भारतीय जनता पार्टी के ऊपर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के संपूर्ण नियंत्रण के एक दशक से कुछ ज्यादा समय बीते हैं। इस अवधि में कई राजनीतिक बदलाव हुए और कई नई राजनीतिक धारणाएं बनीं। उन्हीं में से एक धारणा यह है कि भाजपा के लिए कांग्रेस को हराना बहुत आसान है यानी जहां उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस से होता है वहां वह आसानी से जीत जाती है। इस धारणा के समर्थन में बहुत तर्क या तथ्य पेश करने की जरुरत नहीं है। एक दूसरी धारणा यह है कि प्रादेशिक पार्टियों के साथ लड़ना भाजपा के लिए हमेशा चुनौतीपूर्ण है। यानी वह कांग्रेस को तो हरा देती है लेकिन प्रादेशिक पार्टियों को उतनी सहजता नहीं हरा पाती है। बिहार में नीतीश कुमार पर भाजपा की निर्भरता, झारखंड में हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा को हराने में मिली विफलता या पश्चिम बंगाल में तमाम प्रयासों के बावजूद ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की लगातार जीत को इस धारणा के समर्थन में तथ्य के तौर पर पेश किया जा सकता है।
अब यह धारणा बदल रही है। भाजपा इस धारणा को मिथक में बदल रही है। कुछ समय पहले तक दिल्ली में आम आदमी पार्टी के एकछत्र राज्य को भी भाजपा के लिए चुनौती की तरह पेश किया जा रहा था। लेकिन उस धारणा को ध्वस्त करके भाजपा ने आम आदमी पार्टी को हरा दिया और 27 साल के बाद दिल्ली में अपनी सरकार बनाई है। इससे पहले भाजपा ने महाराष्ट्र में दो बेहद शक्तिशाली और पुरानी प्रादेशिक पार्टियों को धूल चटाई। पहले उसने उद्धव ठाकरे की पार्टी शिव सेना और शरद पवार की एनसीपी को तोड़ने का चक्रव्यूह रचा और उसके बाद दोनों को बिल्कुल हाशिए पर ला दिया। कह सकते हैं कि इन दोनों से टूट कर अलग हुई नई प्रादेशिक पार्टियों की मदद से ही भाजपा ने यह लक्ष्य हासिल किया है। तर्क के लिए यह बात सही है लेकिन हकीकत यह है कि चाहे एकनाथ शिंदे हों या अजित पवार दोनों भाजपा पर निर्भर हैं। भाजपा को उनकी कोई खास जरुरत नहीं है। इस बात को दोनों पार्टियां जान रही हैं। दोनों पार्टियों के नेताओं को यह तथ्य भी पता है कि उनके विधायक उनसे ज्यादा भाजपा नेतृत्व के प्रति अपनी निष्ठा का प्रदर्शन कर रहे हैं। इसलिए वहां उनको भाजपा का पिछलग्गू बन कर ही रहना है।
महाराष्ट्र से भी पहले भाजपा ने ओडिशा में नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल को हराया। बीजू जनता दल की राज्य में पिछले 24 साल से सरकार थी। शुरू कुछ वर्षों तक नवीन पटनायक ने भाजपा के साथ मिल कर राज किया था लेकिन बाद में वे अकेले लड़े और अपने दम पर लोकसभा और विधानसभा दोनों के चुनाव जीतते रहे। इस बार लोकसभा में उनका एक भी सांसद नहीं जीत पाया और विधानसभा चुनाव भी उनकी पार्टी हार कर विपक्ष में बैठी है। ओडिशा, महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजों से लग रहा है कि भाजपा ने प्रादेशिक या गैर कांग्रेस पार्टियों से लड़ने का नया हथियार विकसित कर लिया है। आखिर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी यह बात परेशान करती होगी कि वे कांग्रेस को तो हरा देते हैं लेकिन प्रादेशिक क्षत्रपों के सामने उनका जोर नहीं चलता है। तभी प्रादेशिक क्षत्रपों से लड़ने के नए तरीके विकसित किए जा रहे हैं। आने वाले दिनों में इनकी और परीक्षा होगी।
सबसे बड़ी परीक्षा पश्चिम बंगाल में होनी है, जहां अगले साल विधानसभा का चुनाव है। पिछले चुनाव में यानी 2021 में भारतीय जनता पार्टी ने बहुत मजबूती से विधानसभा का चुनाव लड़ा था। लोकसभा चुनाव में बंगाल की 42 में से 18 सीटें जीतने के बाद भाजपा अति आत्मविश्वास में थी। हालांकि वह इस नतीजे को विधानसभा में नहीं दोहरा सकी। इस बार लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन पहले से खराब हुआ है। उसकी सीटें आधी रह गई हैं। इसके अलावा भाजपा विधायक एक एक करके पार्टी छोड़ रहे हैं और ममता बनर्जी की पार्टी में जा रहे हैं। ओडिशा, हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के नतीजों से अगर भाजपा को नया मंत्र मिलने की बात है तो ममता बनर्जी ने भी इन राज्यों के नतीजों का बारीकी से अध्ययन किया है। उनको पता है कि हरियाणा और दिल्ली कांग्रेस व आम आदमी पार्टी के तालमेल की कमी से हारे। इसलिए पहले ही कांग्रेस के साथ तालमेल की चर्चा शुरू हो गई। दूसरे, सभी राज्यों में मतदाता सूची में गड़बड़ी के आरोप विपक्ष ने लगाए थे। इसलिए ममता बनर्जी की पार्टी घर घर जाकर मतदाता के नाम चेक करा रही है। बाकी राज्यों से उलट पश्चिम बंगाल में भाजपा आरोप लगा रही है कि राज्य सरकार ने 13 लाख फर्जी वोटर बनवाए हैं। सो, अगले साल बंगाल का चुनाव सबसे दिलचस्प होने जा रहा है। उससे पहले बिहार में भी विधानसभा का चुनाव दिलचस्प होगा। चुनाव से पहले ओपिनियन पोल में राजद नेता तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे ज्यादा लोगों की पसंद बताए जा रहे हैं। तभी अमित शाह ने कहा है कि वे अब बिहार में डेरा डंडा डालेंगे।
बहरहाल, पता नहीं यह भाजपा की रणनीति का नतीजा है या स्वाभाविक रूप से राजनीतिक घटनाक्रम ऐसा चल रहा है कि एक एक करके अनेक प्रादेशिक पार्टियां कमजोर हो रही हैं। उनका अस्तित्व और आधार धीरे धीरे घटता जा रहा है। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का आधार खत्म होने की कगार पर है। उत्तर प्रदेश के बाहर वह लगभग समाप्त हो गई है। राजधानी दिल्ली में, जहां उसका मजबूत आधार था वहां इस बार के चुनाव में हर सीट पर उसके उम्मीदवारों को औसतन एक हजार वोट भी नहीं मिला है। इसी तरह भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी और लंबे समय तक पंजाब में सरकार चला चुकी शिरोमणि अकाली दल अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है। भाजपा की अन्य पुरानी सहयोगी पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल का भी यही हाल है। झारखंड में आजसू का भी यही हाल है और इस साल के चुनाव में बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यू के प्रदर्शन पर भी सबकी नजर रहेगी।
असल में प्रादेशिक पार्टियों के सामने सबसे बड़ा संकट इस बात से खड़ा हुआ है कि भाजपा ने प्रादेशिक नैरेटिव को लगभग खत्म कर दिया है। उसने प्रादेशिक नेताओं के चेहरे भी निराकार कर दिए हैं। वह राज्यों के चुनाव भी राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ती है। विधानसभा चुनावों में भी नरेंद्र मोदी का चेहरा सबसे ऊपर होता है। उनके द्वारा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर फोकस बनवाया जाता है। राज्यों का चुनाव भारत को विश्वगुरू बनाने के लिए लड़ा जाता है। दुनिया में भारत की बात सुनी जाए इस नाम पर विधानसभा के लिए वोट मांगे जाते हैं। डबल इंजन की सरकार से विकास सुनिश्चित होने की धारणा बनाई जाती है। इससे पहले लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों व राष्ट्रीय नेताओं के चेहरे पर, जबकि प्रदेशों के चुनाव प्रादेशिक मुद्दों और प्रदेश नेताओं के चेहरे पर लड़े जाते थे। विधानसभा चुनावों में स्थानीय स्तर के मुद्दे ही मुख्य विमर्श में होते थे। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने इसे पूरी तरह से बदल दिया है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आम आदमी भी प्रादेशिक और स्थानीय मुद्दों को छोड़ कर राष्ट्रीय़ मुद्दों और राष्ट्रीय नेताओं के चेहरे पर वोट डाल रहा है। इसमें सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका है, जिसके इस्तेमाल में भाजपा सबसे माहिर खिलाड़ी है। अगले दो साल में उत्तर से दक्षिण तक होने वाले 11 राज्यों के विधानसभा चुनावों से कई प्रादेशिक क्षत्रपों का भविष्य तय होगा।