राजस्थान में 21 मार्च को स्वास्थ्य के अधिकार कानून का बिल पास हुआ और उसी दिन से प्रदेश के डॉक्टर इसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आईएमए और यूनाइटेड प्राइवेट क्लिनिक्स एंड हॉस्पिटल्स एसोसिएशन ऑफ राजस्थान की ओर से स्वास्थ्य अधिकार कानून के खिलाफ प्रदर्शन किया जा रहा है। इस कानून के जरिए राज्य के हर नागरिक को स्वास्थ्य सेवा के अधिकार की गारंटी दी गई है, चाहे वह सेवा का भुगतान करने में सक्षम हो या नहीं हो। यह एक क्रांतिकारी कानून है। यह कानून बना कर राजस्थान देश का पहला राज्य बना है, जिसने अपने नागरिकों को स्वास्थ्य अधिकार की गारंटी दी है।
अब कोई भी नागरिक अधिकार के साथ स्वास्थ्य सेवा मांग सकता है और नहीं मिलने पर सरकार को अदालत में ले जा सकता है। कोरोना महामारी के समय जिस तरह से लोग इलाज और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए भटक रहे थे, उसे याद करें और फिर इस कानून की जरूरत के बारे में सोचें तब समझ में आता है कि यह कितना जरूरी कानून है। तभी इसका विरोध कर रहे डॉक्टरों को भी इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए।
इस बिल को तैयार करने में सरकार ने पर्याप्त समय लिया है। पिछले साल मई में इसे आम लोगों की प्रतिक्रिया के लिए सार्वजनिक किया गया था और संबंधित पक्षों की राय मांगी गई थी। उसके बाद सितंबर में इसे विधानसभा में पेश किया गया और फिर प्रवर समिति को विचार के लिए भेज दिया गया। स्वास्थ्य मंत्री की अध्यक्षता वाली प्रवर समिति ने डॉक्टरों के सभी संघों के साथ कई दौर की बातचीत की और उसके बाद 21 मार्च को इसे पास किया गया।
डॉक्टरों के समूह को इस कानून के कुछ प्रावधानों को लेकर आपत्ति है। उनको लग रहा है कि उन्हें मजबूर किया जा रहा है मुफ्त स्वास्थ्य सेवा देने के लिए और अगर वे मुफ्त सेवा नहीं दे पाते हैं तो उन पर मुकदमा भी हो सकता है। डॉक्टरों और प्राइवेट अस्पतालों के संगठनों का कहना है कि लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है लेकिन वह अपनी जिम्मेदारी निजी अस्पतालों पर डाल रही है।
हालांकि ऐसा नहीं है। राजस्थान सरकार का स्वास्थ्य का अधिकार देने का कानून ज्यादातर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बात करता है। सरकारी अस्पतालों के ओपीडी, आईपीडी में मुफ्त इलाज, डॉक्टर की सलाह, आपातकालीन परिवहन, दवाएं आदि की बात इस कानून में की गई है। कुछ निजी अस्पतालों को इसके दायरे में लाया गया है और यह कहा गया है कि इमरजेंसी सेवाएं हर हाल में अस्पतालों को मुहैया करानी होगी और उसके लिए पूर्व भुगतान नहीं कराना होगा, उसका भुगतान बाद में सरकार करेगी।
डॉक्टरों को सबसे ज्यादा आपत्ति इसी दो प्रावधान पर है। उनका कहना है कि निजी अस्पतालों को इसके दायरे में लाकर प्राइवेट डॉक्टरों के ऊपर तलवार लटकाई गई है। साथ ही यह तय नहीं है कि किस मामले को इमरजेंसी केस माना जाएगा या कौन तय करेगा कि कोई मामला इमरजेंसी केस है। दूसरे, यह तय नहीं है कि सरकार की ओर से कब और कितना भुगतान किया जाएगा। कुछ हद तक डॉक्टरों की यह आपत्ति जायज है क्योंकि सरकारी विभागों के भुगतान में अक्सर देरी होती है और लालफीताशाही की बाधा भी आती है, जबकि प्राइवेट अस्पतालों को डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों के वेतन सहित कई जरूरी भुगतान समय से करने होते हैं। तभी सरकार को इस कानून को लागू करने के नियम बनाने के साथ ही यह बता देना चाहिए कि कितना भुगतान होगा और कितने समय के अंदर होगा।
ध्यान रहे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने भी इलाज और जांच में निजी अस्पतालों को शामिल किया है। इसके मुताबिक दिल्ली में रहने वाला कोई भी व्यक्ति किसी सरकारी अस्पताल में इलाज कराता है और वहां जांच की सुविधा उपलब्ध नहीं है या इमरजेंसी में जांच की जरूरत है तो सरकारी अस्पताल मरीज को किसी निजी जांच सेंटर में रेफर कर सकते हैं और वहां जो जांच होगी उसका भुगतान सरकार करेगी। इसमें रेडियोलॉजी के भी सारे जांच शामिल किए गए हैं। दिल्ली सरकार की इस व्यवस्था में तय है कि निजी जांच सेंटर में जांच की जो दर होगी उस दर से भुगतान किया जाएगा।
राजस्थान सरकार को भी यह प्रावधान कर देना चाहिए कि किसी भी निजी अस्पताल में इलाज और जांच की जो भी दर होगी उस दर से भुगतान किया जाएगा। इसमें सरकार को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए क्योंकि राजस्थान सरकार ने चिरंजीवी बीमा योजना बना रखी है, जिसमें करीब 90 फीसदी मरीज कवर होते हैं। इसके अलावा केंद्र सरकार की आयुष्मान भारत योजना भी है। सो, बीमा योजना के तहत भी सरकार निजी अस्पतालों को भुगतान करा सकती है। इसके अलावा राजस्थान सरकार का स्वास्थ्य बजट देश सभी राज्यों के औसत बजट से ज्यादा होता है। तभी ऐसा नहीं लगता है कि सरकार को धन की कमी होगी।
जरूरत इस बात की है कि सरकार डॉक्टरों से बात करके उनकी चिंताओं को दूर करे। उन्हें बताए कि भुगतान में दिक्कत नहीं होगी और किसी को जान बूझकर किसी मामले में फंसाया नहीं जाएगा। इसके बावजूद अगर डॉक्टर नहीं समझते हैं तो माना जाना चाहिए कि वे अपने पेशे के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। डॉक्टरी एक पवित्र पेशा है। डॉक्टर का दर्जा भगवान का होता है। उसके लिए मरीज की जान बचाना पहली प्राथमिकता होती है। इसलिए डॉक्टरों को मरीजों के हित में लाए गए एक क्रांतिकारी कानून का विरोध करके उसे फेल करने की बजाय उसकी कमियों को दूर करके उसे सफल बनाने का प्रयास करना चाहिए। यह एक क्रांतिकारी कानून है और एक टेस्ट केस की तरह है।
अगर राजस्थान में यह कानून सफल होता है तो पूरे देश में इसे लागू करने का रास्ता खुलेगा। ध्यान रहे भारत में एक रिपोर्ट के मुताबिक 78 फीसदी के करीब स्वास्थ्य सेवाएं निजी अस्पतालों और निजी डॉक्टरों द्वारा मुहैया कराई जाती हैं। ऐसे में अगर भारत के लोगों को स्वास्थ्य का अधिकार मिलता है तो उसका विरोध करने की बजाय स्वागत करना चाहिए। उसमें कुछ कमियां हैं तो सरकार के साथ मिल कर उन कमियों को दूर करने का प्रयास किया जाए। उन कमियों के आधार पर एक बेहतरीन कदम को कमजोर नहीं किया जाना चाहिए। यह कोई नहीं कह रहा है कि इसका विरोध कर रहे सारे डॉक्टर लालची या बेईमान हैं लेकिन कोरोना के समय देश ने देखा कि किसी तरह अनेक निजी अस्पतालों में मरीजों के साथ लूट खसोट हुई। अगर कोई सरकार नागरिकों को ऐसी स्थिति से बचाना चाहती है तो विरोध की बजाय उसका स्वागत होना चाहिए।