दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में उन के शिक्षण को तिरोहित कर उन्हें मात्र ‘रिलीजियस’ श्रेणी में रख दिया गया। मानो उन की शिक्षाओं की बच्चों, युवाओं को आवश्यकता नहीं।…किन्तु याद करें, बरसों पश्चिम में कीर्ति-पताका फहरा कर जब विवेकानन्द भारत आए, तब देश भर में घूम-घूम कर उन्होंने आम जनों के बीच व्याख्यान दिए। कोलम्बो, मद्रास से ढाका, लाहौर तक उन के व्याख्यान लाखों लोगों ने सुने। …विवेकानन्द ने ऐसी अनेक सीख दी, जो नित्यप्रति जीवन में काम आने वाली है।
स्वामी विवेकानन्द को केवल धर्म-गुरू समझना एक भ्रामक धारणा है। वे महान शिक्षक थे: भारतीय ज्ञान-परंपरा के व्याख्याता। अमेरिका, यूरोप में उन्होंने संपूर्णतः योग-वेदान्त के ही व्याख्यान दिए थे, जिस से उन्हें ख्याति मिली। दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में उन के शिक्षण को तिरोहित कर उन्हें मात्र ‘रिलीजियस’ श्रेणी में रख दिया गया। मानो उन की शिक्षाओं की बच्चों, युवाओं को आवश्यकता नहीं।
किन्तु याद करें, बरसों पश्चिम में कीर्ति-पताका फहरा कर जब विवेकानन्द भारत आए, तब देश भर में घूम-घूम कर उन्होंने आम जनों के बीच व्याख्यान दिए। कोलम्बो, मद्रास से ढाका, लाहौर तक उन के व्याख्यान लाखों लोगों ने सुने। उन व्याख्यानों का संग्रह ‘कोलम्बो से अल्मोड़ा तक’ एक क्लासिक पुस्तक है। हिन्दी में उस का अनुवाद महाप्राण कवि निराला ने किया था। उस का संक्षिप्त संस्करण ‘युवको के प्रति’ शीर्षक से रामकृष्ण मिशन के प्रकाशनों में सदा उपलब्ध है, प्रत्येक भारतीय के लिए अवश्य पठनीय।
विवेकानन्द ने ऐसी अनेक सीख दी, जो नित्यप्रति जीवन में काम आने वाली है। जैसे, उन्होंने कहा था कि ‘किसी कठिनाई से भागो नहीं’। सीधे उस का सामना करो तो कठिनाई हल्की लगने लगेगी। कठिनाई की उपमा उन्होंने जंगली-पशु से दी, और कहा कि आँखें मिलाकर ‘उस के सामने खड़े हो जाओ’। फिर देखो कि वह सहमता है।
इसी तरह, ‘कभी किसी बाहरी मदद की आस न करो। सारी शक्ति तुम्हारे अंदर ही है। सोच कर देखो, तो अब तक जीवन में उसी से कुछ उपलब्ध हुआ है’। फिर, भावनाओं में न बहो। आवेश, तीव्रता में जाने से शक्ति का व्यर्थ क्षय होता है। व्यवहार करते हुए एकत्व की ओर बढ़ने,निकटता लाने वाली बात बोलो, न कि दुराव बढ़ाने वाली। काम करते हुए सभी कर्मफल कृष्णार्पित या माँ भगवती को अर्पित करते रहो। यह सोच कर कि यह उन का काम है।
यहाँ शंका हो सकती है कि संसारी लोग ऐसा निष्काम कर्म कैसे कर सकते हैं? पर विवेकानन्द ने उसे घरेलू सेविका द्वारा बच्चे की देखभाल से समझाया। सेविका अपने मालिक के बच्चे का प्रेम-भाव से लालन-पालन करती है। परन्तु यदि मालिक उसे काम से हटा दे या वही कोई अन्य काम पकड़ ले, तो वह चिन्ता नहीं करती कि अब बच्चे का क्या, कैसे होगा! वह अपनी गठरी लेकर नये काम पर चली जाती है। उसी भाव से संसारी लोगों को हर काम रामजी का काम समझ कर करना ही व्यवहारिक है। यानी, सारे काम बिना आसक्ति रखे करते जाना। तब कभी क्लेश न होगा, अथवा नगण्य होगा।
विवेकानन्द के अनुसार ‘काम करते हुए दुविधा में न पड़ो। अच्छे-बुरे की चिन्ता बिलकुल छोड़ कर कर्म करो। कौन जानता है कि कौन कार्य हम अच्छा कर रहे हैं या बुरा? भलाई-बुराई एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।’ केवल शुभ तो स्व-विरोधी कल्पना है। हर शुभ के साथ कोई अशुभ भी है ही। द्वन्द्व ही जीवन है। बिना विकार के कर्म असंभव है। अतः अपनी ओर से जानते-बूझते अनुचित कर्म न करो। फिर उस के फलाफल की परवाह छोड़ कार्य करो।
आगे, ‘अपने भी काम, बोली, आचरण को सदैव साक्षी भाव से दूर से देखते रहो।’ उपनिषद में दो पक्षियों की उपमा से यही सीख मिलती है। एक ही वृक्ष की शाखा पर दो पक्षी बैठे हैं। एक फल खा रहा है, दूसरा उसे देख रहा है। कहानी आगे बताती है कि वस्तुतः दोनों एक ही पक्षी है! उस का खाना, और खाते हुए उसे देखना एक ही पक्षी का कार्य है। यह मनुष्य भी कर सकता है, करता भी है। केवल उसे सचेत रूप से अपने व्यवहार का अंग बनाने की आवश्यकता है। तब झूठे अभिमान, आवेश, क्रोध, दुःख, आदि से मुक्त रहना सहज हो जाएगा।
विवेकानन्द ने इस पर जोर दिया कि अनासक्त होकर कार्य करना ही व्यवहारिक है। किसी चीज, विचार, व्यक्ति, स्थान, संस्था, आदि से आसक्ति न रखो। मन को स्वधीन रखो। परिवार और संपत्ति के प्रति भी स्वामी नहीं, अपितु अवधिबद्ध व्यवस्थापक होने जैसा भाव रहे। क्योंकि यही सत्य भी है। उपनिषद के आरंभ में ही है, ‘कस्य स्विद धनम्?’। धन किस का हुआ है? वैसे ही, घर-परिवार भी ‘यावत् पवनो निवसति देहे,
तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।’ सब कुछ अनित्य है। किसी का वर्तमान जीवन उस के असंख्य जन्मों में एक है। जो पलक झपकते बीत जाएगा। तुम्हें पता भी नहीं चलता कि कब वृद्ध हो गए!
अतः तुम्हारा वर्तमान घर एक धर्मशाला भर है। परिवारजन सांयोगिक पड़ोसी हैं, जिन से दूर होना अनिवार्य है। अतः उन्हें प्रेम करो, उन का ध्यान भी रखो। परन्तु उन्हें ‘मेरा’ न कहो। स्वामीजी उदाहरण देते कहते हैं कि किसी दूसरे का मूल्यवान सुन्दर चित्र जल जाता है तो तुम्हें कुछ महसूस नहीं होता। क्योंकि वह ‘तुम्हारा’ नहीं है। अर्थात्, ‘मैं एवं मेरा’ ही सारे क्लेश की जड़ है। अतः इस भावना से मुक्त रह कर कार्य करते हुए तुम सदैव आनन्दित रह सकते हो। ऐसा करने का उपाय भी वेदान्त बताता है। इसी संदर्भ में गीता में कृष्ण ने कहा है: ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय…’।
अतः सारा रहस्य अभ्यास में है। विचारें, अनुभव करें, मनन करें। इस तरह अभ्यास से अहंकार कम होकर नष्ट हो सकता है। नित्य प्रति कुछ देर भी स्वाध्याय, योगाभ्यास, और चिंतन से धीरे-धीरे सच्ची कर्म-भावना विकसित हो जाएगी। दुःख कभी खत्म नहीं कर सकते। केवल इधर से उधर विस्थापित भर कर सकते हैं। किन्तु दूसरों की निरंतर भलाई करने से तुम्हारी आत्म-शुद्धि होती है। इसीलिए उस में वास्तविक सुख है। ऐसा प्रत्येक कार्य हमारे क्षुद्र अहं को प्रतिक्षण घटाता है। अतः किसी की भलाई करने का अहंकार नहीं पालना चाहिए। बस, अपना विहित कर्म कर रहे हैं। किसी का उपकार हो सका तो हमारा सौभाग्य, यह समझने से अहंकार और आसक्ति नहीं होगी।
स्वामीजी के अनुसार, ‘बिना स्वार्थ किया गया प्रत्येक कार्य हमारे पैरों की एक बेड़ी तोड़ देता है’। बिन प्रतिदान की आशा से किया गया प्रत्येक शुभ विचार भी संचित होता जाता है। वह हमारी ही एक-एक बेड़ी काटता है और हम अधिकाधिक पवित्र बनते जा सकते हैं। हमारा लक्ष्य मुक्ति है। यही सहज मानवीय स्वभाव है। मनुष्य की सारी छटपटाहट अंततः मुक्ति की ओर है। वह जिस अनश्वर, असीम, अनादि से बना है, उसी से पुनः मिल जाने की इच्छा उस के अंतरतम में कहीं सदैव दबी है। विवेकानन्द उसे स्मरण रखने हेतु रानी मदालसा की पौराणिक कथा स्मरण कराते हैं। वह अपने नवजात शिशु को आरंभ से ही ‘शुद्धोसि, बुद्धोसि, निरंजनोसि …’ का गीत गा-गाकर शिक्षा देती थी: कि हे पुत्र, तुम शुद्ध, बुद्ध, निरंजन हो; तुम्हें क्या चिन्ता, क्या क्लेश! विवेकानन्द ने प्रत्येक बच्चे में जन्म से ही इस गीत का भाव भर देने की सलाह दी है। ताकि वह आजन्म आनंदित एवं बलवान बना रह सके।
वस्तुतः योग-वेदान्त की संपूर्ण शिक्षा मनुष्य को संसार में जीते हुए कर्मयोगी बनाने की है। इस से अधिक व्यावहारिक कोई अन्य शिक्षा असंभव है। किसी भी आयु में, कोई भी रोजगार करते हुए, उस की उपयोगिता यथावत है। क्योंकि वेदान्त कोई ‘फेथ’ वाला रिलीजन नहीं, जर्मन भाषा वाला ‘साइंस’ है। जैसे जगत के लिए भौतिकी, रसायन, कृषि, आदि का ज्ञान है, उसी तरह आत्मिक जगत के लिए योग-वेदान्त का ज्ञान है। इसीलिए वह शुद्ध व्यवहारिक है। स्वामी विवेकानन्द ने इसी शिक्षा से पूरी दुनिया को विस्मित कर दिया था। हम उसे विस्मृत करके, केवल भौतिक सूचकों पर केंद्रित होकर, या तरह-तरह के नाटक, आडंबर करते अपने मुँह मियाँ मिट्ठू होकर अपनी ही हानि और भेद करते रहे हैं।