केंद्र में किसी सत्तारूढ़ दल के खिलाफ जब भी साझा राजनीति की बात होती है और बदलाव होजाता है तो सबसे अहम भूमिका बिहार की होती है। इसे 1977 और 1989 के चुनाव में सबने देखा। जानकार इसका जिक्र भी करते हैं। 2004 में भी जब अटल बिहारी वाजपेयी के छह साल के राज के खिलाफ तथा2014 में 10 साल के कांग्रेस राज के खिलाफ माहौल बना और बदलाव हुआ तो उसमें भी बिहार की भूमिका थी। ध्यान रहे 1999 के चुनाव में बिहार का विभाजन नहीं हुआ था तब 54 में से भाजपा ने 23 और जदयू ने 18 सीट जीती थी। यानी 41 सीटें दोनों के पास थी। लेकिन 2004 में जब केंद्र की वाजपेयी सरकार बहुत भरोसे में थी तो बिहार और झारखंड ने पासा पलट दिया। तब दोनों राज्यों की 54 सीटों में से भाजपा को बिहार में पांच और झारखंड में एक सीट मिली थी, जबकि जदयू को बिहार में छह सीट मिली थी। इन 54 में से राजद, कांग्रेस और लेफ्ट को 38 सीटें मिलीं। 2014 के चुनाव में जदयू से अलग होकर भाजपा ने अपने दूसरे सहयोगियों के साथ बिहार में 32 और झारखंड में 12 यानी कुल 44 सीटें जीती थीं। इस तरह 1977, 1989, 2004 और 2014 में केंद्र में हुए बदलाव में बिहार और झारखंड की अहम भूमिका रही।
तभी 2024 के चुनाव को लेकर भाजपा की चिंता वाले दो अहम प्रदेशों में बिहार और झारखंड शामिल हैं। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के 10 साल हो गए हैं, जिससे निश्चित रूप से सत्ता विरोधी माहौल भी बना है। इस सत्ता विरोधी माहौल यानी एंटी इन्कम्बैंसी को कम करने के लिए भाजपा हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी के मजबूत व निर्णायक नेतृत्व का कार्ड चलेगी। हिंदुत्व के तहत अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, मां विंध्यवासिनी कॉरिडोर का उद्घाटन और काशी व मथुरा का आंदोलन जैसे मुद्दे हो सकते हैं। राष्ट्रवाद का उभार सीमा पर किसी मामूली घटना से भी आ सकता है। तभी सवाल है कि क्या ये मुद्दे बिहार और झारखंड में भाजपा को वैसी जीत दिला देंगे, जैसी जीत 2014 और 2019 में मिली थी? या भाजपा के हिंदुत्व व राष्ट्रवाद के कार्ड के सामने जाति व सामाजिक न्याय का मुद्दा भारी पड़ेगा?
इस बात को समझने के लिए इन दोनों राज्यों की सामाजिक-राजनीतिक बुनावट को समझनी होगा। ये दोनों राज्य ऐतिहासिक रूप से धार्मिक या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाले राज्य नहीं रहे हैं। 2014 में भाजपा को इन दोनों राज्यों में छप्पर फाड़ जीती मिली थी और झारखंड में 2019 में भी मिली। लेकिन उसका कारण सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं था। उसमें नरेंद्र मोदी के करिश्मे और उनके गुजरात मॉडल का भी हाथ था। यही वजह है कि 2019 के चुनाव से पहले भाजपा को बिहार में नीतीश कुमार को साथ लेने की मजबूरी हुई थी। भाजपा ने अपनी जीती हुई सीटें छोड़ कर जदयू से तालमेल किया, जिससे उसका सामाजिक समीकरण बेहतर हुआ। अगर थोड़ा पीछे इतिहास में जाकर देखें तब भी लगेगा कि इन दोनों राज्यों में मंदिर आंदोलन के शुरुआती दिनों में भी भाजपा को ज्यादा फायदा नहीं हुआ था। 1989 के चुनाव में भी एकीकृत बिहार की 54 में सिर्फ आठ सीट जीत पाई थी, जबकि राजद, कांग्रेस, जेएमएम, लेफ्ट ने 43 सीटें जीती थीं। इसी तरह 1991 में जब मंदिर आंदोलन चरम पर था तब भाजपा को सिर्फ पांच सीट मिली, जबकि राजद, कांग्रेस, जेएमएम और लेफ्ट ने 47 सीटें जीतीं। इसके बाद ही भाजपा ने नीतीश कुमार की तब की समता पार्टी से तालमेल किया था और सामाजिक समीकरण मजबूत किया।
अब नीतीश कुमार ने फिर से भाजपा का साथ छोड़ दिया है तो भाजपा को अपना सामाजिक समीकरण खुद ही ठीक करना है। हिंदुत्व के दांव के साथ साथ जातियों को साधने का काम भाजपा को अपने दम पर करना है। इसलिए उसने नीतीश के लव-कुश समीकरण की ताकतवर जाति कोईरी यानी कुशवाहा के नेता सम्राट चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। इसी समुदाय के उपेंद्र कुशवाहा के साथ भाजपा तालमेल करने जा रही है और पशुपति पारस व चिराग पासवान की पार्टियों से भी उसका तालमेल है। सो, कुशवाहा और पासवान के साथ भाजपा सवर्ण और वैश्य का वोट अपने साथ मान कर राजनीति कर रही है। दूसरी ओर राजद, जदयू, कांग्रेस और लेफ्ट के साथ दो और पार्टियां हैं। जीतन राम मांझी की हम और मुकेश सहनी की वीआईपी। इन सात पार्टियों के पास मोटे तौर पर यादव, कुर्मी, मल्लाह, मुसहर और मुसलमान का वोट है। इसमें जदयू, लेफ्ट और कांग्रेस की वजह से कुछ अन्य पिछड़ी व सवर्ण जातियां जुड़ सकती हैं। सो, पहली नजर में इस गठबंधन का सामाजिक समीकरण बड़ा और मजबूत दिख रहा है। इसी तरह झारखंड में एक तरफ भाजपा और आजसू का गठबंधन है तो दूसरी ओर जेएमएम, कांग्रेस और राजद का गठबंधन है, जिनका वोट आधार ज्यादा बड़ा है।
पिछले तीन दशक के चुनावों को देखें तो साफ दिखेगा कि इन दोनों राज्यों में मंदिर से ज्यादा मंडल की राजनीति चलती है। 2014 का चुनाव अपवाद है, जब भाजपा ने अपने दम पर मंडल की राजनीति करने वाली पार्टियों को हराया था। 10 साल के बाद अब वैसी स्थिति नहीं दिख रही है। कम से कम अभी ऐसा नहीं दिख रहा है कि भाजपा 2014 वाला करिश्मा दोहराने की स्थिति में है। इसकी बजाय दोनों राज्यों में सत्तारूढ़ गठबंधन ने जो राजनीति की है वह भाजपा के लिए मुश्किल पैदा करने वाला है। बिहार में राजद, जदयू की सरकार ने जातीय जनगणना शुरू कराई है, जिस पर अभी हाई कोर्ट ने रोक लगाई है। दूसरी ओर झारखंड में जेएमएम-कांग्रेस की सरकार ने आदिवासी और ओबीसी आरक्षण बढाया है। इसके अलावा भी सामाजिक समूहों को साधने के कई छोटे छोटे उपाय किए हैं। तभी अगले साल के चुनाव से पहले भाजपा कोई भी दांव चले उसे छोटे छोटे टुकड़ों में बंटे समूहों को हिंदुत्व के एक छाते के नीचे लाना आसान मुश्किल होगा। भाजपा को भी इसका अंदाजा है इसलिए वह सिर्फ बागेश्वर धाम के धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के प्रवचन के भरोसे नहीं है, बल्कि अपना सामाजिक समीकरण बनाने में भी लगी है। पते की और आखिरी बात यह है कि झारखंड-बिहार की 54 सीटों में से नरेंद्र मोदी की सर्वाधिक विकट परीक्षा है। हिंदी प्रदेशों की 227 सीटों में भाजपा के लिए इन 54 सीटों में विपक्ष को रोकना नंबर एक चुनौती है।