न्यायिक सक्रियता की हमेशा आलोचना होती रही है। यह आम धारणा है कि सरकार कमजोर होती हैं तो न्यायपालिका सक्रिय हो जाती है और वह विधायिका व कार्यपालिका दोनों के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करती है या करने की कोशिश करती है। भारत में न्यायिक सक्रियता की सबसे तेज गूंज तभी सुनाई दी थी, जब देश में गठबंधन की सरकारों का दौर शुरू हुआ। आठवें दशक के आखिरी दिनों से लेकर समूचे नब्बे के दशक में भी न्यायपालिका खूब सक्रिय रही। अनायास नहीं है कि उसी दौर में जजों की नियुक्ति और तबादले का कॉलेजियम सिस्टम भी शुरू हुआ। उस समय सर्वोच्च अदालत के फैसलों से कई नीतियां तय हुईं। आरक्षण की सीमा तय करने से लेकर क्रीमी लेयर बनाने तक के सारे काम उसी दौर में हुए।
तब भी न्यायपालिका की खूब आलोचना होती थी। लेकिन उस समय की आलोचना और अभी हो रही आलोचना में एक बुनियादी फर्क है। उस समय अदालतों के फैसले के गुणदोष पर ज्यादा चर्चा होती थी। हर फैसले को उसके गुणदोष की कसौटी पर कसा जाता था। आलोचना के लिए संवैधानिक तर्क दिए जाते थे। लेकिन अब आलोचना में बौद्धिक दरिद्रता झलकती है। अब फैसले के गुणदोष पर बात नहीं होती है और न फैसले को गलत साबित करने के लिए कोई संवैधानिक तर्क दिया जाता है। अब न्यायपालिका की आलोचना राजनीति में चलने वाले कुतर्कों से की जाती है।
मिसाल के तौर पर तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा विधानसभा से पारित 10 विधायकों को लंबे समय तक लंबित रखने के मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जो आलोचना हो रही है उसमें इस फैसले को संवैधानिक प्रावधानों की कसौटी पर गलत साबित करने का एक भी तर्क नहीं दिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अदालतें कानून बनाने लगेंगी तो संसद और विधानसभाओं में ताला लगा देना चाहिए। लेकिन क्या कोई बता सकता है कि अदालत ने कौन सा कानून बना दिया है? कानून तो बना हुआ है कि विधानसभा से पारित किसी भी विधेयक को राज्यपाल मंजूरी देंगे या वापस लौटाएंगे या राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजेंगे।
यही तीन विकल्प हैं। कानून में यह भी लिखा हुआ है कि अगर राज्यपाल ने विधेयक लौटाया है और विधानसभा उसे दोबारा पारित करके भेजेगी तो अनिवार्य रूप से राज्यपाल को उस पर मंजूरी देनी होगी। यह सब संविधान में लिखा हुआ है। लेकिन इस कानून में एक लूपहोल खोज लिया गया कि इसमें यह नहीं लिखा गया है कि कितने समय में बिल को मंजूरी देनी है या कितने समय में लौटाना है। इस लूपहोल के आधार पर बिल तीन तीन साल लटका दिए गए। सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ इस संवैधानिक प्रावधान की व्याख्या की है और उसकी विसंगति को दूर किया है। सोचें, आमतौर पर कानून से बचने के लिए आरोपियों के वकील कानून के लूपहोल्स निकालते हैं। लेकिन जब संवैधानिक प्राधिकार लूपहोल्स का इस्तेमाल करने लगे तो क्या किया जाए!
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने वाले तमाम सांसदों, नेताओं, कथित बुद्धिजीवियों, यूट्यूबर्स आदि को पढ़ने और उनके वीडियो सुनने के बाद यह निष्कर्ष निकला है कि मेरिट पर भले फैसला सही हो लेकिन न्यायपालिका में बहुत कमियां हैं इसलिए उनका फैसला गलत है। फैसले का विरोध करने वाले ‘विद्वानों’ ने जो तर्क दिए, उनमें से कई बहुत दिलचस्प हैं। कहा गया, कॉलेजियम के जरिए जजों की नियुक्ति और तबादले होते हैं और इसमें भाई-भतीजावाद होता है, अमुक व्यक्ति को जमानत देने के लिए एक चीफ जस्टिस ने एक दिन में दो बार बेंच बदली, अमुक व्यक्ति के लिए छुट्टी के दिन बेंच बैठी, अमुक व्यक्ति के मामले में सुनवाई के लिए आधी रात को अदालत खुली, अमुक जज के यहां से नोटों के बंडल निकले लेकिन एफआईआर नहीं हुई, अदालतों में बहुत छुट्टियां होती हैं, अदालतों में करोड़ों मामले लंबित हैं, जज महीनों तक फैसला सुरक्षित रख लेते हैं, जज अपनी संपत्ति का ब्योरा नहीं देते हैं आदि आदि।
‘विद्वानों’ ने यह साबित किया है कि अदालतें अब भी कांग्रेस के हिसाब से चलती हैं क्योंकि कांग्रेस आजादी के समय से वकीलों की पार्टी रही है। यह भी कहा जा रहा है कि अमुक वकील के पिता भी किसी हाई कोर्ट के एडवोकेट जनरल थे या अमुक आरोपी के पिता कई बरसों तक अटॉर्नी जनरल रहे। सोचें, इसमें राज्यपाल और राष्ट्रपति पर दिए गए फैसले का पहलू कहां है? बौद्धिक दरिद्रता का आलम यह है कि न्यायपालिका की आलोचना के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार द्वारा किए गए पहले संविधान संशोधन की तरफदारी की जा रही है और यह भी याद दिलाया जा रहा है कि इंदिरा गांधी व राजीव गांधी ने हैसियत बता दी थी न्यायपालिका की। इस पूरी जमात का सबसे बड़ा बौद्धिक तर्क यह है कि देश के करोड़ों लोगों ने जिनको चुना है वे सबसे ऊपर हैं और काला कोट पहनने वाले दो या पांच लोग तय नहीं करेंगे कि देश के लिए क्या अच्छा है। यह एक धूर्ततापूर्ण तर्क है, जो संवैधानिक व्यवस्था की बजाय चुनी हुई सरकार की तानाशाही की तरफदारी करता है।
अगर इस तर्क को मानें कि चुनी हुई सरकार सबसे ऊपर है और उसे ही यह तय करने का अधिकार है कि देश और उसकी जनता के लिए क्या अच्छा है तो फिर किसी भी मसले पर अदालतों के फैसलों की क्या जरुरत है? सोचें, यही कुपढ़ और अपढ़ लोग जो एक फैसले के लिए न्यायपालिका की बखिया उधेड़ रहे हैं उन्होंने उसी न्यायपालिका के कितने फैसलों का जश्न मनाया है! जब काला कोट पहनने वाले लोग कुछ भी तय नहीं कर सकते हैं तो फिर उनके फैसलों पर जश्न मनाने की क्या जरुरत है? असल में इनकी तारीफों की तरह ही इनकी आलोचना भी दिशाहीन और बुद्धिनिरपेक्ष है।
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या की जमीन हिंदू पक्ष को दे दी और कहा कि मुस्लिम पांच किलोमीटर दूर मस्जिद बनाएं तो अदालत की जय जयकार हुई। अदालत ने कह दिया कि ईवीएम से चुनाव में कोई गड़बड़ी नहीं है तो अदालत की जय जयकार हुई। अदालत ने कहा कि पांच से ज्यादा वीवीपैट मशीनों का ईवीएम से मिलान करने की जरुरत नहीं है तो अदालत की जय जयकार हुई। अदालत ने कहा कि वाराणसी के ट्रायल कोर्ट के जज ने ज्ञानवापी के सर्वे की मंजूरी देकर ठीक किया है क्योंकि सर्वे से किसी धर्मस्थल की संरचना नहीं बदल रही है और इसलिए यह धर्मस्थल कानून का उल्लंघन नहीं है तो अदालत की जय जयकार हुई।
अदालत ने कह दिया कि चुनावी बॉन्ड से चंदा अवैध था लेकिन पार्टियों को मिला चंदा वापस लेने या उसकी जांच की जरुरत नहीं है तो अदालत की जय जयकार हुई, अदालत ने तीन तलाक को अवैध घोषित कर दिया तो उसकी जय जयकार हुई, अदालत ने अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले को सही ठहराया तो उसकी जय जयकार हुई। लेकिन उसी अदालत ने कह दिया कि विधानसभा से पारित विधेयक को राज्यपाल द्वारा एक निश्चित समय सीमा में मंजूरी दे दी जानी चाहिए तो फिर अदालत की सारी कमियां और जजों की कई पुश्तों की सच्ची झूठी कहानियां सामने आ जाती हैं। अदालत वाक व अभिव्यक्ति की आजादी बचाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66ए को निरस्त कर दे या फिर समलैंगिकता को अपराध बनाने वाली धारा को निरस्त कर दे तो फिर अदालत की ऐसी तैसी कर दी जाती है।
इन्हीं कुतर्कों के आधार पर अगर विधायिका और कार्यपालिका के बारे में विचार किया जाए तो क्या होगा? लोकसभा के करीब आधे सांसदों के ऊपर आपराधिक मामले हैं। हत्या, बलात्कार, डकैती, बैंक लूट, चोरी, अपहरण, हत्या के प्रयास, मारपीट, बैंक फ्रॉड, ठगी, धोखाधड़ी जैसे आपराधिक मामलों के आरोपी संसद और विधानसभाओं में हैं। सांसदों पर पैसे लेकर वोट देने और पैसे लेकर प्रश्न पूछने के आरोप लगे हैं। निर्वाचित प्रतिनिधियों के झूठे ट्रैवल बिल बनाने का किस्सा भी कुछ समय पहले सामने आया था। निर्वाचित प्रतिनिधियों पर अपनी निधि का पैसा कमीशन लेकर बेचने की आरोप लगते रहे हैं और कहीं भी इसकी कहानियां सुनने को मिल सकती है। राजनीति में वंशवाद फलफूल रहा है और धनबल, बाहुबल से लोग चुनाव जीत रहे हैं। इस तरह के सभी लोग कानून बना सकते हैं क्योंकि इनको जनता ने चुना है लेकिन कानून की पढ़ाई करके और बरसों प्रैक्टिस के बाद जज बने लोग कानून की व्याख्या नहीं कर सकते हैं क्योंकि वे कॉलेजियम से चुने जाते हैं, छुट्टी बहुत करते हैं, मुकदमे बहुत लंबित हैं आदि आदि।
बहरहाल, तमिलनाडु सरकार बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जितना भी बोला या लिखा गया है उसमें कहीं भी यह सुनने या पढ़ने को नहीं मिला कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के पद का सृजन करते समय संविधान सभा में क्या बहस हुई थी। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने क्या कहा था? प्रोफेसर केटी शाह ने क्या कहा और क्या संशोधन प्रस्तावित किया? टीटी कृष्णामचारी ने क्या कहा? इमरजेंसी के समय क्या हुआ था? उससे एक साल पहले शमशेर सिंह बनाम पंजाब सरकार के केस में क्या हुआ था? अभी हाल के दिनों में नबाम रेबिया बनाम डिप्टी स्पीकर के मामले में क्या हुआ था? फर्स्ट या सेकंड जज केस क्या है? गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार या केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार या मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार का केस क्या है? संविधान के बुनियादी ढांचे का सिद्धांत कैसे और किन परिस्थितियों में सामने आया? कॉलेजियम का सिस्टम किन हालात में बना? बस मुंह उठाए और आलोचना कर दी। चूंकि न्यायपालिका की आलोचना मौजूदा राजनीतिक माहौल के अनुरूप है तो अनापशनाप तर्क गढ़ कर आलोचना की जा रही है।