भोपाल। सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय पीठ जिसके मुखिया प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ थे, उन्होंने कहा की अगर दिल्ली सरकार के अफसरों और कर्मचरियों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण है तब आखिर यहां पर एक चुनी हुई सरकार क्यूं ? भारत सरकार के सलिसीटर जनरल तुषार मेहता का इस सवाल पर जवाब मोदी सरकार की नियत उजागर कर देती हैं, उन्होंने कहा की दिल्ली एक केंद्र शासित राज्य है। जो संघ का विस्तारित रूप हैं! जिसके अनुसार यदि कोई अफसर अपनी भूमिका को इच्छानुसार नहीं निभा पता है तो दिल्ली सरकार के पास उस अफसर का तबादला करने और उसकी जगह पर किसी अन्य को नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा !
मोदी सरकार के इस रुख से यह तो साफ हो गया कि वे जिन राज्यों या स्थानों में उनकी पार्टी की सरकार नहीं हैं वहां वे अपने प्रतिनिधि गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर के जरिये उस सरकार को पंगु करने के लिए सभी जा और बेज़ा तरीके इस्तेमाल करेंगे! अब दिल्ली के 1 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं की आवाज को उलटने की मोदी सरकार की कोशिश अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सरकार आने के बाद शुरू हुई हैं। क्यूंकि 2013 के विधान सभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने संघ और देश के बीजेपी कार्यकर्ताओं मंत्रियों, सांसदों, मुख्यमंत्रियों के साथ धुआंधार साम – दाम – दंड और भेद की तरकीब अपनाते हुए चुनावी रैलियां की भरमार कर दी थी।
यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चार रैलियां निकली थी। परंतु परिणाम प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के लिए घोर निराशाजनक रहे , बीजेपी के कुल चार ही विधायक चुने गए ! करोड़ों रुपये चुनाव प्रचार में खर्च करके भी बीजेपी को मुंहकी खानी पड़ी। दुबारा 2015 में केजरीवाल फिर मुख्यमंत्री बने , जबकि केंद्र सरकार की सत्तारूढ़ पार्टी ने पूरा ज़ोर लगा लिया था कि उनको गद्दी तक नहीं पहंुचने दिया जाये। 16 अगस्त 2017 को उन्होंने तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली , तब वे सत्तारुढ़ पार्टी और उसके नेताओं के दुश्मन नम्बर वन बन गए। तीसरी बार हुए चुनाव में बीजेपी शासित राज्यों के आधा दर्जन मुख्यमंत्री और दर्जनों मंत्रियों ने दिल्ली की गलियाओं और बाजारों में रोड शो किए घर घर जा कर पर्चे बांटे और चैनलों पर सोशल मीडिया में भी घटाटोप पब्लिसिटी हुई पर नतीजा वही धाक के तीन पात बीजेपी विधानसभा में दहाई की संख्या ही जुटा पायी।
दिल्ली के नगर निगम के चुनाव में एक बार फिर उनके हाथ से सत्ता की कमान केजरीवाल ने छीन ली। अब इतनी पराजय की कुंठा ही दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा केजरीवाल सरकार के काम में लंगड़ी लगाने की हैं। जो केंद्र सरकार के इशारे पर की जाती हैं। जिस पर प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने 17 जनवरी तक जवाब मांगा हैं।
गैर बीजेपी शासित राज्यों के राज्यपाल और उनके फैसलेI
दिल्ली अकेला राज्य नहीं हैं , जहां केंद्र की बीजेपी की सरकार अपने प्रतिनिधियों – राज्यपालों के से अपनी इच्छा व्यक्त करती हैं। केंद्र को संविधान में राज्यों को सलाह या किसी स्थिति विशेश में निर्देश देने का अधिकार हैं , परंतु किसी भी परिस्थिति में उन राज्यों की चुनी हुई सरकारों को परेशान करने और निचा दिखाने का हक़ नहीं हैं। नीचे कुछ उदाहरण हैं जो मोदी सरकार द्वारा नियुक्त इन लोगों ने किया।
महाराष्ट्र के राज्यपाल कोशियारी जी द्वारा फड़नवीस और अजित पवार को मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद की शपथ भोर के धुंधलके मे सम्पन्न कराई! न कोई राज घोषणा -न कोई लिखित गज़ट, जो कि शपथ को संवैधानिक बनाते हैं। फिर शिवसेना की ठाकरे सरकार द्वारा विधान परिषद में सदस्यों के मनोनयन की फाइल को दबा कर बैठे रहे। मुख्यमंत्री ठाकरे द्वारा आग्रह करने के बाद भी !
दूसरा उदाहरण बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल और वर्तमान उप राष्ट्रपति धनखड़ जी का हैं , जो हमेशा अपने बयानों से मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी को लांछित करते रहते थे। वहां कानून और व्यवस्था को लेकर हमेशा सरकार को कटघरे में खड़ा करते रहते थे। सरकार की सिफ़ारिशों को लटकाने के भी आरोप ममता जी ने कई बार लगाए। शायद उनकी इन्हीं फैसलोम के लिए मोदी सरकार ने उन्हे उप राष्ट्रपति के पद से नवाजा हैं।
तीसरा उदाहरण केरल का है , जहां गवर्नर आरिफ़ मुहम्मद जी अखबारों में सुखियों के लिए विजयन सरकार के फैसलों को अनुचित बताते हैं। यहां तक की उन्होंने केरल के विश्व विद्यालयों के कुलपतियों को एक साथ इस्तीफा तक देने का हुकुम सुना दिया था, बिना यह समझे कि यह फैसला शिक्षा क्षेत्र में कितनी परेषानियां करेगा। एक आयोजन में उन्होंने इतिहासकर इरफान हबीब पर हमला करने का आरोप लगा दिया। दोनों ही अलीगढ विश्वविद्यालय से परिचित है। फिर भी। हिन्दू – मुसलमान विषय पर वे बिलकुल हिन्दुत्व पर भाषण दे देते हैं। जिससे कि राज्य में अनावश्यक तनाव हो जाता हैं।
राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्रा ने भी गहलौत सरकार को विश्वास मत सिद्ध करने के लिए विधानसभा सत्र आहूत करने की मंत्रिमंडल की मांग को नहीं माना था। फलस्वरूप मुख्यमंत्री गहलौत को राज भवन पर मंत्रियों समेत धरना देना पड़ा। क्यूंकि तब तक बीजेपी को आशा थी कि महाराष्ट्र की भांति यहां भी काँग्रेस को तोड़कर बीजेपी के नेत्रत्व में सरकार बनाई जा सकती हैं। तो यह तथा -कथा मोदी सरकार के संवैधानिक प्रतिनिधियों की !