी यात्राओं या आयोजनों का उद्देश्य सबके लिए एक ही होता है। सबका उद्देश्य कुछ न कुछ प्राप्त करना होता है। आखिर हिंदू धर्म का आरंभ आस्था से होता है और प्राप्ति पर उसकी पूर्णता होती है। भारत का आम नागरिक परमहंसों वाली उस दशा में पहुंच गया है, जहां उसे अपने कष्टों से ज्यादा मतलब नहीं रह गया है। वह इस बात से परम प्रसन्न है कि उसने भी उसी घाट पर डुबकी लगाई, जहां देश के सबसे अमीर कारोबारी ने और देश के सबसे ताकतवर राजनेता ने डुबकी लगाई।
वह इस बात से संतुष्ट है कि वह छूटा नहीं। उसने भी डुबकी लगा ली और उसकी व उसकी कई पीढ़ियों की स्मृति में यह बात दर्ज हो गई। इससे ज्यादा इस विशाल आयोजन में कुछ भी देखने या पढ़ने की जरुरत नहीं है। ऐसा नहीं है कि महाकुंभ से लौटे व्यक्ति में पहले से ज्यादा दया, करुणा, त्याग, क्षमा, उदारता, सादगी, सचाई, सच्चरित्रता की भावना आ जाएगी। डुबकी लगाते समय अगर उसके अंदर इन भावनाओं का संचार हुआ भी होगा तो वह महाकुंभ से निकलते ही तिरोहित हो गया होगा। अगर अभी उसने धार्मिक भावना के ज्वार में आयोजन की कमियों और अपने कष्टों को नजरअंदाज किया है तो हो सकता है कि मतदान के समय उसको यह सब याद आ जाए। इसलिए महाकुंभ से राजनीतिक सत्ता चिरस्थायी हो जाने की सोच पूरी तरह से सही नहीं है।