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बॉन्ड और ईवीएम पर विपक्ष का दोहरा रवैया

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यह कमाल की बात है कि विपक्षी पार्टियां कई चीजों का मुहंजबानी विरोध करती हैं, उसके खिलाफ अभियान भी चलाती हैं लेकिन उसे लेकर दृढ़ नैतिक बल नहीं दिखाती हैं। लोकसभा चुनाव से पहले कम से कम दो मामलों में यह साफ दिख रहा है। चुनावी चंदे के लिए इस्तेमाल हुए चुनावी बॉन्ड और लोकसभा व चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम के इस्तेमाल का मामला ऐसा है, जिस पर विपक्षी पार्टियों ने अपना विरोध तो जताया लेकिन इनके प्रतिरोध में कोई दृढ़ नैतिक बल नहीं दिखाया।

इसका नतीजा यह हुआ है कि विपक्षी पार्टियों का विरोध मजाक का विषय बन कर रह गया। आम लोगों के साथ साथ मुख्य चुनाव आयुक्त ने भी ईवीएम के मसले पर विपक्ष का मजाक बनाया। उन्होंने भी एक बहुत खराब तुकबंदी के जरिए बताया कि विपक्षी पार्टियों में दम नहीं है इसलिए वे हार जाने के बाद ईवीएम को दोष देती हैं और इतना नैतिक बल नहीं है कि नतीजे पक्ष में आएं तो खुल कर ईवीएम का समर्थन करें।

बहरहाल, ताजा मामला चुनावी बॉन्ड का है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इसके ऊपर पड़ा परदा हट गया है। इसकी हकीकत सबके सामने है और यह पता चलना भी वक्त की बात है कि किस कारोबारी घराने ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया। इसके साथ ही यह पता चल जाएगा कि चुनावी बॉन्ड के खरीदने और किसी पार्टी को दिए जाने के बीच या आगे पीछे क्या क्या घटनाक्रम हुआ है। यानी किसी को डरा धमका कर चंदा लिया गया है या किसी को फायदा पहुंचा कर चंदा लिया गया है।

हैरानी की बात है कि ऐन लोकसभा चुनाव से पहले इतनी बड़ी हकीकत सामने आने के बाद विपक्ष इसका मुद्दा नहीं बना पा रहा है। सोशल मीडिया में भाजपा विरोधी इकोसिस्टम की बात अलग है। वे जरूर इस मामले में बहुत आक्रामक हैं लेकिन नेताओं में ले-देकर कांग्रेस के राहुल गांधी और एकाध अन्य नेता इसका मुद्दा बना रहे हैं।

सवाल है कि दूसरी विपक्षी पार्टियां क्यों नहीं मुद्दा बना पा रही हैं और कांग्रेस अगर मुद्दा बना रही है तो उसके पीछे बहुत दम क्यों नहीं दिख रहा है? इसका कारण यह है कि तमाम विपक्षी पार्टियां भी इस खेल में उसी रूप में शामिल हैं, जिस रूप में भाजपा है। अगर विपक्ष ने शुरू में ही नैतिक बल दिखाया होता और अपने को चुनावी बॉन्ड के चंदे से बाहर रखा होता तो आज वह इसका बड़ा मुद्दा बना सकती थीं और आम मतदाता उन पर भरोसा भी करते।

आखिर 2017 में जब यह कानून बन रहा था, तब के कानून मंत्री अरुण जेटली इसे संसद में पेश और पास करा रहे थे तभी कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों ने इसका विरोध किया था और कहा था कि इसमें पारदर्शिता बिल्कुल नहीं है, इससे काले धन को बढ़ावा मिलेगा और सरकार व कारोबारियों के बीच मिलीभगत होगी। इसके बावजूद लगभग सभी विपक्षी पार्टियों ने चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदा लिया।

अगर विपक्षी पार्टियों ने उस समय ऐलान कर दिया होता कि वे चुनावी बॉन्ड के जरिए एक पैसे का चंदा नहीं लेंगे तो उसके दो फायदे संभावित थे। या तो सरकार पीछे हट जाती या अब जबकि सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद उस पर से परदा हटाता तो विपक्षी पार्टियां सही साबित होंती और लोग उनके आरोपों पर यकीन करते। लेकिन विपक्ष इस योजना का विरोध करता रहा और इसके जरिए चंदा भी लेता रहा।

तभी आज भाजपा को यह कहने का मौका मिल रहा है कि लोकसभा में उसके 50 फीसदी से ज्यादा सांसद हैं फिर भी उसे कुल चुनावी बॉन्ड का 40 फीसदी ही मिला है और बाकी 60 फीसदी चंदा विपक्षी पार्टियों के पास गया है।हालांकि यह तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। सन् 2018 से 2023-24 में इलेक्ट्रोल बांड, इलेक्ट्रोल ट्रस्ट तथा व्यक्तिगत चंदे में भाजपा की कुल चंदा प्राप्ति का आंकड़ा कुल 16,492 करोड रू है। और यह विपक्ष के चंदे से दोगुना अधिक है (देखें-न्यूजलांड्री)

चुनावी बॉन्ड के खुलासे से पता चला है कि केंद्र में अगर सत्तारूढ़ भाजपा को बहुत चंदा मिला है तो राज्यों में भी सरकार चला रही पार्टियों को ही सबसे ज्यादा चंदा मिला है। तभी इस बात की क्या गारंटी है कि जिस ‘क्विड प्रो को’ यानी मिलीभगत की बात केंद्र के स्तर पर कही जा रही है वह राज्यों के स्तर पर नहीं हुई होगी? हो सकता है कि केंद्रीय एजेंसों की कार्रवाई से बचने के लिए कुछ कंपनियों ने केंद्र में सत्तारूढ़ दल को चंदा दिया हो लेकिन अगर फायदा पहुंचाने के बदले चंदा लेने की बात है तो वह केंद्र और राज्यों की सरकारों पर समान रूप से लागू होगा।

तभी सवाल है कि क्या तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस या बीआरएस जैसी पार्टियां दावा कर सकती हैं कि उनको जिन कारोबारी घरानों ने चंदा दिया है उनको उनकी राज्य सरकारों ने कोई फायदा नहीं पहुंचाया है? दूसरे, क्या विपक्षी पार्टियां यह दावा कर सकती हैं कि जिन लोगों ने किसी दबाव में भाजपा को चंदा दिया है उन कारोबारी घरानों ने उनको चंदा नहीं दिया है?

क्योंकि यह नहीं हो सकता है कि अगर किसी ने भाजपा को चंदा दिया है तो वह गलत है और अगर उसी ने किसी विपक्षी पार्टी को चंदा दिया है तो वह सही है। ध्यान रहे सबसे ज्यादा चुनावी बॉन्ड खरीदने वाले फ्यूचर गेमिंग के सैंटियागो मार्टिन ने 509 करोड़ रुपए ‘इंडिया’ ब्लॉक की पार्टी डीएमके को दिया है, जिसका तमिलनाडु में शासन है।

बहरहाल, इसी तरह विपक्षी पार्टियों ने इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन के मामले में भी मजबूत नैतिक स्टैंड नहीं लिया है। वे पूरे पांच साल ईवीएम का विरोध करते रहे। उसमें कमियां निकालते थे। उसके हैक कर लिए जाने और नतीजे प्रभावित किए जाने के आरोप लगाते रहे। लेकिन उसी ईवीएम से चुनाव भी लड़ते रहे। जीत गए तो चुप हो गए और हारे तो ईवीएम पर दोष मढ़ दिया।

बहुत खराब या फूहड़ तुकबंदी के जरिए मुख्य चुनाव आयुक्त ने इसी ओर इशारा किया। ईवीएम का विरोध करने के बावजूद उसी ईवीएम से चुनाव लड़ना यह दिखाता है कि विपक्ष खुद ही अपने विरोध के प्रति ईमानदार नहीं है। विपक्ष खुद ही मुतमईन नहीं है कि वह जो कह रहा है वह सही है या नहीं। अगर उसे अपने आरोपों पर यकीन है तो चुनाव लड़ने से इनकार कर देना चाहिए।

कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी पार्टियां, जिनको ईवीएम पर संदेह है वे अगर चुनाव नहीं लड़ते तो सरकार और चुनाव आयोग के ऊपर दबाव होता। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी और वैश्विक संस्थाएं दबाव बनातीं। देशी और विदेशी मीडिया को इसके बारे में खबरें दिखाई जातीं।

लेकिन चूंकि विपक्षी पार्टियां ईवीएम से चुनाव लड़ने को राजी हैं तो ईवीएम का विरोध मजाक का विषय बन गया। अगर विपक्ष अपने आरोपों पर मुतमईन होता कि ईवीएम हैक होता है और नतीजे प्रभावित किए जाते हैं तो उसको पता होता कि चाहे वह कितना भी जोर लगा कर लड़े उसे हारना ही है।

ऐसी स्थिति में अगर चुनाव नहीं लड़ती तो लोग उसके आरोपों को गंभीरता से लेते। लेकिन अब कोई भी विपक्ष के आरोपों को गंभीरता से नहीं लेता है। सोचें, राहुल गांधी कह रहे हैं कि अगर ईवीएम नहीं हो तो नरेंद्र मोदी नहीं जीत सकते हैं। इसका मतलब है कि ईवीएम है तो वे जीत जाएंगे तो फिर उसी ईवीएम से कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों को क्यों चुनाव लड़ना है?

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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