देश में वक्फ कानून के खिलाफ एक लड़ाई छिड़ी है। जमीन पर उतर कर मुस्लिम संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। उनके हिंसक प्रदर्शन से पश्चिम बंगाल के कम से कम चार जिलों और असम के कुछ इलाकों में कई लोग मारे गए, सैकड़ों लोग घायल हुए और दर्जनों गाड़ियां जलाई गईं। इससे अलग इस देश का सेकुलरिज्म बचाने के लिए एक छोटी मोटी जंग शरबत पर छिड़ी है।
एक कारोबारी बाबा रामदेव ने अपना शरबत बेचने के लिए दशकों से भारत में बिक रहे एक शरबत को सांप्रदायिक रंग दे दिया और ‘शरबत जिहाद’ की बात कर दी। हालांकि यह विशुद्ध कारोबारी दांव था, जो रामदेव बरसों से खेल रहे हैं। एलोपैथी की दवाओं के खिलाफ आयुर्वेद को उन्होंने धार्मिक रंग देकर प्रचारित किया तो यूनीलीवर, प्रॉक्टर एंड गैम्बल जैसी कंपनियों के उपभोक्ता उत्पादों के मुकाबले अपनी कंपनी के उत्पादों को स्वदेशी कह कर बेचा।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में पिछले 10 साल से राष्ट्रवाद का जो उफान आया है और जैसी धार्मिकता बढ़ी है उसका सर्वाधिक राजनीतिक लाभ भाजपा को हुआ है और आर्थिक लाभ पतंजलि समूह के रामदेव और उनके बालकृष्ण को हुआ है। कह सकते हैं कि देश के नंबर एक और नंबर दो अमीर कारोबारियों को भी बहुत लाभ हुआ है लेकिन वह लाभ धार्मिकता बढ़ने या राष्ट्रवाद के उफान का नहीं है, बल्कि सत्ता के संरक्षण यानी क्रोनी कैपिटलिज्म का है। पतंजलि समूह का लाभ विशुद्ध रूप से धार्मिकता और राष्ट्रवाद बढ़ने की वजह से हुआ है।
कंपनी ने बहुत होशियारी से अपने को इन दोनों परिघटनाओं का प्रतिनिधि बनाया और अपने उत्पादों को घर घर पहुंचा दिया। यह अलग बात है कि लगभग हर परीक्षण में कंपनी के उत्पाद गुणवत्ता की कसौटी पर फेल होते हैं। फिर भी उसका सामान इसलिए बिक रहा है क्योंकि हिंदुओं का एक बड़ा समूह पतंजलि के उत्पाद खरीदने को हिंदू होने का धर्म निभाना समझता है। समाज का जो वर्ग भाजपा को वोट देना हिंदुत्व की मजबूती के लिए जरूरी समझता है वह समूह इसी तर्क से पतंजलि के सामान खरीदता है।
पतंजलि शरबत विवाद: रामदेव और ‘रूहआफजा’ का मुकाबला
तभी हैरानी नहीं हुई, जब गर्मियां शुरू होने से पहले पतंजलि समूह ने अपना नया शरबत लॉन्च किया और इसका प्रचार करते हुए कंपनी के ब्रांड एम्बेसेडर रामदेव ने ‘शरबत जिहाद’ की बात की और कहा कि वह यानी पुराना शरबत खरीदेंगे तो उससे मदरसे, मस्जिद आदि बनेंगे और हमारा शरबत खरीदेंगे तो गुरुकुल और मंदिर बनेंगे। सवाल है कि मध्य वर्ग का जो व्यक्ति ‘शरबत जिहाद’ के नारे से प्रभावित होकर ‘रूहआफजा’ खरीदना बंद करेगा और पतंजलि का शरबत खरीदेगा उनमें से कितने लोगों के बच्चे उस कथित गुरुकुल में पढ़ने जाएंगे, जिसे खोलने का वादा कंपनी के ब्रांड एम्बेसेडर कर रहे हैं?
मंदिर तो हर गली के नुक्कड़ पर बन गए हैं लेकिन महाराज की कंपनी ने आधुनिक चिकित्सा के कितने अस्पताल बना दिए या कितने स्कूल, कॉलेज और रिसर्च सेंटर खोल दिए? हिंदू धर्म, भारतीय राष्ट्रवाद, स्वदेशी और अब ‘शरबत जिहाद’ के नाम पर अपने उत्पाद बेच रहे बाबाजी की कंपनी की हजारों करोड़ रुपए की कमाई का देश और इसके नागरिकों को क्या लाभ मिल रहा है? बाबा और उनके चेले जरूर चार्टर्ड विमानों से उड़ रहे हैं लेकिन आम नागरिक के जीवन पर तो उनकी कंपनी के दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की करने का कोई असर नहीं हुआ है!
बहरहाल, अपनी कंपनी के शरबत के पहले चरण के विज्ञापन में ब्रांड एम्बेसेडर रामदेव ने अपने उत्पाद की गुणवत्ता के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा। वैसे भी मार्केटिंग व ब्रांडिंग के गुरू फिलिप कोटलर की मशहूर उक्ति है कि, ‘दुनिया की तमाम गैरजरूरी चीजें विज्ञापनों के जरिए बेची जाती हैं’। सो, पतंजलि समूह एक गैरजरूरी उत्पाद लेकर आया है, जिसे सांप्रदायिक विज्ञापन के जरिए बेचने का प्रयास किया जा रहा है। तभी इसे खरीदने से पहले इसकी जरुरत और इसकी गुणवत्ता पर निश्चित रूप से विचार होना चाहिए।
साथ ही उस प्रतिस्पर्धी उत्पाद, जिसका नाम ‘रूहआफजा’ है उसकी गुणवत्ता पर भी विचार होना चाहिए। इस किस्म के तमाम शरबत चीनी से भरे होते हैं, जिनमें थोड़ा सा फ्लेवर मिलाया गया होता है। पौष्टिकता और रिफ्रेशमेंट के लिहाज से इनकी गुणवत्ता शून्य है। जैसे तंबाकू खाकर सफलता नहीं मिलती है या कोल्ड ड्रिंक्स पीने से डर नहीं खत्म होता है वैसे ही कोई भी शरबत पीने से रूह को सुकून नहीं मिलता है, बल्कि चीनी की मात्रा के कारण नुकसान ही होता है। फिर भी विज्ञापनों के जरिए जैसे दुनिया भर की गैरजरूरी चीजें बेची जा रही हैं वैसे ही शररबत भी बेचा जा रहा है।
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परंतु इस साधारण सी बात को कोई समझना नहीं चाह रहा है। देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और उसके इकोसिस्टम के तमाम पत्रकार, यूट्यूबर्स, सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर्स आदि ने रामदेव के सांप्रदायिक प्रचार का जवाब देना अपना पुनीत कर्तव्य समझ लिया है। इस पुनीत कार्य में योगदान दे रहे सभी लोग ‘रूहआफजा’ के ब्रांड एम्बेसेडर बन गए हैं। कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रभारी ने ‘रूहआफजा’ के साथ तस्वीर सोशल मीडिया में शेयर की। मीडिया प्रभारी ने भी इसमें अपना योगदान दिया। अच्छे भले पढ़े लिखे पत्रकारों ने भी ‘रूहआफजा’ की बोतल खरीद कर मंगाई, उसके साथ तस्वीरें सोशल मीडिया में डाली और घर आने वालों को वही शरबत पिलाने का संकल्प जताया।
उन्होंने यह काम ऐसे किया, जैसे सेकुलरिज्म की रक्षा के लिए ऐसा करना बहुत जरूरी हो और अगर ऐसा नहीं किया तो इतिहास माफ नहीं करेगा। उनको लग रहा है कि वे रामदेव को जवाब दे रहे हैं। वे समझ रहे हैं कि ‘रूहआफजा’ के लंबे इतिहास का हवाला देकर उसे भारत की आत्मा को तृप्त करने वाला उत्पाद ठहरा देंगे और उसके मुकाबले रामदेव को सांप्रदायिक आदमी ठहरा कर उसके उत्पाद को नीचा दिखा देंगे। पता नहीं उन्होंने कैसे यह नहीं समझा कि वे रामदेव के विज्ञापन के विरोध में उतरेंगे तो उसकी स्वाभाविक और विपरीत प्रतिक्रिया होगी और उससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण मजबूत ही होगा।
असल में ये सारे समझदार लोग पतंजलि समूह के विज्ञापन के ट्रैप में फंस गए हैं। कंपनी एक्जैटली यही चाहती थी और देश की सेकुलर ब्रिगेड ने थाली में सजा कर वह दे दिया। अगर इसे मार्केटिंग का सांप्रदायिक तरीका मान कर अनदेखी की जाती तो रामदेव का उत्पाद हो सकता है कि फेल हो जाता। लेकिन उसके खिलाफ लड़ाई लड़ कर सेकुलर ब्रिगेड ने उनके दांव को सफल बना दिया। इस पूरे विवाद से सेकुलरिज्म की अवधारणा को कोई लाभ हुआ या नहीं यह नहीं कहा जा सकता है लेकिन दोनों कंपनियों के उत्पादों को जरूर लाभ हुआ और नुकसान आम आदमी को हुआ, जो शरबत के नाम पर चीनी का घोल पी रहा है।
सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर्स को भी कुछ फायदा हुआ ही होगा क्योंकि ऐसी सांप्रदायिक बातों पर एक पक्ष में खड़े होने से सब्सक्राइवर बढ़ते हैं। सेलेक्टिव स्टैंड लेने पर तो और ज्यादा सब्सक्राइवर बढ़ते हैं। अगर मध्यमार्ग लिया और दोनों तरह की सांप्रदायिकता को खराब बताया तब सब्सक्राइवर और व्यूज बढ़ने की संभावना थोड़ी कम हो जाती है। जैसे रामदेव के ‘शरबत जिहाद’ पर भयानक किस्म से आंदोलित हो जाने वाले तमाम लोग झारखंड के मंत्री हफीजुल हसन की इस बात पर खामोश हैं कि उनकी नसों में शरीयत है और हाथ में संविधान। उनके लिए शरिया कानून पहले है और संविधान बाद में।
इसके खिलाफ बोलने पर सब्सक्राइवर घटने का खतरा है। इसलिए जान देकर संविधान की रक्षा करने का दावा करने वाले भी संविधान को दोयम दर्जे की कानूनी किताब बताने वाले बयान पर चुप हो गए। उनके लिए शरबत के नाम पर सेकुलरिज्म की लड़ाई लड़ना ज्यादा आसान है। सोचें, लोग अपने आदर्श और विचारधारा की रक्षा के लिए कितना आसान और सुविधाजनक रास्ता चुनते हैं!
पुनश्चः सेकुलरिज्म को बहुत से लोगों ने अलग अलग तरीके से परिभाषित किया है। लेकिन हमारी नजर में सबसे अच्छी परिभाषा अज्ञेय ने दी है। उन्होंने ‘अंतरा’ के एक अंक में लिखा है, ‘सेकुलर होना धर्मरहित होना या धर्म निरपेक्ष भी होना नहीं है; वह मानवधर्मी होना है। सब वस्तुओं की माप मानव है, सब मूल्यों का स्रोत मानव है, इसका वास्तविक अभिप्राय यह है कि मानव मूल्यों की सृष्टि करता है। पशुतावाद से मानवतावाद तभी और वही अलग होता है जब हम पहचानते हैं कि जीव विकास क्रम में मानव पहला प्राणी है जो सिर्फ जीवन के लिए नहीं जीता, जो मूल्यों की सृष्टि करता है’।
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