वैसे तो इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस भी कई राज्यों में भाजपा को अच्छी टक्कर देती दिख रही है। दक्षिण में कर्नाटक से लेकर उत्तर में हरियाणा तक कांग्रेस कई राज्यों में मजबूती से लड़ रही है। लेकिन भाजपा को असली चिंता कांग्रेस की नहीं, बल्कि प्रादेशिक पार्टियों की है। उसके लिए अहम राज्यों में प्रादेशिक पार्टियां मजबूत हैं और उनके खिलाफ लड़ाई का इतिहास भी भाजपा के बहुत अनुकूल नहीं रहा है। हालांकि कहा जा सकता है कि प्रादेशिक पार्टियों के साथ विधानसभा चुनाव की लड़ाई में भाजपा कमजोर पड़ती है लेकिन लोकसभा में वह उनको मात दे देती है।
यह बात कुछ हद तक ठीक है। लेकिन 10 साल के राज के बाद लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और उसके सांसदों के लिए जवाब देना भारी पड़ रहा है। इसके अलावा राज्यों में सामाजिक समीकरण कुछ इस तरह के बन रहे हैं कि भाजपा की मुश्किलें बढ़ रही हैं। यही कारण है कि वह उन राज्यों में गठबंधन बनाने पर ज्यादा ध्यान दे रही है, जहां उसे प्रादेशिक पार्टियों से लड़ना है। उन्हीं राज्यों में अभी तक टिकटों की घोषणा भी अटकी है और भाजपा को ज्यादा तैयारी भी करनी पड़ रही है।
अगर प्रादेशिक पार्टियों के असर वाले राज्यों की बात करें तो महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और उत्तर प्रदेश बहुत अहम हैं। इन छह राज्यों में लोकसभा की 245 सीटें हैं, जिनमें से भाजपा के पास करीब डेढ़ सौ सीटें हैं। उसकी सहयोगियों के पास 40 के करीब सीटें हैं। यानी 190 के करीब सीटें एनडीए के पास हैं। सोच सकते हैं कि ये राज्य भाजपा के लिए कितने अहम हैं। इन सभी छह राज्यों में भाजपा की लड़ाई मुश्किल हो गई है।
इसलिए उसने प्रादेशिक पार्टियों को तोड़ने, उन्हें कमजोर करने और जहां जरुरत हुई वहां उनको अपने साथ मिलाने का दांव चला है। जिन पार्टियों पर उसका दांव नहीं चला, जैसे बिहार में राजद, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी आदि तो उनके नेताओं पर केंद्रीय एजेंसियों की अंधाधुंध कार्रवाई हुई।
जहां दांव चल गया वहां प्रादेशिक पार्टी को एनडीए में शामिल कराया गया। बिहार में नीतीश कुमार की जदयू और उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी की रालोद को एनडीए में लिया गया और ओडिशा में बीजू जनता दल को साथ लाने की कोशिश हो रही है। इसका साफ संदेश है कि भाजपा इन राज्यों में प्रादेशिक पार्टियों के गठबंधन से लड़ने में अपने को अक्षम पा रही है।
सबसे पहले बिहार में नीतीश कुमार को तोड़ा गया। वे विपक्षी गठबंधन के आर्किटेक्ट थे। उनके टूटने से विपक्षी गठबंधन के मनोबल पर बड़ा असर पड़ा। भाजपा ने वहां जनता दल यू, लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास, हिंदुस्तान आवाम मोर्चा और राष्ट्रीय लोक मोर्चा से तालमेल किया है फिर भी राजद, कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई एमएल का गठबंधन चुनौती दे रहा है। अगर निषाद राजनीति करने वाली विकासशील इंसान पार्टी उस गठबंधन से जुड़ती है तो चुनौती और बड़ी होगी।
ऐसे ही झारखंड में जेएमएम को तोड़ने के तमाम प्रयास हुए। उसके नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जेल में डाला गया और उनकी भाभी सीता सोरेन को भाजपा में शामिल कराया गया। इसके बावजूद जेएमएम, कांग्रेस, सीपीआई और राजद का गठबंधन राज्य की 14 सीटों पर बड़ी चुनौती दे रहा है। तमाम हवा बनाने के बाद भी बिहार में राजद और झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा से लड़ना भाजपा के लिए भारी पड़ रहा है।
महाराष्ट्र में शिव सेना से अलग हुए एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन गए और उनके गुट को असली शिव सेना की मान्यता भी मिल गई। इसी तरह शरद पवार से अलग हुए उनके भतीजे अजित पवार को उप मुख्यमंत्री बनाया गया और उनके गुट को असली एनसीपी की मान्यता भी मिल गई। इसके बावजूद भाजपा बहुत भरोसे में नहीं है। उसने अब राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को भी गठबंधन में शामिल करने का दांव चला है।
इतना बड़ा गठबंधन बनाने के बावजूद भाजपा महाराष्ट्र में बैकफुट पर है और ऐसा उद्धव ठाकरे व शरद पवार की वजह से है। इन दोनों प्रादेशिक क्षत्रपों से लड़ना भाजपा के लिए बहुत मुश्किल हो रहा है। तभी चुनाव पूर्व तमाम सर्वेक्षणों में उद्धव ठाकरे, शरद पवार और कांग्रेस गठबंधन को आगे बताया जा रहा है। अगर इसमें प्रकाश अंबेडकर और राजू शेट्टी भी जुड़ते हैं तो भाजपा की मुश्किलें और बढ़ेंगी।
पश्चिम बंगाल में विशुद्ध रूप से धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण होता दिख रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में इसी वजह से भाजपा को 41 फीसदी के करीब वोट मिले थे। हालांकि विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा को बड़े अंतर से मात दी थी। इस वजह से पश्चिम बंगाल में अनुकूल स्थितियां होने के बावजूद भाजपा चिंता में है।
उसको लग रहा है कि ममता बनर्जी बांग्ला भाषा और अस्मिता को मुद्दा बना सकती हैं। ध्यान रहे बंगाल में भाजपा को छप्पर फाड़ जीत मिली थी। वह दो सीटों से सीधे 18 सीट पर पहुंच गई थी। इस बार भाजपा वहां ज्यादा उम्मीद लगाए हुए है। हाल की संदेशखाली की घटना को भाजपा ने जिस तरह से हाईलाइट किया उससे लग रहा है कि वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दांव से चुनाव जीतना चाहती है। लेकिन ममता का प्रतिरोध बहुत मजबूत है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास 62 और उसकी सहयोगी अपना दल के पास दो सीटें हैं। उससे पहले 2014 में भाजपा ने 71 और उसकी सहयोगी ने दो सीटें जीती थीं। यानी 73 सीटें एनडीए के पास थीं, जिसमें 2019 में नौ सीटों की कमी आ गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सपा और बसपा मिल कर लड़े थे। इस गठबंधन की वजह से कई सीटों पर भाजपा बहुत कम अंतर से जीती थी। इस बार बसपा ने तालमेल नहीं किया है। मायावती तालमेल नहीं करने का जो कारण बता रही हैं उस पर किसी को यकीन नहीं है। किसी परोक्ष दबाव की वजह से वे अकेले लड़ रही हैं और उनके इस फैसले की लाभार्थी भाजपा होगी।
फिर भी भाजपा ने प्रयास करके जयंत चौधरी की पार्टी रालोद को सपा से अलग किया और खुद तालमेल किया। उसने अपना दल, रालोद के साथ निषाद पार्टी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से भी तालमेल किया है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहां राममंदिर का मुद्दा सबसे बड़ा हो सकता है वहां भाजपा को इतनी तैयारी करनी पड़ रही है सिर्फ समाजवादी पार्टी से लड़ने के लिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दक्षिण के राज्यों में बहुत मेहनत कर रहे हैं। वे लगातार पांच दिन तक दक्षिण के पांच राज्यों में प्रचार करते रहे। इनमें से सिर्फ कर्नाटक में उनको कांग्रेस से लड़ना है। बाकी चार राज्यों की लड़ाई त्रिकोणात्मक है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में इसलिए भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। तमिलनाडु में भाजपा केंद्रीय ताकत नहीं है क्योंकि वहां दो प्रादेशिक पार्टियां बहुत मजबूत हैं। डीएमके और अन्ना डीएमके के बीच ही राज्य की राजनीति झूलती रहती है।
इस बार भाजपा इन दोनों से लड़ने के लिए नया गठबंधन बना रही है। अंबुमणि रामदॉस की पीएमके और जीके वासन की तमिल मनीला कांग्रेस से लेकर टीटीवी दिनाकरण की एएमएमके और अन्ना डीएमके के ओ पनीरसेल्वम खेमे के साथ तालमेल कर रही है। आंध्र प्रदेश में भाजपा को पता था कि जगन मोहन रेड्डी की पार्टी से वह नहीं लड़ सकती है तो उसने चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और पवन कल्याण की जन सेना से तालमेल किया है।
कर्नाटक की एकमात्र प्रादेशिक पार्टी जेडीएस से भाजपा ने तालमेल कर लिया है। तेलंगाना में भाजपा का प्रयास किसी तरह से के चंद्रशेखर राव की पार्टी बीआरएस को मुकाबले में लाने का है ताकि त्रिकोणात्मक लड़ाई बने। यानी उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक भाजपा प्रादेशिक क्षत्रपों के असर वाले राज्यों में किसी तरह से तालमेल के प्रयास में लगी है क्योंकि उसे लग रहा है कि प्रादेशिक क्षत्रपों से लड़ना अपेक्षाकृत मुश्किल है।
यह भी पढ़ें: