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02-04-2025 Vol 19

क्या है फासिज्म, जिसकी आहट कई देशों में!

आईए, आज ‘फासिज्म’ पर बात करें। क्यों? इसलिए क्योंकि इन दिनों यह जुमला फैशनेबिल है। शासन का यह अंदाज जहा दुनिया के शासकों में लोकप्रिय हो रहा है वही समझदारों-बुद्धीमानों की चिंता का कारण।  इतालवी लेखक और होलोकॉस्ट (जर्मनी में यहूदियों के कत्लेआम) से जिंदा बच निकले प्रीमो लेवी की मानेतो फासिज्म के लिए “केवल पुलिसिया आतंक ही पर्याप्त नहीं है बल्कि सूचनाओं तथा जानकारियों को छुपाकर या उन्हे तोड़-मरोड़ कर पेश करने, झूठ से उसकी जमीन तैयार की जाती है। अदालतों को कमज़ोर करके, शिक्षा व्यवस्था को पंगु बनाकर और कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीकों से जनता के मन में अतीत के उस काल्पनिक काल, जब कुछ ठीक था, को वापस लाने की चाहत पैदा करकेदेश में फासिज्म की भक्ति बनाई जाती है।

हां, दुनिया के समझदार लोकतांत्रिक देशों में भी इन दिनों फासिज्म के क़दमों की आहट सुनायी पड़ रही है।इसलिए हमें चीज़ों को समझना होगा, सतर्क रहना होगा और सही निर्णय लेने होंगे।

वक्त गवाह है कि फासिज्म हमेशा से एक घृणास्पद व डरावना शब्द रहा है। परंतु यह भी सही है कि ‘एफ’ अक्षर से शुरू होने वाले अंग्रेजी के एक दूसरे शब्द (जिसे शरीफ लोग इस्तेमाल नहीं करते) की तरह, फासिज्म शब्द का प्रयोग भी बिना सोचे-विचारे किसी भी चीज के लिए किया जाता रहा है। जब दूसरा महायुद्ध खत्म होने की ओर था तो लगा था कि फासिज्म की हार होने जा रही है। लेकिनउस समय जार्ज ओरवेल ने भविष्यवाणी की थी कि आगे चलकर यह शब्द एक गाली भर रह जाएगा, जिसका प्रयोग किसी भी व्यक्ति और किसी भी चीज को गलियाने के लिए किया जाएगा – “किसान, दुकानदार, सोशल क्रेडिट सिस्टम, शारीरिक सजा, लोमड़ी का शिकार, सांडों की लड़ाई, 1922 की कमेटी, 1944 की कमेटी, किपलिंग, गांधी, च्यांग काई शेक, समलैंगिकता, प्रीसले के रेडियो प्रसारण, यूथ हॉस्टल, ज्योतिष, महिलाएं, कुत्ते”।

फासिज्म दरअसल है क्या? यह उन शब्दों में से एक है जो इसलिए कुख्यात हैं क्योंकि उनकी कोई सटीक और पूर्ण परिभाषा नहीं है। मैंने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के छात्र के नाते कभी फासिज्म को एक विशिष्ट विचारधारा के रूप में नहीं पढ़ा – एक ऐसी विचारधारा जिसकी कोई जड़ हो या जिसका कोई सैद्धांतिकआधार हो जैसे यथार्थवाद या उदारवाद के हैं। ना ही फासिज्म को समझने में कोई थ्यूसीदाइदीज या रूसो हमारी मदद कर सकता है। और ना ही कम्युनिज्म की तरह इसका कोई घोषणापत्र है। यही कारण है कि यदि आप किसी डिक्शनरी में फासिज्म का मतलब ढूढेंगे या इस शब्द को गूगल करेंगे तो जो उत्तर आपको मिलेगा वह निहायत ही अस्पष्ट होगा। और यही कारण है कि फासिज्म को परिभाषित करने या उसका अर्थ समझाने के लिए लगभग हमेशा हिटलर और यहूदियों के कत्लेआम का सहारा लिया जाता है। जाहिर है कि तब यह शब्द भय और अनिष्ट की आशंका पैदा करता है।

इतिहास हमें बताता है कि फासिज्म, दरअसल, पहले महायुद्ध से उपजी विशिष्ट परिस्थितियों की प्रतिक्रिया था। इनमें शामिल था कुछ राष्ट्रों का अपमान, उदारवादी पूंजीवाद से मोहभंग और कम्युनिज्म का उदय। फासिज्म की जड़ों को हम इटली में ढूंढ़ सकते हैं जहां बेनिटो मुसोलिनी इस विचार का अगुआ था। उसने कहा था कि वो “देश को इस तरह से बदल डालना चाहता है कि आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टि से वह इस हद तक परिवर्तित हो जाए कि उसे पहचानना ही मुश्किल हो जाए”। उसकी चाहत अतीत के अंधेरे में गुम हो चुके किसी स्वर्णयुग को वापिस लाने की नहीं थी। वो एक पूर्णतः नए समाज को आकार देना चाहता था।

धीरे-धीरे यह विचार रोमानिया में लोकप्रिय होने लगा, जहां के फासिस्ट आर्थोडॉक्स ईसाई थे। वे हिंसा के सहारे दुनिया को ‘पवित्र’ बनाना चाहते थे और उनके अनुयायी यूरोप, अमरीका (कू क्लक्स क्लेन) और दुनिया के अन्य इलाकों में थे।

अमरीका की पूर्व विदेशमंत्री और “फासिज्म: ए वार्निंग” पुस्तक की लेखिका मेडलिन अल्ब्राईट का कहना है कि “फासिज्म वामपंथियों, दक्षिणपंथियों या मध्यमार्गियों की विचारधारा नहीं है बल्कि यह एक तरह की प्रक्रिया है जिसमें कोई व्यक्ति या पार्टी, किसी राष्ट्र या किसी समूह का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं, पहले सत्ता पर काबिज होते हैं और फिर हमेशा सत्तासीन बने रहने का प्रयास करते हैं। फासिस्ट सरकार लोकतांत्रिक प्रक्रिया से सत्ता में आ सकती है परंतु वह घोर लोकतंत्र-विरोधी होती है।“ टिमोथी स्नाईडर, जो येल विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं, का कहना है कि फासिज्म की सभी किस्में, तर्क और विवेक पर इच्छा और अभिलाषा की विजय हैं। ‘द इकोनॉमिस्ट’ इस बात से सहमत है कि फासिज्म की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है परंतु वह उसे ‘एक्सेप्शनलिज्म’ (यह विचार कि कोई देश, समाज, नस्ल, संस्था या आंदोलन असाधारण और विशिष्ट है) व रेससेंटिमेंट (बदला लेने की चाहत) के आधार पर परिभाषित करता है और उसे ईर्ष्या और अपमान से उपजी कुंठा का मिश्रण बताता है। मतलब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की चाहना के आगे रियलिटी, तर्क व विवेक सब खारिज और जनता उसके पीछे।

साधारण तौर पर फासिज्म को ऐसे समझें: चमकीले भविष्य के बारे में बातें करना और सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करते जाना। फासिज्म की शुरुआत एक ऐसे नेता के उदय के साथ होती है जो जनता को एक करने की बजाय बांटता है। वह मुख्यधारा के राजनेताओं को कलंकित करता है और किसी भी कीमत पर राजनैतिक विजय चाहता है। वह जनता को बताता है कि उसका राष्ट्र सबसे महान है हालाँकि आमजनों को ‘महानता’ की नितांत गलत समझ होती है। जब हम अपने आसपास यह सब होते देखते हैं तो हम उसे केवल ‘राजनीति’ कहकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। परन्तु ये सब फासिज्म के आगमन के पूर्व संकेत हैं।

हर युग का अपना फासिज्म होता है और हम इस समय अपने दौर का फासिज्म देख रहे हैं। पुतिन के रूस को अब खुलेआम फ़ासिस्ट कहा जाता है, विशेषकर यूक्रेन पर उसके हमले की बाद से। पुतिन कई बार नाजीवाद का हवाला देकर इस हमले को सही ठहरा चुके हैं। दुनिया के अन्य हिस्सों में भी फासिज्म की पदचाप सुनायी पड़ रही है। राजनैतिक पंडित कह रहे हैं कि अमरीका में रिपब्लिकन पार्टी फासिज्म की तरफ बढ़ रही है। ज्योर्जा मेलोनी की चुनाव में जीत के बाद, इटली एक फिर फासिज्म के पंजे में फँस कर फड़फड़ा रहा है। फ्रांस में अगर अति-दक्षिणपंथी मरिन ले पेन की सत्ता स्थापित हो जाती है तो वह देश भी फासिज्म की ओर बढ़ जायेगा।

आज के दौर में लगभग हर देश पर फासिज्म की हलकी या गहरी छाया देखी जा सकती है। हम सभी पर यह खतरा मंडरा रहा है।और हम भी अपने देश में ऐसे चिन्हों को पहचान सकते हैं जिनसे ऐसा लगता है कि फासिज्म हमारी देहरी पर भी आ पहुंचा है? (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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