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11-04-2025 Vol 19

बुलडोजर ‘न्याय’ क्या रूकेगा?

यह लाख टके का सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट की ओर से बुलडोजर ‘न्याय’ पर रोक लगाने का फैसला सुनाने के बाद अब राज्यों की सरकारें किसी भी आरोपी या अपराधी के खिलाफ बुलडोजर का इस्तेमाल रोक देंगी? क्या अब आरोपियों की संपत्ति मनमाने तरीके से नहीं तोड़ी जाएगी? क्या बुलडोजर की कार्रवाई में प्रशासनिक स्तर पर धर्म और जाति के आधार पर होने वाला भेदभाव रूक जाएगा? ये सारे सवाल इसलिए है क्योंकि पिछले दो साल से अदालत में इस मसले पर सुनवाई चल रही थी और लगभग हर सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक टिप्पणियों में इस तरह की कार्रवाई को गलत बताया था। सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर की कार्रवाई रोकने को भी कहा लेकिन किसी राज्य सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई, मौखिक टिप्पणियों और मुंहजबानी आदेश के बावजूद बुलडोजर की कार्रवाई जारी रही, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी भी जताई थी।

कह सकते हैं कि उस समय तक सुप्रीम कोर्ट ने फैसला नहीं सुनाया था। लेकिन क्या फैसला सुनाए जाने के बाद स्थितियां बदल जाएंगी? जब बुलडोजर के माध्यम से चुनिंदा तरीके से न्याय करने का तरीका सरकारों को राजनीतिक और चुनावी लाभ पहुंचा रहा हो तो तय मानना चाहिए कि किसी भी स्थिति में इस तरह की कार्रवाइयां नहीं रूकने जा रही हैं। बुलडोजर अब कोई प्रशासनिक मशीनरी नहीं है, बल्कि राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है।

इस बात का संकेत सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश सरकार की प्रतिक्रिया में मिल गया। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने बुधवार, 13 नवंबर को मनमाने तरीके से बुलडोजर कार्रवाई पर रोक लगाने का फैसला सुनाया और साथ ही इसके लिए एक 15 सूत्री गाइडलाइन जारी की। इसके तुरंत बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इसका स्वागत करते हुए कहा कि, ‘फैसले से माफिया प्रवृत्ति के तत्व और संगठित पेशेवर अपराधियों पर लगाम कसने में आसानी होगी। कानून का राज सब पर लागू होता है’।

इसका मतलब है कि बुलडोजर की कार्रवाई चलती रहेगी लेकिन अब वह सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय की गई गाइडलाइन के आधार पर होगी। सुप्रीम कोर्ट ने जो गाइडलाइन बनाई है उसमें बुलडोजर कार्रवाई को रोकने के लिए 15-15 दिन की दो विंडो दी गई है। पहला 15 दिन नोटिस देने का है। अगर प्रशासन को किसी व्यक्ति के खिलाफ बुलडोजर की कार्रवाई करनी है यानी उसकी संपत्ति तोड़नी है तो उसे 15 दिन पहले नोटिस देना होगा। नोटिस की जानकारी डाक के जरिए दी जाएगी और संपत्ति के ऊपर भी उसे चिपकाया जाएगा। यह 15 दिन बीतने के बाद अगर पता चलता है कि संपत्ति अवैध है तो उसके मालिक को 15 दिन का और समय दिया जाएगा कि वह खुद उसे तोड़े। अगर इस अवधि में वह इसे नहीं तोड़ता है तो प्रशासन बुलडोजर के जरिए उसे तोड़ सकता है। इस आधार पर फैसले का सरलीकरण करते हुए कहें तो इसका मतलब है कि अब बुलडोजर तत्काल चलने की बजाय एक महीने की देरी से चलेगा और कानूनी तरीके से चलेगा। फिर गुहार लगाने के लिए भी कोई प्लेटफॉर्म नहीं होगा।

ध्यान रहे इसमें तो कोई संदेह नहीं है कि उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा या दिल्ली में बुलडोजर के जरिए जो कार्रवाई हुई है वह अवैध निर्माण पर ही हुई है। भले वह ऐसे अपराध के बाद हुई हो, जिसका अवैध निर्माण से कोई लेना देना नहीं हो। इसके एकाध अपवाद हो सकते हैं लेकिन लगभग सभी कार्रवाई अवैध निर्माण पर ही हुई है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी यह रूकेगा नहीं, बल्कि कानून तरीके से जारी रहेगा। तभी सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में राहत वाली असली बात क्या है? राहत की असली बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि अगर 15 दिन की नोटिस अवधि में आरोपी अदालत में जाता है और उसको स्टे मिल जाता है तो बुलडोजर की कार्रवाई नहीं होगी। ऐसे में हो सकता है कि बुलडोजर नहीं चले लेकिन तब अदालतों में ऐसे मामलों की बाढ़ आएगी।

जिसके यहां भी अवैध निर्माण को तोड़ने का नोटिस जाएगा वह सीधा अदालत में पहुंचेगा और किसी तरह से स्टे हासिल करेगा। जिसके पास अच्छा वकील करने का पैसा होगा और पहुंच होगी वह स्टे हासिल करेगा और जिसके पास नहीं होगा, जिसको स्टे नहीं मिलगी उसकी संपत्ति टूटेगी। स्टे हासिल करने के बाद मुकदमे की कार्रवाई शुरू होगी, जो पता नहीं कितने समय तक चलती रहे। इससे राज्य सरकार और अदालतों पर बहुत दबाव बढ़ेगा। दूसरी राहत इस बात में निहित है कि बुलडोजर कार्रवाई के बारे में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के उल्लंघन पर संबंधित अधिकारी के खिलाफ मुकदमा चलेगा और उसे अपने खर्च से संपत्ति का पुनर्निर्माण कराना होगा। हो सकता है कि इससे अधिकारी घबराएं। लेकिन अगर सरकार पीछे खड़ी है तो अधिकारी भी जोखिम ले सकते हैं।

तभी बेहतर यह होता कि सरकारों पर सीमित रोक लगाने की बजाय इस तरह की कार्रवाई पर पूरी तरह से रोक लगाई जाती और न्यायिक प्रक्रिया के बगैर सिर्फ प्रशासनिक आदेश से किसी के घर या दुकान को तोड़ने को प्रतिबंधित किया जाता। इसके साथ ही अदालत अगर अवैध निर्माण के मामले में प्रशासन को भी जिम्मेदार बनाती तो और बेहतर होता। राज्य सरकारों से यह पूछा जाना चाहिए था कि आखिर इतने अवैध निर्माण कैसे हुए, जिनको तोड़ने की नौबत आ रही है? यह कानूनी प्रावधान हो जाए कि किसी भी आरोपी के घर का अवैध निर्माण तोड़ने अगर सरकार का बुलडोजर जाता है तो यह जरूर बताना होगा कि वह अवैध निर्माण कब हुआ, उस समय किसकी सरकार थी और संबंधित अधिकारी कौन था, जिसके रहते अवैध निर्माण हुआ?

यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है कि इस देश में शायद ही कोई निजी निर्माण होगा, जिसमें कुछ भी अवैध नहीं हो। राजधानी दिल्ली में जब सीलिंग का अभियान चल रहा था तब पता चला था कि ज्यादातर मकानों में अवैध निर्माण है। अनुमति से ज्यादा जमीन घेरी गई है और नक्शे के बाहर निर्माण किया गया है। दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों से लेकर छोटे शहरों और कस्बों तक इस तरह की गड़बड़ियां दिखेंगी। सर्वोच्च अदालत ने इस तरह के अवैध निर्माण को तोड़ने वाले अधिकारियों को जिम्मेदार बनाने का आदेश तो दे दिया लेकिन अवैध निर्माण कराने वाले अधिकारियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया! तभी सवाल है कि अगर अवैध निर्माण है तो उसे कोई भी अदालत तोड़ने से कैसे रोक सकती है? सरकार तो उसे तोड़ने का कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेगी!

अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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