Thursday

24-04-2025 Vol 19

देसी दवाएः वाजिब सवाल

आशंका यह है कि उन दवाओं से लाभ की जगह कुछ हानि हो जाए। यह सबक दुनिया भर के लिए है। पारंपरिक दवाओं को लोगों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए, जबकि स्वास्थ्य नीति आधुनिक विज्ञान पर ही आधारित होनी चाहिए।

पारंपरिक चिकित्सा हर सभ्यता का हिस्सा रही है। जब तक आधुनिक विज्ञान का अस्तित्व सामने नहीं आया था, हर जगह लोग ऐसी दवाओँ से अपना इलाज करते थे। यह नहीं कहा जा सकता कि आज के दौर में उन दवाओं की अहमियत खत्म हो गई है या उनकी कोई जरूरत नहीं है। इसके बावजूद उचित यही होगा कि लोग ऐसी दवाएं अपनाएं या नहीं, यह उन पर छोड़ दिया जाना चाहिए। जबकि आधुनिक चिकित्सा सबको उपलब्ध होनी चाहिए। तीन साल पहले कोरोना महामारी जब आई, तब भारत में भी ऐसी चिकित्सा चर्चा में आई थी और उस पर सवाल भी उठे थे। अब जबकि चीन महामारी से जूझ रहा है, तो वहां भी इस मुद्दे पर विवाद खडा हुआ है। अनुभव यह है कि जब दवाओं की कमी हो जाती है, तो सरकारें पारंपरिक दवाओं को प्रोत्साहित करने के नाम पर लोगों से उन पर निर्भर रहने की अपील करने लगते हैँ।

कोरोना वायरस के खिलाफ एक अभियान के रूप में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पारंपरिक चीनी चिकित्सा को बढ़ावा दिया है। देश के स्वास्थ्य अधिकारी अब कोरोना वायरस से लड़ने में इसकी “महत्वपूर्ण भूमिका” बता रहे हैं। जबकि आलोचकों का कहना है कि यह शूडो साइंस है और वास्तविक बीमारी के इलाज में अप्रभावी है। इसके असर के दावों की पुष्टि नहीं की जा सकती है, क्योंकि इस पर बहुत कम डेटा उपलब्ध है। चीन दुनिया के कुछ सबसे पुराने समाजों में से एक है, जहां उपचार के पारंपरिक तरीकों, जड़ी-बूटियों और अन्य प्राकृतिक उत्पादों के उपयोग और मालिश से लेकर एक्यूपंक्चर और नपे-तुले आहार तक का अभ्यास किया जाता रहा है। लेकिन आधुनिक चिकित्सा विशेषज्ञ इसे संदेह की दृष्टि से देखते हैँ। उनके मुताबिक यह पता नहीं है कि ये उपचार प्रभावी हैं या नहीं, क्योंकि प्रयोगशालाओं में उनका अध्ययन या परीक्षण नहीं किया गया है। दरअसल इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि उन दवाओं से लाभ की जगह कुछ हानि हो जाए। तो यह सबक दुनिया भर के लिए है। पारंपरिक इलाज को लोगों के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए, जबकि स्वास्थ्य नीति आधुनिक विज्ञान पर ही आधारित होनी चाहिए।

NI Editorial

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