पुलिस और शिष्टाचार आमतौर पर एक दूसरे के विपर्यय यानी एक दूसरे के विपरीत अर्थ वाले माने जाते हैं। तभी जब भी पुलिस सुधारों की बात होती है तो सबसे पहले पुलिसकर्मियों को शिष्टाचार का प्रशिक्षण देने की बात कही जाती है। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे प्रकाश सिंह ने भी अपनी सिफारिशों में यह बात कही है तो देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी ने कई इंटरव्यू में इस पर जोर दिया कि पुलिस को आधुनिक तकनीक व हथियारों का प्रशिक्षण देने के साथ साथ सार्वजनिक जीवन में आम नागरिकों के साथ सभ्य और सलीके का व्यवहार करने का प्रशिक्षण भी देना चाहिए। दुनिया के सभ्य व विकसित देशों में नागरिक पुलिस को दोस्त मानते हैं तभी वहां अभिभावक अपने बच्चों को किसी भी संकट की स्थिति में पुलिस के पास जाने की सलाह देते हैं, जबकि भारत में भले लोग यज्ञ, हवन आदि कराते हैं कि पुलिस से पाला न पड़े। अभिभावक अपने बच्चों को पुलिस से दूर रहने की सलाह देते हैं। कुल मिला कर स्थिति यह है कि पुलिस की मौजूदगी आमतौर पर लोगों को सुरक्षा का अहसास नहीं कराती है, बल्कि भय और असुरक्षा का भाव पैदा करती है।
तभी दिल्ली में ‘एंटी ईव टीजिंग स्क्वॉड’ का गठन और उसका नाम ‘शिष्टाचार स्क्वॉड’ रखने का दिल्ली सरकार का फैसला बहुत दिलचस्प जान पड़ता है। यह मानने में कोई हिचक नहीं है कि यह फैसला राजनीतिक है और राजनीतिक कारणों से किया गया है। जिस तरह से उत्तर प्रदेश सरकार ने एंटी रोमियो स्क्वॉड का गठन किया, जिसका घोषित मकसद तो महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना था लेकिन असल में लव जिहाद के अपने चुनावी एजेंडे को ध्यान में रख कर राज्य सरकार ने यह फैसला किया था। राजधानी दिल्ली में सीधे तौर पर लव जिहाद रोकने के लिए किसी एंटी रोमियो स्क्वॉड के गठन की बात नहीं की जा सकती थी इसलिए महिलाओं के साथ होने वाली छेड़छाड़ और अपराध को रोकने के लिए ‘शिष्टाचार स्क्वॉड’ बनाने की घोषणा हुई है।
ऐसा लग रहा है कि यह स्क्वॉड शिष्टाचार की बजाय नैतिकता पुलिस के तौर पर काम करेगी। इससे लड़कियां और महिलाएं सुरक्षित महसूस करेंगी या नहीं यह नहीं कहा जा सकता है लेकिन युवा जोड़े इनसे आशंकित जरूर रहेंगे। बजरंग दल के कार्यकर्ता वेलेंटाइन डे वगैरह पर जो काम अनधिकृत रूप से करते हैं उसी से मिलता जुलता काम यह स्क्वॉड सालों भर अधिकृत रूप से करेगा। यह भाजपा की नई राज्य सरकार का एजेंडा इसलिए भी लग रहा है क्योंकि आम आदमी पार्टी की 10 साल की सरकार के समय भी तो पुलिस केंद्र की भाजपा सरकार के पास ही थी। तब इस तरह का स्क्वॉड बनाने की जरुरत क्यों नहीं महसूस की गई थी?
ऐसा मानने का आधार यह भी है कि अगर दिल्ली सरकार चाहती है कि वह महिलाओं को सुरक्षित रखे भी और सुरक्षित महसूस भी कराए तो उसके लिए अलग से किसी पुलिस फोर्स की जरुरत नहीं है। सामान्य पुलिसिंग को चाक चौबंद करके ऐसा किया जा सकता है। महिलाओं के साथ अपराध की जो शिकायतें पुलिस के पास पहुंचती है उन शिकायतों को तत्काल दर्ज किया जाए और कार्रवाई सुनिश्चित की जाए तो अपने आप महिलाओं के प्रति अपराध में कमी आएगी। ऐसे ही महिलाओं के खिलाफ अपराध के जो मामले पहले से दर्ज हैं अगर पुलिस उन मामलों में जल्दी से जल्दी सजा करा देती है तो उससे भी अपराधियों में खौफ बनेगा।
यह ध्यान रखने की जरुरत है कि सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के साथ उतने अपराध नहीं होते, जितने घरों में, परिचितों की मौजूदगी में, स्कूल व कॉलेजों में या कार्यस्थलों पर होते हैं। वहां न तो पुलिस मौजूद रह सकती है और न ‘शिष्टाचार स्क्वॉड’ के लोग मौजूद रहेंगे। इसलिए महिलाओं को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना होगा कि वे झिझक छोड़ कर या पुलिस का डर छोड़ कर अपनी शिकायत दर्ज कराएं। उनमें यह भरोसा स्थापित करना होगा कि थानों में उनके साथ बदसलूकी नहीं होगी या उनकी कमजोरी का फायदा नहीं उठाया जाएगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी शिकायत पर पुलिस ईमानदारी से और त्वरित कार्रवाई करेगी। यह सुनिश्चित करने की बजाय सरकार ‘शिष्टाचार स्क्वॉड’ बना रही है, जबकि यह काम सामान्य पुलिसिंग के जरिए हो सकता है।
महिलाओं के साथ छेड़छाड़ या उनके प्रति अपराध की घटनाओं को रोकने के लिए इस तरह के दिखावे की जरुरत नहीं है, बल्कि व्यापक और समग्र योजना बनाने की जरुरत है। इसमें महिला थानों व महिला पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ाना एक उपाय है। पुलिसकर्मियों को नागरिकों और खास कर महिलाओं के साथ सलीके का व्यवहार करने का प्रशिक्षण देना दूसरा उपाय है। अभियोजन के लिए अलग शाखा या स्क्वॉड बनाना भी एक उपाय है ताकि जो मामले पुलिस के पास पहुंचे उनमें जल्दी से जल्दी न्यायिक कार्रवाई पूरी कराई जा सके।
न्यायपालिका में भी जैसे पॉक्सो मामलों के लिए अलग अदालतें हैं वैसे ही महिलाओं से जुड़े मामलों के त्वरित निपटारे के लिए अलग से व्यवस्था करने की जरुरत है। अगर थाने में शिकायत लेकर जाने में महिलाएं सुरक्षित और सहज महसूस करने लगें और उन्हें भरोसा बने की पुलिस की जांच और न्यायिक प्रक्रिया उनके लिए सजा नहीं बन जाएगी तो वे खुद ब खुद आगे आएंगी और अपने ऊपर होने वाले अपराध की शिकायत करेंगी। इसकी बजाय पुलिस अगर अपराध खोजने जाती है तो उसके कई खतरे हैं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि पुलिस सार्वजनिक जगहों पर, पार्क, गार्डेन आदि में और मॉल्स में मोरल पुलिसिंग में लग जाएगी। ऐसा न हो यह सरकार और पुलिस दोनों को सुनिश्चित करना होगा।
इस पूरी प्रक्रिया में एक बड़ा सवाल सरकार की प्राथमिकता का भी है। क्या दिल्ली को विश्वस्तरीय राजधानी बनाने के लिए पुलिसिंग की पहली जरुरत यही है कि ‘शिष्टाचार स्क्वॉड’ बनाया जाए? राजधानी दिल्ली गैंगस्टर्स की राजधानी बन गई है। यहां दर्जनों गैंग ऑपरेट करते हैं, जो बड़े अपराध को अंजाम देते हैं। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक कम से कम 12 गैंग ऐसे हैं, जिनके सरगना विदेश में हैं और राजधानी व एनसीआर के इलाके में गैंग चला रहे हैं। हिमांशु भाऊ अमेरिका में है तो कपिल सांगवान ब्रिटेन में है। गोल्डी बरार अमेरिका में, अर्श डल्ला कनाडा में, रोहित गोदारा कनाडा में, जग्गा धुरकोट अमेरिका में, लक्की पटियाल आर्मेनिया में, अमरजीत बिश्नोई इटली में, वीरेंद्र चरण अमेरिका में, नवीन बॉक्सर दुबई में, सुभाष बराला दुबई में तो नोनी राणा इटली में है। इनके गैंग राजधानी दिल्ली व एनसीआर में रंगदारी वसूलने और लोगों को डराने का काम करता है।
इनके अलावा काला जठेड़ी या हाशिम बावा जैसे अनेक गैंग और हैं, जिनके सरगना विदेश में नहीं हैं। पुलिस की प्राथमिकता क्या यह नहीं होनी चाहिए कि महाराष्ट्र की तरह संगठित अपराध को रोकने के लिए अलग से पुलिस का दस्ता बनाते और इन गैंग्स की गतिविधियों पर रोक लगाएं? कई गैंग जेल की चारदिवारी के भीतर से ऑपरेट हो रहे हैं। दिल्ली में आए दिन हत्याएं हो रही हैं, गोलीबारी हो रही है, लोगों की दुकानों पर फायरिंग करके वसूली की मांग की जा रही है। इन पर कार्रवाई करने की बजाय दिल्ली सरकार मॉल्स, सिनेमा हॉल्स, पार्क, गार्डेन, बाजारों आदि में छेड़छाड़ रोकने के लिए विशेष दस्ता बना रही है। बताया जा रहा है कि हर जिले में दो दस्ते होंगे। हर दस्ते में 12 पुलिसकर्मी होंगे, जो साधी वर्दी में रहेंगे। जाहिर है कि दो करोड़ से ज्यादा आबादी के लिए पुलिस के 12 या 14 दस्ते किसी काम नहीं आने वाले हैं। राजधानी में हजारों सार्वजनिक जगह हैं, जहां छेड़छाड़ की या महिलाओं के प्रति अपराध की घटनाएं हो सकती हैं। उन्हें रोकने के लिए दस्ता बनाने की बजाय थानों में पहुंचने वाली या पहले से लंबित महिलाओं की शिकायतों का निपटारा हो तो महिलाओं में भरोसा और अपराधियों में भय बनेगा।