असली सवाल उत्तर प्रदेश में कानून के राज का है। संविधान की बनाई व्यवस्था का है। भारत के सामाजिक ताने-बाने का है। अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ अहमद की पुलिस की मौजूदगी में हुई हत्या ने इन सवालों की गंभीरता को बढ़ा दिया है। इससे उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति सुधरने, गुंडाराज खत्म होने या माफिया को मिट्टी में मिला देने के दावों पर भी बड़ा सवाल खड़ा होता है। अगर गुंडाराज खत्म है या कानून व्यवस्था बहुत अच्छी हो गई तो ऐसा कैसे संभव है कि पुलिस की मौजूदगी में मीडिया के कैमरों के सामने किसी की हत्या हो जाए? मारा जाने वाला व्यक्ति, चाहे जो हो। उसका अतीत चाहे जैसा रहा हो लेकिन अभी तो वह कानून के संरक्षण में था! जो लोग पुलिस सुरक्षा के बीच उमेश पाल की हत्या से अतीक अहमद की हत्या की तुलना कर रहे हैं वे यह बुनियादी बात भूल रहे हैं।
उमेश पाल को पुलिस की सुरक्षा मिली हुई थी लेकिन वह कानून और पुलिस के संरक्षण में नहीं था। अतीक अहमद और अशरफ अहमद को न्यायिक हिरासत में रखा गया है और एक मामले में पूछताछ के लिए उनको पुलिस की हिरासत में दिया गया था। सो, अतीक और अशरफ की हत्या कानून के राज और सरकार के इकबाल पर बड़ा सवालिया निशान लगाती है। हां, उमेश पाल और अतीक व अशरफ की हत्या में एक समानता जरूर है और वह ये है कि अपराधियों के हौसले बुलंद है और पुलिस लाचार या लापरवाह है। सोचें, फरवरी के आखिरी हफ्ते में उमेश पाल और उसके दो सुरक्षाकर्मियों की दिनदहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी गई और उसके दो महीने से भी कम समय में हत्या के दो आरोपियों को पुलिस की मौजूदगी में गोली मार दी गई तो क्या यह अव्यवस्था का सबूत नहीं है?
जो लोग यह मान रहे हैं कि अतीक का आतंक खत्म हो गया या माफिया राज मिट्टी में मिल गया तो वे गलतफहमी में हैं। इस तरह माफिया राज खत्म नहीं होता है, बल्कि उसका विस्तार होता है। यह गैंगवार है, जिसमें एक गैंगेस्टर को मार कर दूसरा गैंगेस्टर उसकी जगह लेता है। यह वर्चस्व की लड़ाई थी, जिसमें कथित तौर पर अतीक अहमद के गुंडों ने उमेश पाल की हत्या कर दी तो जवाब में किसी दूसरे गिरोह के गुंडों ने अतीक और उसके भाई की हत्या कर दी। यह गुंडाराज या माफिया राज का ही एक रूप है। माफिया राज खत्म करने के लिए कानून का राज स्थापित करना होता है। कानून सम्मत कार्रवाई की जरूरत होती है। बदले की कार्रवाई के तहत होने वाली हत्याओं को माफिया राज खत्म होना नहीं कह सकते हैं।
हो सकता है कि अतीक की हत्या करने वाले किसी संगठित गिरोह के सदस्य न हों लेकिन उनकी तैयारी और घटना को अंजाम देने का तरीका संगठित गिरोह से अलग नहीं था। हत्यारों को मानसिक रूप से विक्षिप्त या बेहद गरीब बताया जा रहा है फिर उनके पास इतनी सघन प्लानिंग और उसे अंजाम देने की सलाहियात कहां से आई? वे वीडियो कैमरे लेकर पत्रकार की तरह कई दिन से मौके की तलाश में घूम रहे थे। उन्होंने जिस पिस्तौल से हत्या को अंजाम दिया है वह विदेशी पिस्तौल है, जिसकी कीमत पांच से सात लाख रुपए बताई जा रही है और इस पर भारत में पाबंदी है। फिर ऐसा हथियार उनके पास कहां से आया? इस तरह के कई सवाल हैं, जो इसके पीछे किसी बड़ी साजिश का संकेत देते हैं। मीडिया में किए जा रहे इस दावे पर यकीन करना मुश्किल है कि तीन अलग अलग जगहों के युवक एक साथ आए और उन्होंने अतीक और उसके भाई की हत्या कर दी। बताया जा रहा है कि हत्या करने से पहले उन्होंने जय श्रीराम का नारा लगाया। ऐसी घटनाओं से पहले धार्मिक नारा लगाना एक अलग तरह के खतरे का संकेत है। यह सामाजिक ताना-बाना बिखरने का संकेत है, जिसे रोका नहीं गया तो हालात बिगड़ते जाएंगे।
अतीक और अशरफ के मारे जाने के बाद एक खास तबके में इस बात का जश्न मनाया जा रहा है कि उमेश पाल हत्याकांड के सात आरोपियों में से छह मारे जा चुके। चार लोगों को पुलिस एनकाउंटर में मारा गया और दो लोगों को पुलिस हिरासत के बीच गोली मार दी गई। क्या यह न्याय है? क्या भारत का संविधान इसी तरह के न्याय की बात करता है? अगर इस तरह सड़कों पर पुलिस या गुंडे न्याय करते रहे तो भारत के संविधान, अदालतों और कानून व्यवस्था की क्या जरूरत रह जाएगी? यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि इसे प्राकृतिक न्याय बता कर कुछ लोग इसे न्यायसंगत ठहरा रहे हैं। राज्य सरकार के एक बड़े मंत्री ने इसे प्राकृतिक न्याय बताते हुए कहा कि पाप और पुण्य का फैसला धरती पर ही होता है। सोचें, क्या कोई भी विचारवान व्यक्ति किसी भी तर्क से इस तरह की हत्याओं को सही ठहरा सकता है? जिस समाज में इस तरह की हत्याओं को सही ठहराया जाने लगे और उसका जश्न मनाया जाने लगे वह समाज गंभीर रूप से बीमार होने लगता है।
सो, चाहे असद अहमद और गुलाम हसन की पुलिस एनकाउंटर में हुई मौत हो या अतीक और अशरफ अहमद की पुलिस की मौजूदगी में हुई हत्या हो, इनकी वस्तुनिष्ठ तरीके से जांच होनी चाहिए। वास्तविकता का पता लगाया जाना चाहिए और दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। कानून का राज और सरकार का इकबाल बहाल करने का यही तरीका हो सकता है। अगर दोषियों को सजा देने का अधिकार पुलिस को मिल गया या जंगल के कानून से न्याय होने लगे तो एक समय के बाद स्थितियां किसी के नियंत्रण में नहीं रह जाएंगी। यह भस्मासुर पैदा करने जैसा है, जिसका खामियाजा अंततः संविधान आधारित राज्य व्यवस्था और नागरिक समाज को भुगतना होगा। ध्यान रहे किसी भी संविधान आधारित सरकार के लिए यह गर्व की बात नहीं हो सकती है कि उसके छह साल के कार्यकाल में 10 हजार एनकाउंटर हुए हैं, 180 के करीब अपराधी मारे गए हैं और साढ़े चार हजार अपराधी घायल हुए हैं। यह कानून के शासन की विफलता का सबूत है।