Wednesday

02-04-2025 Vol 19

सर्वमनोरथ, सर्वसिद्धि प्रदात्री महाविद्या छिन्नमस्ता

महाविद्या छिन्नमस्ता से सम्बन्धित कथाएं मार्कण्डेय पुराण के देवी सप्तशती में और शिव पुराण में अंकित प्राप्य हैं। पौराणिक व तांत्रिक ग्रन्थों के अनुसार छिन्नमस्ता ने ही चंडी स्वरूप धारण करके असुरों का संहार किया था। देवी छिन्नमस्ता प्रत्यालीढपदा हैं, अर्थात युद्ध के लिए सदैव तत्पर एक चरण आगे और एक चरण पीछे करके वीर भेष में छिन्नशिर और खंग धारण किये हुए खड़ी हैं।हिमाचल प्रदेश के उन्ना जिले में चिन्तापुर्णी देवी के नाम से भगवती छिन्नमस्ता का भव्य मंदिर है। कामाख्या के बाद संसार के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात माता छिन्नमस्तिके मंदिर झारखण्ड की राजधानी रांची से लगभग 79 किलोमीटर की दूरी रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित है।

4 मई -छिन्नमस्ता जयंती

देवी छिन्नमस्ता की आराधना- उपासना सम्पूर्ण अर्थों की सिद्धि के निमित्त बैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किये जाने की पौराणिक परिपाटी है। दस महाविद्याओं में से पंचम स्थान पर स्थित देवी छिन्नमस्ता प्रवृति के अनुसार उग्र कोटि अथात स्वरूप की देवी मानी गई हैं। इन्हें छिन्नमस्ता, छिन्नमस्तिका, छिन्नमस्तिष्का, प्रचण्ड चण्डिका आदि नामों से जाना जाता है। सकल चिंताओं का अंत और मन में इच्छित, चिन्तित प्रत्येक मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली देवी के रूप में मान्यता होने के कारण छिन्नमस्ता महाविद्या को  चिंतपूरनी (चिंतपूर्णी) भी कहा जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करने के निमित्त ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र त्रिदेवों को देवी छिन्नमस्ता ही धारण करतीं हैं। देवता इनके खिले कमल के समान दोनों चरणों का सदा भजन करते रहते हैं। महापुण्य को देने वाला ब्रह्मा के मुख से प्रथम बार स्तोत्रित माता छिन्नमस्ता स्तोत्र सम्पूर्ण सिद्धियों का प्रदाता, बडे-बड़े पातक और उपपातकों का नाश करने वाला माना गया है।

प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में दैनिक नित्यकर्मों से निवृत होकर छिन्नमस्ता देवी के पूजा काल में छिन्नमस्ता स्तोत्र के पाठ से मनुष्य की समस्त मनोकामनाएं  शीघ्र पूर्ण होती है। धन, धान्य, पुत्र, पौत्र, घोड़ा, हाथी और पृथ्वी प्राप्त कर अष्ट सिद्धि और नव निधियों को भी प्राप्त कर लेता है। व्यार्घ चर्म द्वारा स्वजंघा रंजिता, अत्यन्त मनोहर आकृति, अत्यधिक लम्बायमान उदर व छोटी आकृति वाली सम्पूर्ण शरीर अनिर्वचनीय त्रिवली से शोभित, मुक्ता से विभूषित, हाथ में कुन्दवत श्वेत वर्ण विचित्र कतरनी शस्त्र धारिता देवी छिन्नमस्ता के द्वारा भक्तों के ऊपर सदा दया दृष्टि बने रहने के कारण महामाया के इस रूप को बारम्बार नमस्कार करने का पौराणिक व तान्त्रिकीय विधान है।

महाविद्या छिन्नमस्ता से सम्बन्धित कथाएं मार्कण्डेय पुराण के देवी सप्तशती में और शिव पुराण में अंकित प्राप्य हैं। पौराणिक व तांत्रिक ग्रन्थों के अनुसार छिन्नमस्ता ने ही चंडी स्वरूप धारण करके असुरों का संहार किया था। देवी छिन्नमस्ता प्रत्यालीढपदा हैं, अर्थात युद्ध के लिए सदैव तत्पर एक चरण आगे और एक चरण पीछे करके वीर भेष में छिन्नशिर और खंग धारण किये हुए खड़ी हैं। छिन्नमस्ता नग्न हैं और अपने कटे हुए गले से निकलती हुई शोणित धारा का पान करती हैं। मस्तक में सर्पाबद्ध मणि धारित, तीन नेत्रों वाली छिन्नमस्ता वक्ष स्थल पर कमलों की माला पहने सुशोभित हो रहीं हैं। जवा कुसुम की भांति रक्तवर्णा देह कान्ति से युक्त छिन्नमस्ता रति में आसक्त कामदेव के ऊपर दंडायमान हैं। देवी की नाभि में स्थित पुष्पित पद्म अर्थात खिले हुए कमल के मध्य में बंदूक पुष्प के समान लाल वर्ण प्रदीप्त सूर्य मण्डल है। उस प्रदीप्त रवि मण्डल के मध्य में बड़ा योनि चक्र है, जिसके मध्य में विपरीत मैथुन क्रीड़ा में रत्तासक्त विराजित कामदेव और रति की पीठ में प्रचण्ड अर्थात छिन्नमस्ता स्थित हैं।

यह करोड़ों तरुण सूर्य के समान तेजशालिनी एवं मंगलमयी हैं। एक चरण आगे और एक चरण पीछे तथा केश खुले, बिखरे अपने सिर को काटकर स्वरुधिर धारा का पान करती हुई बायें हाथ में कटा हुआ मुण्ड और दाहिने हाथ में भीषण कृपाण धारण की हुई वीरवेष से स्थित देवी की चारों दिशायें हीं उनका वस्त्र है। तीनों नेत्र प्रातः कालीन उदीयमान सूर्य के समान प्रकाशमान हैं। देवी के दक्षिण व वाम भाग में निज शक्तिरूपा दो योगिनियां- जया और विजया विराजमान हैं। कहीं- कहीं इन्हें वर्णिनी और डाकिनी के नाम से अभिहित किया गया है। देवी के दक्षिण भाग में श्वेत वर्ण व रक्तवर्णा नेत्रों वाली, खुले केश, कैंची और खर्पर धारिणी योगिनी वर्णिनी छिन्नमस्ता के छिन्न गले से निकलती रुधिर धारा का पान करती हुई खड़ी हैं । प्रत्यालीढपद से स्थित नग्न इस योगिनी के मस्तक में नागाबद्ध मणि है। उग्र मूर्ति रूपिणी नग्न इस योगिनी को कतिपय स्थानों पर रक्तवर्णा और रक्त केशी भी कहा गया है। वाम भाग में खंग खर्पर धारिणी कृष्ण वर्णा दूसरी डाकिनी नाम्नी योगिनी भी छिन्नमस्ता के छिन्न गले से निकलती रुधिर धारा का पान करती हुई खड़ी हैं। यह योगिनी भी नग्न और उसके केश खुले हैं। प्रचंड स्वरूप इस योगिनी की मूर्ति प्रलय काल के मेघ के समान भयंकर है। दायां पांव आगे और बायां पांव पीछे के भाग में स्थित योगिनी डाकिनी प्रलय काल के समान सम्पर्ण जगत का भक्षण करने में समर्थ हैं। दांतों से दुर्निरीक्ष हो रहे मुख मण्डल के मध्य में चलायमान जीभ शोभित हो रही है। तीनों नेत्र बिजली के समान चंचल और हृदय में सर्प विराजमान अत्यन्त भयानक स्वरूपा डाकिनी को माता छिन्नमस्ता अपने कंठ के रुधिर से तृप्त कर रहीं हैं।

पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार इस पविवर्तन शील जगत का अधिपति कबंध है और उसकी शक्ति छिन्नमस्ता है। शिव शक्ति के विपरीत रति आलिंगन में स्थित एक हाथ में खड्ग और दूसरे हाथ में मस्तक धारण किए अपने कटे हुए स्कन्ध से रक्त की निकलने वाली रक्त धाराओं में से एक को स्वयं पीती और अन्य दो धाराओं से अपनी जया और विजया नाम की दो सहेलियों की भूख को तृप्त कर रही हैं। इडा, पिंगला और सुषुम्ना इन तीन नाडियों का संधान कर योग मार्ग में सिद्धि को प्रशस्त करने वाली देवी छिन्नमस्ता महाविद्या को विद्यात्रयी में द्वितीय विद्या माना गया है। आद्या शक्ति अपने स्वरूप का वर्णन करते हुए स्वयं कहती हैं कि मैं छिन्न शीश अवश्य हूं, लेकिन अन्न के आगमन के रूप सिर के सन्धान अर्थात सिर के लगे रहने से यज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हूं। जब सिर संधान रूप अन्न का आगमन बंद हो जाएगा तब उस समय मैं छिन्नमस्ता ही रह जाती हूं। छिन्नमस्ता महाविद्या का संबंध महाप्रलय से है। महाप्रलय का ज्ञान कराने वाली यह महाविद्या भगवती त्रिपुरसुंदरी का ही रौद्र रूप है। अत्यंत गोपनीय स्वरूप वाली देवी चिन्तपूर्णी की कृष्ण और रक्त गुणों की देवियां सहचरी हैं। जिन्हें अजया और विजया भी कहा जाता है। युद्ध में दैत्यों को परास्त करने के बाद भी जब सखियों की रुधिर पिपासा शांत नहीं हुई तो देवी ने ही उनकी रुधिर पिपासा शांत करने के लिए अपना मस्तक काटकर रुधिर पिलाया था।

इसीलिए माता को छिन्नमस्ता नाम से अभिहित किया गया है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक बार आद्यभवानी जया- विजया नाम्नी अपनी सहचरियों के साथ नदी स्नान गई तो उन्हें उस स्थल पर हृदय में सृष्टि रचना की प्रबल अभिलाषा जागृत हो उठी। इस प्रबल इच्छा शक्ति के गरिमा के प्रभाव से देवी का रंग काला पड़ गया। वह स्वयं में लीन, मगन थीं और समय भी अत्यधिक व्यतीत होता जा रहा था, इस पर दोनों सहचरियों ने उनसे बताया कि उन्हें भूख लगी हुई है। देवी ने उन्हें प्रतीक्षा करने के लिये कहा। कुछ समयोपरांत सहचरियों ने पुनः भगवती को स्मरण कराया कि वे भूखी हैं। तब देवी ने अपने खड़्ग से अपना शीश छिन्न अर्थात काट कर अपना कटा सिर अपने हाथ पर रख लिया। उनके कटे धड़ से रक्त की लहरें फूटने, तीन भागों में विभक्त होकर जया- विजया नाम्नी सहचरियों के साथ स्वयं छिन्नमस्ता के पीने की शेष कथाएं सब जगह समान ही हैं।

तांत्रिकीय ग्रन्थों के अनुसार कटे सिर और कबंध से रक्त की तीन धारा बहती त्रिनेत्री, गले में हड्डियों की माला व कंधे पर यज्ञोपवीत धारण किये कामदेव और रति पर आसीन छिन्नमस्ता महाविद्या की उपासना शांत भाव से करने पर यह अपने शांत स्वरूप और उग्र रूप में उपासना करने पर यह उग्र रूप को प्रकट करती है, अर्थात दर्शन देती हैं जिससे साधक के उच्चाटन होने का भय रहता है। चतुर्थ संध्याकाल में पलास और बेलपत्रों से माता छिन्नमस्ता की उपासना से मनुष्य को सरस्वती व महाविद्या की सिद्धि हो जाती है। इससे प्राप्त सिद्धियों से लेखन कौशल, ज्ञान व बुद्धि में वृद्धि, रोग से मुक्ति  और प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष शत्रु परास्त होते हैं। योग, ध्यान और शास्त्रार्थ में पारंगत होकर मनुष्य प्रसिद्ध, विख्यात हो जाता है।

रूद्राक्ष माला से दस माला प्रतिदिन श्रीं ह्नीं ऎं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा मंत्र का जाप लिए जाने का विधान है। इस मंत्र के जाप से देवी सिद्ध होकर कृपा करती हैं। छिन्नमस्ता की साधना दीपावली से शुरू करनी चाहिए। भारत के हिमाचल प्रदेश के उन्ना जिले में चिन्तापुर्णी देवी के नाम से भगवती छिन्नमस्ता का भव्य मंदिर है। कामाख्या के बाद संसार के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात माता छिन्नमस्तिके मंदिर झारखण्ड की राजधानी रांची से लगभग 79 किलोमीटर की दूरी रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित है। रजरप्पा की प्राचीन छिन्नमस्ता मंदिर को बावन शक्तिपीठों में शामिल किया जाता है।

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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