Monday

31-03-2025 Vol 19

रमजान में बदहाल पाकिस्तान

गिरते रुपये और आईएमएफ की शर्तों के मुताबिक सब्सिडी खत्म करने के पाकिस्तान सरकार के कदम से आम लोगों की आर्थिक मुश्किलें बढ़ती चली गई है। इस कारण रमजान के महीने में भी लोग अपनी जरूरतों और खर्चों को सीमित करने को विवश हो रहे हैं।

 पाकिस्तान में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के रुख को लेकर असंतोष बढ़ता जा रहा है। पाकिस्तान सरकार के अधिकारियों का दावा है कि आईएमएफ से ऋण पाने के लिए उन्होंने उसकी शर्तों पर पूरा अमल किया है। इसके बावजूद आईएमएफ मंजूर हो चुके लगभग सात बिलियन डॉलर के कर्ज की किस्तें जारी नहीं कर रहा है। जबकि आईएमएफ के बयानों से संकेत मिलता है कि वह पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता से चिंतित है। आईएमएफ ने हाल में बांग्लादेश और श्रीलंका के लिए ऋण की किस्तें जारी शुरू कर दी हैं। मगर पाकिस्तान अपवाद बना हुआ है। इस बीच गिरते रुपये और आईएमएफ की शर्तों के मुताबिक सब्सिडी खत्म करने के पाकिस्तान सरकार के कदम से आम लोगों की आर्थिक मुश्किलें बढ़ती चली गई है।  लोग अपनी जरूरतों और खर्चों को सीमित करने को विवश हो रहे हैं। टैक्स और ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी और अन्य उपायों से शिक्षा क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसका पाकिस्तान के भविष्य पर दूरगामी खराब असर होगा।

पाकिस्तान में सरकार की तरफ से निर्धारित न्यूनतम वेतन लगभग 25 हजार रुपये प्रति माह है। लेकिन मुद्रास्फीति में तेज वृद्धि के कारण रुपये की वास्तविक क्रय शक्ति काफी घट चुकी है। फरवरी में पाकिस्तान में महंगाई की दर 31.5 फीसदी दर्ज की गई थी, जो कि 50 साल में देश में महंगाई का सबसे ऊंचा स्तर था। आर्थिक थिंक टैंक सस्टेनेबल पॉलिसी डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट के मुताबिक शिक्षित लोगों की क्रय शक्ति और बचत कम हो रही है और उनके लिए अपने दैनिक खर्चों को पूरा करना मुश्किल हो रहा है। अर्थशास्त्रियों ने मार्च और अप्रैल में मुद्रास्फीति को कम से कम 35 प्रतिशत तक बढ़ोतरी की संभावना जताई है। इस कारण इस वर्ष रमजान के महीने में भी उदासी का माहौल है, जबकि यह अवसर पाकिस्तान में बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। लोग कहते सुने जा रहे हैं कि ईद के लिए मिठाई और गिफ्ट खरीदना हमारे लिए मुश्किल हो जाएगा। विडंबना यह कि जब ऐसी बदहाली है, उस समय पाकिस्तान के सियासदां अपने झ़गड़ों में मशगूल हैं और हालात को अधिक बिगाड़ने में योगदान कर रहे हैं।

NI Editorial

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