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24-04-2025 Vol 19

रोकें तो वोट कटें, न रोकें तो के जंगल…

भोपाल। वोटों से झोली भरने वाली ‘लाडली बहना’ स्कीम की लॉन्चिंग के साथ फ्रंट फुट पर आई शिवराज सरकार इन दिनों वोटों के गुणाभाग को लेकर अजीब सी दुविधा में है या यूं कहें धर्म संकट में है। मसला खंडवा, खरगोन और बड़वानी के जंगल साफ होने बाद अब  नेपानगर (बुरहानपुर)के नावरा फॉरेस्ट रेंज का है। जंगल और आदिवासियों से जुड़ा है। दरअसल, प्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों में एक तरह से जंगल में डाका डालने का जैसा जघन्य अपराध हो रहा है। इसमें आदतन अपराध करने वाले माफिया सैकड़ों आदिवासियों के गिरोह को लेकर जंगल पर रातों-रात कब्जा करते हैं। हजारों की संख्या में पेड़ काटते हैं। फिर उनके ठूंटों को जला देते हैं। इसके बाद कब्जाई जमीन को मौखिक तौर पर दूसरों को बेंच  कर आगे निकल जाते हैं। लाखों पेड़ की हत्या और हजारों एकड़ जमीन पर कब्जा इसके बाद भी सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। ऐसे उस मुख्यमंत्री की पीड़ा को समझा जा सकता है जो दो साल से रोज एक पेड़ लगा मानव निर्मित वन लगाने का सपना पूरा करने का अभियान चला रहे हो।

उसकी बेबसी यह कि वह आदिवासियों की आड़ में हो रहे इस संगठित अपराध की हकीकत जानने – समझने के बाद भी उतनी कठोरता से रोक नहीं पा रहे है जिस निर्ममता से कानून और पेड़ों के हत्यारे पिछले कुछ महीनों से पेड़ों को काटने और वन विभाग की जमीन बेंचने काम कर रहे हैं। चिंता में डालने वाली ये जंगली डाकाकसी तब और तेज हुई है जब वन भूमि को आदिवासियों के लिए पट्टे पर देने की बात कहीं गई है। चुनावी साल है। मामला आदिवासियों का है। सरकार बीच का रास्ता निकालने की कोशिश में है। इधर प्रशासन का कहना है हमारे हाथ बंधे हुए हैं।

वन विभाग जिसके अधिकारी कर्मचारी जंगल कटाई और वन भूमि के कब्जे की घटनाओं में सबसे बड़े गुनाहगार हैं। उनका बहाना है कि एक बार विदिशा जिले के नटेरन क्षेत्र में वन कटाई और कब्जे से जुड़ी घटना पर गोली चालन में एक युवक की मौत हो गई थी। इसके बाद सरकार ने कार्यवाही में लगी पूरी टीम को ही निलंबित कर दिया था। इसलिए अब जब तक ऊपर से आदेश नहीं आते मैं कोई सीधी कार्यवाही करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। सबको पता है जंगल में कटाई और कब्जे वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों की सहमति या लापरवाही के बिना संभव नहीं है। इसलिए दोष तो वन विभाग के अमले का है माना जाएगा। बुरहानपुर में जिला पुलिस का कहना है वह कार्यवाही करने को तैयार है लेकिन वन विभाग के अफसर सहयोग नहीं कर रहे हैं दूसरी तरफ स्थानीय ग्रामीण पुरजोर मांग कर रहे हैं कि कब्जा करने आए माफिया से निपटने में वे सभी प्रशासन को मदद करेंगे।

इसके बाद भी जंगल महकमा और पुलिस, प्रशासन सीधी कार्यवाही करने को राजी नहीं दिखते। विषय की गंभीरता इस बात से समझी जा सकती है कि ग्रामीणों ने प्रशासनिक अधिकारियों को स्कूल में ताला बंद कर यह कहते हुए बंधक बना लिया था कि जब तक जंगल के अतिक्रमणकारियों को खदेड़ा नहीं जाता हम किसी अफसर को यहां से जाने नहीं देंगे। आदिवासियों के नाम पर जंगल माफिया ने खंडवा, खरगोन और बड़वानी के बाद बुरहानपुर को अपना निशाना बनाया है। जो माफिया सक्रिय हैं उनके सर हजारों रुपए के नाम है। सरकार अगर तय कर ले तो आरोपी जेल में होंगे और वन भूमि वापस सरकार के कब्जे में आएगी। लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है जो पेड़ कट गए हैं वह कैसे हरे भरे होंगे और इस अपराध अपराध की सजा किससे मिलेगी कौन जिम्मेदार है खेत और महत्वपूर्ण है जब खुद रोज एक पेड़ लगाकर जंगल बढ़ाने की बात करते हैं। 17 मार्च को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बुरहानपुर के दौरे पर है आशा की जा रही है तब तक इस समस्या का कोई समाधान निकल आएगा लेकिन अभी पेड़, जंगल की जमीन और सरकार का इकबाल संकट में है।

उमा – शिवराज की जुगलबंदी
मध्य प्रदेश में भाजपा की सियासत में नए समीकरण देखे जा रहे हैं इसमें सबसे महत्व पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बीच शराब नीति को लेकर हो रही जुगलबंदी सबसे महत्वपूर्ण है। उमा जी के लगातार दबाव से सरकार में शराबबंदी तो नहीं की लेकिन नई नीति में शराब के आहते बंद कर दिए। इस मुद्दे पर उमा भारती सरकार पर प्रसन्न हैं। वे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर प्रशंसा की झड़ी लगाते हुए फूलों की बारिश भी करती हैं। उनका कहना – नई शराब नीति शराबबंदी जैसी ही है। इधर शिवराज सिंह चौहान याद दिलाते हैं की 2003 में जब भाजपा की सरकार आई थी तो उसमें उमा भारती जी सबसे बड़े योद्धा के रूप में नेतृत्व कर रहीं थी। वैसे भी यह चुनाव आदिवासी और ओबीसी को केंद्र में रखकर लड़ा जाने वाला है। इसलिए 2023 के चुनाव में संभव है उमा भारती की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाए। लेकिन इसके लिए केंद्र से हरी झंडी और स्थानीय नेताओं खासतौर से केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की राय भी खास होगी। लंबे समय से सूबे की सियासत से बाहर हैं। ऐसे में उनके लिए प्रदेश की राजनीति में वापसी करने का अच्छा अवसर भी है।

राघवेन्द्र सिंह

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