बिहार विधानसभा चुनाव से पहले राजनीति दिलचस्प होती जा रही है। एनडीए के बड़े सामाजिक आधार के नाम पर उसका चुनाव जीतना निश्चित मान रहे लोगों का विश्वास भी डगमगा रहा है। ऐसा नहीं है कि एनडीए एकजुट नहीं है या नीतीश कुमार की सरकार के प्रति कोई भयानक गुस्सा है और लोग सत्ता पलट देने की जिद लिए हुए हैं। गुस्से से ज्यादा लोगों में नीतीश की सेहत की वजह से निराशा और उदासीनता है। वे 20 साल से एक पार्टी और एक व्यक्ति के राज से उबे और थके हुए भी हैं। तभी यह धारणा बन रही है कि ओडिशा में जो बदलाव 24 साल के बाद आया वह बिहार में 20 साल के बाद आ सकता है। ध्यान रहे पश्चिम बंगाल में भी लेफ्ट मोर्चा ने 24 साल के बाद मुख्यमंत्री बदल दिया था और अगले 10 साल दूसरे मुख्यमंत्री के चेहरे पर राजनीति हुई थी।
गुजरात में भाजपा के शासन के 30 साल हो गए हैं लेकिन इस अवधि में आधा दर्जन मुख्यमंत्री बदले हैं। बिहार में लगभग 20 साल से नीतीश कुमार का राज है। अब उनकी सेहत खराब है और उनकी पार्टी या गठबंधन ने कोई दूसरा नेता पेश नहीं किया है। दूसरी ओर अपने होशोहवास में नीतीश ने दो बार तेजस्वी यादव को उप मुख्यमंत्री बनाया और अहम मंत्रालय चलाने का जिम्मा दिया। सो, नीतीश की अनुपस्थिति से जो रिक्त स्थान बनेगा उसे भरने के लिए किसी भी दूसरे नेता के मुकाबले तेजस्वी ज्यादा स्वाभाविक पसंद दिख रहे हैं। भाजपा ने इस बात को समझा है और तभी किसी न किसी तरीके से बार बार मौजूदा उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी का चेहरा प्रोजेक्ट किया जा रहा है। वे भाजपा और एनडीए की एकमात्र उम्मीद हैं।
परंतु पिछले 20 साल की राजनीति में पहली बार ऐसा दिख रहा है कि एनडीए के मुकाबले विपक्षी गठबंधन भी बहुत ताकतवर हुआ है। पिछले चुनाव में भी चिराग पासवान फैक्टर की वजह से राजद, कांग्रेस और लेफ्ट का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा था। लेकिन इस बार वैसे किसी एक्सटर्नल फैक्टर के बगैर भी ‘इंडिया’ ब्लॉक मजबूत हुआ है। कह सकते हैं कि जिस तरह से 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का गठन हुआ और उसने इतनी मजबूती से चुनाव लड़ा कि अबकी बार चार सौ पार का नारा लगा रही भाजपा को 240 सीटों पर ला दिया। ‘इंडिया’ ब्लॉक की मजबूती से भाजपा ने 63 सीटें गंवाई। उस गठबंधन की सबसे खास बात यह था कि विपक्षी पार्टियों ने ज्यादा से ज्यादा घटक दलों के साथ लेने और उन्हें उनकी पसंद की सीटें देकर एडजस्ट किया। इसके लिए सबसे बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस को काफी समझौता करना पड़ा। उसने ऐतिहासिक रूप से अब तक की सबसे कम सीटों पर चुनाव लड़ा। कांग्रेस सिर्फ 328 सीटों पर लड़ी फिर भी उसकी सीटें 52 से बढ़ कर 99 हो गईं क्योंकि गठबंधन की छोटी पार्टियों ने पूरक का काम किया।
बिहार में ‘इंडिया’ ब्लॉक और एनडीए की मुश्किलें
ठीक इसी तरह बिहार में ‘इंडिया’ ब्लॉक का स्वरूप उभरता दिख रहा है। पिछली बार चुनाव लड़े राजद, कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चा की एकजुटता में कोई कमी नहीं दिख रही है। कांग्रेस के सुप्रीम लीडर राहुल गांधी ने कह दिया है कि कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़ेगी। इसलिए भाजपा और जदयू के नेताओं को किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। वे समझ रहे हैं और मान भी रहे हैं कि कांग्रेस सचमुच तेजस्वी यादव को नेता स्वीकार नहीं करेगी और इस आधार पर गठबंधन टूट जाएगा। ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। यह धोखा देने की रणनीति है। राजद और कांग्रेस साथ चुनाव लड़ेंगे और तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री चेहरा होंगे। तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां यानी सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई माले भी साथ रहेंगे।
एनडीए के लिए चिंता की बात यह है कि उसके कोर वोट आधार की कई जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता ‘इंडिया’ ब्लॉक का रुख कर रहे हैं। इसमें तीन पार्टियों का नाम लिया जा सकता है। मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी, पशुपति पारस की राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी और आईपी गुप्ता की नई बनी इंडियन इंकलाब पार्टी। मुकेश सहनी मल्लाहों के नेता के तौर पर स्थापित हो गए हैं। उन्होंने अपने को ‘सन ऑफ मल्लाह’ बता कर बिहार की राजनीति में स्थापित किया है। ध्यान रहे मल्लाह अतिपिछड़ी जाति से आते हैं, जो बुनियादी रूप से भाजपा और जदयू का वोट है। भाजपा ने मल्लाह समाज से आने वाले पहली बार के सांसद राजभूषण चौधरी को केंद्र में मंत्री बनाया है। लेकिन राजभूषण चौधरी भी मुकेश सहनी की पाठशाला से ही भाजपा में गए हैं। नेता मुकेश सहनी हैं, जिन्होंने मल्लाह समाज को अनुसूचित जाति में शामिल कराने के संकल्प के साथ राजनीति शुरू की है। आरक्षण और नई पहचान की राजनीति ने मुकेश सहनी को स्थापित किया है। तभी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने मुकेश सहनी को ‘इंडिया’ ब्लॉक छोड़ कर एनडीए में आने का घबराहट भरा बयान दिया।
ऐसे ही आईपी गुप्ता भी अतिपिछड़े समाज की जातियों तांती और ततवा, जिनको सामूहिक रूप से पान समाज के रूप में जाना जाता है उनके नेता हैं। उन्होंने 13 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में रैली की, जिसमें पान समाज के लोग जिस उत्साह से और जितनी बड़ी संख्या में जमा हुई उससे एनडीए की नींद उड़ी है। आईपी गुप्ता पहले कांग्रेस में थे और पिछले दिनों राहुल गांधी से उनकी मुलाकात हुई थी। अब वे कांग्रेस छोड़ चुके हैं लेकिन अब भी उनका रूझान ‘इंडिया’ ब्लॉक की ओर है। हालांकि वे भारतीय जनता पार्टी से भी बात कर रहे हैं। अगर वे एनडीए के साथ गए तो कोई बड़ा फायदा नहीं करा पाएंगे लेकिन अगर ‘इंडिया’ ब्लॉक से जुड़े तो एनडीए को बड़ा नुकसान पहुंचाएंगे। हालांकि अभी वे दोनों विकल्प देख रहे हैं।
तीसरे नेता पशुपति पारस हैं, जो नरेंद्र मोदी की पिछली सरकार में मंत्री थे। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा ने उनको किनारे कर दिया और चिराग पासवान से तालमेल कर लिया है। पारस इससे आहत हैं और पटना के बापू सभागार में सम्मेलन करके ऐलान कर दिया है कि एनडीए से उनका कोई वास्ता नहीं है। वे भी ‘इंडिया’ ब्लॉक की ओर देख रहे हैं। वे दलित समुदाय में पांच फीसदी वोट वाले पासवान समाज से आते हैं और रामविलास पासवान के भाई हैं। यह सही है कि रामविलास पासवान की विरासत के प्रतिनिधि उनके बेटे चिराग पासवान हैं लेकिन पशुपति पारस जहां लड़ेंगे या जहां वे अपने पूर्व सांसद भतीजे प्रिंस पासवान को लड़ाएंगे या परिवार के दूसरे सदस्यों को उतारेंगे वहां तो वोट का नुकसान कर ही देंगे। यह भी एनडीए का कोर वोट है। ध्यान रहे एक चौथाई दलित वोट यानी पांच फीसदी वोट रविदास समाज का है, जो लोकसभा चुनाव के समय से कांग्रेस के साथ जुड़ा हुआ है।
अगर सब कुछ इस हिसाब से रहता है तो राजद, कांग्रेस, लेफ्ट, वीआईपी और रालोजपा का गठबंधन हो सकता है। ‘इंडिया’ ब्लॉक के पास पहले से मुस्लिम और यादव का 32 फीसदी वोट है और पांच फीसदी दलित वोट उसके साथ है। यानी 37 फीसदी वोट मोटे तौर पर उसके पास हैं। अगर मुकेश सहनी और पशुपति पारस चार से पांच फीसदी वोट भी इस गठबंधन के साथ जोड़ते हैं तो लड़ाई बहुत नजदीकी हो जाएगी। क्योंकि ये दोनों नेता जो भी वोट लाएंगे उसका इम्पैक्ट डबल होगा क्योंकि वह एनडीए से टूट कर आएगा। मुश्किल यह है कि इतनी पार्टियां एक साथ आएंगी तो सीटों का बंटवारा कैसे होगा? क्या राजद और कांग्रेस अपनी सीटें कुर्बान करेंगे?
ध्यान रहे कांग्रेस की अभी की सारी पोजिशनिंग अपनी सीटें बचाने की है। पिछली बार वह 70 सीटों पर लड़ी थी और इस बार कोई सीट छोड़ने को राजी नहीं है। राजद पिछली बार 144 सीटों पर लड़ी थी। सीपीआई माले को 19 सीटें मिली थीं। सीपीआई को छह और सीपीएम को चार सीट मिली थी। यानी तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों को 29 सीटें मिली थीं। अगर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनना है और कांग्रेस को भाजपा के विजय रथ को रोकना है तो दोनों पार्टियों को सीटों की संख्या पर समझौता करना होगा। मुकेश सहनी और पशुपति पारस के लिए कम से कम 30 सीटें निकालनी होंगी। जिस तरह से कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में समझौता किया वैसे अगर राजद व कांग्रेस दोनों सीटों के बंटवारे पर राजी हो जाते हैं तो बिहार में एक नया समीकरण उभर सकता है, जो एनडीए के लिए बड़ा सिरदर्द होगा।
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