रायपुर अधिवेशन के साथ मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के रियल मालिक हैं। नेहरू-गांधी परिवार का अर्थ अपनी जगह है लेकिन बतौर पार्टी अध्यक्ष के खड़गे को चलाने का मिजाज सोनिया-राहुल-प्रियंका में किसी का नहीं है। खड़गे खुद ही यदि बात-बात पर गांधी परिवार से सलाह करके अपनी अध्यक्षता को लल्लू बनाएं तो बात अलग है अन्यथा मेरा मानना है कि खड़गे में दम है और उनकी अपनी अथॉरिटी भाजपा के जेपी नड्डा से कई गुना अधिक है। मगर जनमानस और बाकी पार्टियों में गांधी परिवार को लेकर क्योंकि धारणाएं हैं तो उनके लिए यह चुनौती है कि वे सन् 2024 के चुनाव से पहले राहुल गांधी का कैसा राजनीतिक उपयोग करें? उन्हें वे गाइड करें या उनको उनके भरोसे की जमात से राजनीति करने दें?
सचमुच विपक्ष और अगले लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस का सर्वाधिक गंभीर मसला राहुल गांधी के भाषणों, उनके प्रोजेक्शन, उनकी यात्राओं, दौरों, सभाओं को सिविल सोसायटी, वामपंथियों, जयराम रमेश जैसे प्रबंधकों की छाया से बचाए रखने का है। भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी के इर्द-गिर्द नया सर्कल बना है। उनके साथी यात्रियों में गलतफहमी है कि उनके कारण यात्रा सफल हुई। इसलिए ये लोग पार्टी अध्यक्ष और कांग्रेस नेताओं के समानांतर राहुल गांधी का अलग रोडमैप बनाए रखेंगे। इस बात में हवा फूंकते रहेंगे कि राहुल गांधी का देश में और प्रियंका का उत्तर प्रदेश में करिश्मा बनाना है तभी कांग्रेस में जान लौटेगी। इस तरह सोचते हुए सिविल सोसायटी के योगेंद्र यादव, वामपंथियों की नौजवान कन्हैया टोली और मीडिया-आंकड़ों की हवा-हवाई राजनीति के राज्यसभा सांसदों के फिलहाल मुखिया जयराम रमेश की टीम राहुल गांधी को आगे चलाने वाली है। इससे विरोधी पार्टियों में दसियों तरह के खटके बनेंगे। केजरीवाल, चंद्रेशखर राव, अखिलेश सब खटके रहेंगे।
सोचें, यदि विपक्षी एकता का नीतीश कुमार ने एजेंडा बनाया है तो मल्लिकार्जुन खड़गे को बात संभालनी चाहिए थी या जयराम रमेश को जवाब देना चाहिए था? जयराम रमेश और चिदंबरम दोनों का क्या मतलब है जब मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष हैं? क्या जयराम रमेश या चिदंबरम या सलमान खुर्शीद ने खड़गे से पूछ कर बयानबाजी की? या राहुल गांधी, गांधी परिवार से करीबी होने, उनके गुरू होने के स्वयंभू गुमान में यह अहंकार दिखाया कि कांग्रेस ने कभी भाजपा को गले नहीं लगाया!
ऐसा रवैया कांग्रेसियों का अपने हाथों अपने पांव कुल्हाड़ी मारना है। राहुल की यात्रा (जिसका उत्तर भारत की लोकसभा सीटों में एक भी सीट, खुद राहुल गांधी के अमेठी में जीरो मतलब) ने दरबारी कांग्रेसियों का सिर फिरा दिया है। इनकी वजह से पार्टी इन बातों से भटकी रहनी है कि अखिलेश अहंकारी है, अरविंद केजरीवाल या चंद्रशेखर राव से कांग्रेस साफ हुई है या भाजपा से ममता बनर्जी मिली हुई हैं और हिंदू वोटों में ही सेकुलर फूल खिलेगा। ऐसी बातें कांग्रेस को जहां गड़बड़ाए रखेगी वही विपक्षी एकता की समझदारी भी नहीं बनने देगी। न राहुल गांधी का भला होगा और न कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी बनेगी।
जाहिर है चुनाव 2024 के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को पहले कांग्रेस के भीतर और खासकर गांधी परिवार के ईर्द-गिर्द के मैनेजरों, बड़बोले नेताओं पर नियंत्रण बनाना होगा। राहुल गांधी की निडरता व क्षमता को मोदी सरकार के विरोध में मोड़े रखना होना। यदि राहुल गांधी अगल-बगल के सलाहकारों के चक्कर में भाजपा को अकेले हरा देने की जिद्द में जकड़े गए तो खड़गे और कांग्रेस का सन् 2024 का इरादा ले देकर 40-50 सीटों के नतीजे में अटकेगा।